________________
उपकार (१) श्री रैवताचल तथा चितौड़गढ तीर्थोद्धारक स्व० आचार्य श्री विजय नीतिसूरीश्वरजी के शिष्य आचार्य श्री हर्षसूरिजी के शिष्य आ० श्री महेंद्रसूरिजी महाराज का उपकार मानता हूं जिनकी कृपा पत्रिका से मद्रास में पुस्तकों का अग्रिम विक्रय हुवा, तथा जिन्होंने पुस्तक का अवलोकन कर सम्मत्ति रूप आशीर्वाद वचन लिखे हैं जो अन्यत्र छपे हैं ।
(२) पंजाब केसरी स्व० प्रा० विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराज सा० के पट्टधर प्रा० श्री समुद्रसूरीश्वरजी महाराज साहब तथा श्री जनकविजयजी गणि का उपकार मानता हूं जिन्होंने इस ग्रंथ को देखकर वचनामृत लिखे हैं।
(३) परमोपकारी गुरुदेव श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी के आज्ञावर्ती आगम प्रभाकर मुनिराज श्री पुण्य विजयजी का उपकार मानता हूं जिन्होंने सर्व प्रथम इस ग्रंथ का अवलोकन कर आशीर्वाद प्रदान किया। आपका उपकार जैन समाज नहीं भूल सकता है । जैसलमेर के ज्ञान भंडारों को व्यवस्थित करने में भगोरथ प्रयत्न आपने किया है । अतः मैं भी आपका दोनों तरह से उपकार मानता हूं ।
(४) परम तपस्वी मुनिराज श्री रूपविजयजी, श्री भानुविजयजी, श्री विशारदविजयजी श्री जयविजयजी (वल्लभसूरीजी के शिष्य),श्री पं० यशोभद्रविजयजी गणि,श्री कांतिसागरजी आदि गुरुवरों ने व्याख्यानों में उपदेश देकर पुस्तक की अनुमोदना की अतः सबका उपकार मानता हूं।