Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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आचार्य आनन्दवर्धन ध्वनि सिद्धान्त के स्पष्टीकरण के बाद रीति का ध्वनितत्व में ही अन्तर्भाव
स्वीकार करते हैं। ध्वनितत्व की जब तक व्याख्या नहीं हो सकी थी तब तक वामन आदि ने रीतियाँ प्रचलित की।1 ध्वनितत्व के स्पष्ट प्रतिपादन के पश्चात् उससे भिन्न रूप में रीति लक्षणों की
आवश्यकता आचार्य आनन्दवर्धन ने स्वीकार नहीं की है। रचना को वर्ण और पद की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। पदों की दृष्टि से रचना के तीन भिन्न स्वरूप हैं-असमासा, मध्यमसमासा
और दीर्घसमासा । आचार्य आनन्दवर्धन इसी को संघटना कहकर उसे रसाश्रयी कहते हैं । इस रसाश्रयी संघटना के आन्तरिक तत्व प्रसाद, माधुर्य और ओज आदि गुण हैं तथा समास उसका बाह्य तत्व है। माधुर्यादि गुणों के आश्रित स्थित संघटना रसादि को व्यक्त करती है. यह कहकर आचार्य आनन्दवर्धन ने ही संघटना का रस से घनिष्ठ सम्बन्ध सिद्ध किया है। आचार्य कुन्तक काव्य की रचना शैली के सम्बन्ध में कवि स्वभाव को ही विशेष महत्व प्रदान करते हैं। वे रीति के स्थान पर सुकुमार, विचित्र तथा मध्यमार्ग को स्वीकार कर उसे कवि प्रस्थान हेतु कहते हैं। यह भेद कवि स्वभाव पर ही आधारित हैं।
'काव्यमीमांसा' का संक्षिप्त रीति विवेचन काव्य के उत्तरोत्तर विकास का सूचक होने के कारण कवि शिक्षा ग्रन्थ के अनुरूप विषय ही सिद्ध होता है। काव्यनिर्माण में प्रतिभा के साथ ही व्युत्पत्ति तथा अभ्यास भी परम आवश्यक तत्व हैं। इनके द्वारा ही कवि शब्दार्थ के यथोचित् साहित्य से युक्त, पूर्णत: सरस श्रेष्ठ काव्य की रचना करने में समर्थ होता है। काव्य साहित्य से जितना अधिक घनिष्ठता से सम्बद्ध
1. 'अस्फुटस्फुरितं काव्यतत्वमेतद्यथोदितम् अशक्नुवद्भिर्व्याकर्तुं रीतयः सम्प्रवर्तिताः ।। 47 ॥
ध्वन्यालोक - तृतीय उद्योत 2 'असमासा, समासेन मध्यमेन च भूषिता तथा दीर्घसमासेति त्रिधा संङ्घटनोदिता ॥5॥
ध्वन्यालोक - तृतीय उद्योत 3 'गुणानाश्रित्य तिष्ठन्ती माधुर्यादीन् व्यनक्ति सा रसान्'
ध्वन्यालोक - तृतीय उद्योत 4. 'सम्प्रति तत्र ये मार्गा: कविप्रस्थानहेतवः। सुकुमारो विचित्रश्च मध्यमश्चोभयात्मकः' 124 ।
वक्रोक्तिजीवित (द्वितीय - उन्मेष)