Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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इन रचनाओं के अतिरिक्त कुछ रचनाएँ ऐसी भी होती हैं जिन्हें संस्कार करके भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। इस प्रकार की रचनाएं कवि के लिए पूर्णत: त्याज्य है क्योंकि आदि में किसी भी प्रकार के स्वरूपवाली इन रचनाओं का अन्त सर्वथा नीरस होता है। अन्त में पूर्णत: नीरस रचना का संस्कार किस सीमा तक किया भी जा सकता है? जबकि सहृदय की रस प्रतीति का सम्बन्ध रचना के
पर्यवसायी रूप के रस निर्वाह से अधिक है। प्रारम्भिक अभ्यासी कवि को अन्त में सर्वथा नीरस रचना
करने से अपने को बचाना चाहिए। अभ्यास द्वारा वह क्रमशः ऐसी स्थिति में पहुंच सकता है जहाँ उसकी रचना अन्त में कुछ मधुर स्वाद वाली हो जाए, मधुर स्वाद पर्यवसायी रचना की क्षमता प्राप्त हो जाने के पश्चात् भी कवि को निरन्तर अभ्यास की उस समय तक आवश्यकता है जब तक कि उसकी रचनाएँ अन्त में सर्वथा सरसता, की सीमा तक न पहुँच जाएँ। आचार्य राजशेखर की दृष्टि में रचना के पर्यवसायी रूप की सरसता, नीरसता का जितना महत्व है रचना के आदि स्वरूप की सरसता, नीरसता को उन्होंने उतना महत्व नहीं दिया है।
काव्यनिर्माण के नौ पाक रूपों के आचार्य राजशेखर ने तीन वर्ग बनाए हैं। इन तीन वर्गों को
रचना के आदि स्वरूप के आधार पर पृथक किया गया है। आदि में नीरस तीन प्रकार की रचनाओं का
एक वर्ग है- जिनमें पिचुमन्द पाक अन्त में भी सर्वथा नीरसता के कारण त्याज्य है, बदरपाक अन्त में कुछ सरस होने से संस्कार्य है, तथा मृद्वीका पाक अन्त में पूर्णतः सरस होने से ग्राह्य है।
1. तत्राद्यन्तयोरस्वादु पिचुमन्दपाकम्।
आदौ मध्यममन्ते चास्वादु वार्ताकपाकम्। आदावुत्तममन्ते चास्वादु क्रमुकपाकम्। तेषां त्रिष्वपि त्रिकेषु पाका: प्रथमे त्याज्याः। वरमकविन पुनः कुकविः स्यात् । कुकविता हि सोच्छ्वासं मरणम्
(काव्यमीमांसा - पञ्चम अध्याय)