Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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काव्यगोष्ठियों में उपस्थित होकर विशेष रूप से लाभान्वित होते थे। इन गोष्ठियों में प्रारम्भिक कवि
महाकवियों के काव्यों के श्रवण का तथा उनसे शिक्षा ग्रहण करने का अवसर भी प्राप्त करते थे। सज्जनों
अथवा राजाओं के आश्रित श्रेष्ठ कवियों के सत्सङ्ग को कवि के लिए अनिवार्य कहने वाले आचार्य राजशेखर स्वीकार करते थे कि काव्यसम्बन्धी दुर्लभ ज्ञान तथा काव्यनिर्माण सम्बन्धी अभ्यासप्राप्ति महाकवियों के संसर्ग से ही संभव है। काव्याभ्यास करते समय नवीन कवि के काव्य में दोषों की संभावना भी रहती है। किन्तु क्रमश: यह दोष महाकवियों के संसर्ग में अभ्यास करते हुए दूर हो जाते हैं। 'काव्यमीमांसा' में कवि की दिनचर्या में काव्यगोष्ठी में प्रवृत्ति तथा काव्याभ्यास को विशेष महत्व देते हुये आचार्य राजशेखर ने प्रारम्भिक कवियों का महान् उपकार किया है तथा उन्हें गोष्ठियों के अभ्यास के प्रारम्भिक सोपान से श्रेष्ठता के लक्ष्य तक पहुँचाने में कविशिक्षक का महत्वपूर्ण दायित्व निभाया है। आधुनिक युग में भी काव्यप्रचार के विभिन्न साधन होने पर भी कवियों के लिए कविसम्मेलनों तथा काव्यगोष्ठियों का महत्व कम नहीं हुआ है।
राजचर्या :
स्वतन्त्र रूप से आयोजित काव्यगोष्ठियों और कविसम्मेलनों के उल्लेख के अतिरिक्त
'काव्यमीमांसा' में 'राजचर्या' तथा राजाओं द्वारा काव्यसभाओं के आयोजनों के विस्तृत उल्लेख मिलते हैं । तत्कालीन युग में राजा काव्यप्रेमी तथा कलाप्रेमी अवश्य थे, क्योंकि राजदरबारों में कवियों का विशेष सम्मान था। राजा का प्रभाव प्रजा तथा समाज पर भी था, जनता भी कवियों के प्रति आदर भाव
रखती थी। राजशेखर के युग में कवि की श्रेष्ठता की सिद्धि सम्भवतः राज्यसभा में कवि की उपस्थिति
से होती थी। कवि और राजा परस्पर सापेक्ष थे। कवि राजा का कीर्तिगान करते थे. राजा कवि तथा
उसके काव्य को सम्मानित करते थे। अधिकांश राजा उत्कृष्ठ कवियों तथा विद्वानों के संरक्षक रूप में गर्व
का अनुभव करते थे। राजा का आश्रय कवि को सभी सुविधाएँ प्रदान करने में सहायक था। राज्याश्रित
कवि चिन्तामुक्त होकर उत्कृष्ट साहित्यिक वातावरण में उत्कृष्ट काव्य रचना भी करते थे। आचार्य