Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
View full book text
________________
[263]
गोष्ठियों में विहार करने योग्य बन ही जाते थे। इस प्रकार काव्यगोष्ठीविवेचन से साहित्यक्षेत्र राजशेखर से पूर्व भी परिचित था, किन्तु उनकी 'काव्यमीमांसा' में तो विदग्धगोष्ठियों का संदर्भ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। आचार्य राजशेखर कवि के लिए विदग्धगोष्ठी की अनिवार्यता स्वीकार करते थे, क्योंकि विदग्धगोष्ठियों में विभिन्न प्रकार के काव्यों के श्रवण, पठन द्वारा ही कवियों के काव्य का समाज में प्रचार होता था । इसी कारण कवि की परिचेय वस्तुओं देशों के व्यवहार, विद्वानों की सूक्तियों, सांसारिक व्यवहार तथा प्राचीन कवियों के निबन्ध के अतिरिक्त आचार्य राजशेखर ने सज्जनों के आश्रित कवियों के सत्सङ्ग का तथा विदग्धगोष्ठी का काव्य की माताओं के रूप में उल्लेख किया है 2
काव्य के प्रचारक साधन रूप में प्रचलित विदग्धगोष्ठियों में कवि तथा भावक दोनों ही उपस्थित होते थे। भावक काव्यालोचन करके किसी श्रेष्ठ काव्य को सुयश प्रदान करते थे तो कोई सदोषकाव्य उनके भावन तथा आलोचन द्वारा अपयश का भाजन बनता था। आचार्य राजशेखर के युग में काव्यसिद्धान्त के विषय काव्यगोष्ठियों की चर्चा के विषय बनते थे । इन चर्चाओं से समय समय पर काव्यशास्त्र के अनेक नवीन सिद्धान्तों का उद्गम होता था । कवि और भावक इन नवीन मान्यताओं का प्रयोग तथा परीक्षण करते हुये इन गोष्ठियों में ही उन्हें स्थिरता प्रदान करते थे ।
आचार्य राजशेखर की काव्यमीमांसा से प्रतीत होता है। कि तत्कालीन समाज में साधारण स्तर की काव्यगोष्ठियाँ भी प्रचलित थीं और उच्च स्तर की भी । कवि की दिनचर्या में काव्यगोष्ठियों में प्रवृत्ति का विशेष स्थान था। कवि के लिए प्रतिदिन गोष्ठियों में काव्यचर्चा करना तथा उसके विविध अङ्गों पर अभ्यास करते हुए अपनी रचनाओं के स्तर में सुधार करना अनिवार्य था। यह साधारण स्तर की काव्यगोष्ठियाँ थीं, जिनमें कवि की मित्रमण्डली के लोग सम्मिलित होते थे । प्रायः यह गोष्ठियाँ कवि के आवास पर ही नित्य एक निश्चित समय पर प्रायः दिन में भोजनोपरान्त आयोजित होती थीं।
,
1. तदस्ततन्द्रैरनिशं सरस्वती श्रमादुपास्या खलु कीर्तिमीप्सुभिः । कृशे कवित्वेऽपि जनाः कृतश्रमाः विदग्धगोष्ठीषु विहर्तुमीशते । (105) प्रथम परिच्छेद काव्यादर्श (दण्डी)
2 सुजनोपजीव्यकविसन्निधिः देशवार्ता, विदग्धवादो, लोकयात्रा, विद्वद्गोष्ठयश्च काव्यमातरः पुरातनकविनिबन्धाश्च ।
(काव्यमीमांसा दशम अध्याय)