Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
View full book text
________________
पञ्चम अध्याय
काव्य में हरण - औचित्य तथा आवश्यकता 'हरण' प्रारम्भिक कवि की शिक्षा से सम्बद्ध विषय है, इसी कारण प्रारम्भिक कवि की शिक्षा के लिए रचित ग्रन्थों में इस विषय की व्यापक विवेचना है। प्रारम्भिक अवस्था के कवि में प्रतिभासम्पन्नता तथा व्युत्पन्नता की स्थिति हो तो भी उन्हें काव्य निर्माण का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है । पर्ण अभ्यस्त, पूर्ण परिपक्व महाकवि की श्रेष्ठता स्वीकार करने पर भी प्रारम्भिक अभ्यासी कवि की स्थिति सभी विद्वानों को स्वीकार है। अभ्यास सभी आचार्यो-भामह दण्डी वामन, रूद्रट, मम्मट आदि की
दृष्टि में काव्य निर्माण का अनिवार्य हेतु है। अभ्यासी कवियों की स्थिति को तथा चित्र काव्य के अभ्यास
द्वारा क्रमश. काव्य निर्माण की परिपक्वता प्राप्ति को आचार्य आनन्दवर्धन ने भी स्वीकार किया है।। अभ्यास की अनिवार्यता स्वीकृत हो जाने पर अभ्यास किस प्रकार किए जाएँ यह समस्या सामने आती है। इस समस्या के समाधान रूप में ही हरण विवेचन की महत्ता है। प्रारम्भ में दूसरों की काव्यरचनाओं को आधार बनाकर, दूसरों के शब्दों, अर्थो को लेकर काव्यनिर्माण का अभ्यास करना प्रारम्भिक कवि की अनिवार्य आवश्यकता है, और हरण का विषय भी यही है।
सामान्य क्षेत्र में हरण अनुचित है, किन्तु काव्य के क्षेत्र में उसका औचित्य है,क्योंकि यहाँ हरण काव्य हेतु अभ्यास का आधार तथा साधन है। इस कारण प्रारम्भिक कवियों की शिक्षा की दृष्टि से कवि शिक्षा विषयक ग्रन्थों में हरण विवेचन का महत्त्व है। पूर्व कवियों के किस प्रकार के शब्दों, अर्थों को किस प्रकार से ग्रहण करना उचित है तथा किस प्रकार से उनके ग्रहण का अनौचित्य हो जाता है प्रारम्भिक कवियों को यही शिक्षा देना राजशेखर के शब्द तथा अर्थहरण विवेचन का उद्देश्य है।
हरण की उसके औचित्य, अनौचित्य सहित शिक्षा देने वाले सर्वप्रथम आचार्य राजशेखर ही हैं
तथा दूसरों के द्वारा प्रयुक्त शब्दों, अर्थों के अपने काव्य में प्रयोग की क्रिया को 'हरण' नाम देने वाले एकमात्र आचार्य भी यही हैं ? राजशेखर के अतिरिक्त किसी आचार्य ने इस क्रिया को हरण नाम नहीं
1. 'प्राथमिकानामभ्यासार्थिनां यदि परं चित्रेण व्यवहारः परिणतीनान्तु ध्वनिरेव काव्यमिति......'
(ध्वन्यालोक-तृतीय उद्योत) 2. 'परप्रयुक्तयोः शब्दार्थयोरूपनिबन्धो हरणम्'
काव्यमीमांसा - (एकादश अध्याय)