Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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अथवा नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा कहा है। अधिकांशतः यह सामर्थ्य प्रतिभा शब्द से ही अभिहित है। आचार्य रुद्रट से पूर्वकालीन इन आचार्यों की परिभाषाओं में दो वैशिष्ट्य निहित हैं-कवित्व का बीजरूप संस्कार तथा नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि। आचार्य रुद्रट की दृष्टि में प्रतिभा तथा शक्ति पर्यायवाची हैं। निरन्तर एकाग्र मन में अनेक प्रकार के अर्थों का तथा अक्लिष्ट पदों का विस्फुरण कराने वाली सामर्थ्य आचार्य रुद्रट की शक्ति है।। अन्य पूर्वाचार्यों की प्रतिभा आचार्य रुद्रट की शक्ति के समान है क्योंकि इस शक्ति की तुलना पूर्वाचार्यों की परिभाषा की 'नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि' से की जा सकती है। 'काव्योपयोगी शब्द और अर्थ का मन में विस्फुरण' एवम् 'बुद्धि का नवनवोन्मेष' केवल वचनान्तर ही हैं । आचार्य रुद्रट की शक्ति तथा आचार्य राजशेखर की प्रतिभा परिभाषा की दृष्टि से समान हैं। कविहृदय में शब्दों, अर्थों, अलङ्कारों, उक्तियों आदि काव्योपयोगी सामग्री को प्रतिभासित करने वाली सामर्थ्य आचार्य राजशेखर के अनुसार प्रतिभा है। आचार्य मम्मट की शक्ति भी कवित्व का बीजरूप
संस्कारविशेष ही है।
आचार्य आनन्दवर्धन ने भी शक्ति एवम् प्रतिभा शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है।
ध्वनिकाव्य की श्रेष्ठता स्वीकार करने वाले आचार्य आनन्दवर्धन कवि की अशक्ति अथवा अव्युत्पत्ति से
दोषयुक्त काव्य को ध्वनि का विषय नहीं मानते। ध्वनि से अन्यथा प्रसङ्गों में सहृदयों को कवि की अव्युत्पत्ति से उत्पन्न दोष उसकी प्रतिभा के प्रभाव से तिरोहित हो जाने के कारण कभी-कभी प्रतीत नहीं होते, किन्तु कवि की अशक्ति से उत्पन्न दोष तो व्युत्पत्ति द्वारा भी छिपाया नहीं जा सकता, वह तुरन्त प्रतीत हो जाता है 3 यद्यपि यह दोनों ही स्थल दोषयुक्त हैं, अतः ध्वनिकाव्य नहीं है। ध्वनि एवम् गुणीभूतव्यङ्गय के आश्रय से कवियों का प्रतिभागुण अनन्तता को प्राप्त होता है। यदि कवि में
1. मनसि सदा सुसमाधिनी विस्फुरणमनेकधामिधेयस्य अक्लिष्टानि पदानि च विभान्ति यस्यामसौ शक्तिः। (1-15)
काव्यालङ्कार (रुद्रट) 2 या शब्दग्राममर्थसार्थमलङ्कारतन्त्रमुक्तिमार्गमन्यदपि तथाविधमधिहृदयं प्रतिभासयति सा प्रतिभा। (चतुर्थ अध्याय)
काव्यमीमांसा - (राजशेखर) 3. अव्युत्पत्तेरशक्तेर्वा निबन्धो यः स्खलद्गतेः शब्दस्य स च न ज्ञेयः सूरिभिर्विषयो ध्वनेः। 321
अव्युत्पत्तिकृतो दोषः शक्त्या संक्रियते कवे: यस्त्वशक्तिकृतस्तस्य झगित्येवावभासते।।
ध्वन्यालोक (द्वितीय उद्योत)