Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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कविसमय का महत्व :
शास्त्रप्रसिद्धि एवम् लोकप्रसिद्धि के विपरीत कविप्रसिद्धि होने पर अनिश्चय की स्थिति यदि उपस्थित हो जाए तो वास्तविक स्थिति को प्रमाण न मानकर कवियों द्वारा मान्य स्थिति को ही प्रमाण माना जाता है। देश भेद तथा कालभेद से पदार्थ के स्वरूप में अन्तर उपस्थित हो जाने पर भी पदार्थ का वर्णन देशकाल के अनुसार न करके कवि परम्परा के अनुसार करने का ही औचित्य है । महाकवियों के उल्लेख ही इस विषय में प्रमाण हैं। इस प्रकार काव्यजगत् में कवि परम्परा का शास्त्रों की स्वीकृति तथा लोक स्वीकृति से भी अधिक महत्व है। प्रायः सभी काव्यशास्त्रियों ने काव्य में लोक, शास्त्र, देश, काल वय, अवस्थादि के विरोधी अर्थ का निबन्धन दोष माना है। आचार्य भोजराज के अनुसार प्रत्यक्ष के विरुद्ध तथा शास्त्र के विरुद्ध अर्थ का काव्य में निबन्धन दोष कहलाता है।1 देश, काल, लोकादि के विरुद्ध वर्णन प्रत्यक्ष विरोध दोष है और धर्मशास्त्र, कामशास्त्र, अर्थशास्त्रादि के विरोधी अर्थ का वर्णन आगम विरोध दोष है। इसके साथ ही काव्य में यह भी स्वीकार किया गया है कि देशकाल शास्त्रादि के विपरीत अर्थ का निबन्धन कविप्रसिद्धि का विषय होने पर दोष नहीं रह जाता। कवि सत् वस्तु का असत् रूप में तथा असत् वस्तु का सत् रूप में वर्णन कर सकते हैं, जबकि महाकवियों के काव्यों में ऐसे वर्णन की परम्परा विद्यमान हो । कविसम्प्रदायसिद्ध अर्थों में इतनी सामर्थ्य होती है कि वे विरोधपूर्ण होने पर भी दोष नहीं है । कविसमय दोष नहीं हैं, इसी कारण उनको काव्यगुण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि दोष का अभाव भी गुण ही है ।
1.
विरुद्धं नाम तद् यत्र विरोधस्त्रिविधो भवेत् प्रत्यक्षेणानुमानेन तद्वदागमवर्त्मना । 54 यो देशकाललोकादिप्रतीपः कोऽपि दृश्यते तमामनन्ति प्रत्यक्षविरोधं शुद्धबुद्धयः ।55।
[ सरस्वतीकण्ठाभरण (भोजराज ) (प्रथम परिच्छेद) ]