Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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ऋतु की अवस्थाएँ :
आचार्य राजशेखर ने ऋतुओं से सम्बद्ध मौलिक विषय के रूप में प्रत्येक ऋतु की चार अवस्थाओं का वर्णन किया है-(क) ऋतु सन्धि, (ख) ऋतु शैशव, (ग) ऋतु प्रौढि, (घ) ऋतु अनुवृत्ति।
काल की गति को समझ पाना असंभव सा है। यद्यपि संवत्सर का विभाजन छह ऋतुओं के रूप में होता है, किन्तु समीप उपस्थित दो ऋतुओं का काल स्पष्टतः विभाजित नहीं किया जा सकता। अतः बीती हुई ऋतु तथा आने वाली ऋतु के मध्यकाल का काव्यमीमांसा में ऋतु सन्धि के रूप में उल्लेख है। इस सन्धि काल के पश्चात् ऋतु अपनी शैशवावस्था में उपस्थित होती है, जब उस ऋतु की विशेषताएँ लोगों को दृष्टिगत तो होने लगती हैं, किन्तु उनकी पूर्ण परिपक्वता की स्थिति नहीं होती। ऋतु की यह अवस्था 'ऋतु शैशव' कहलाती है। जब ऋतु के सभी चिह्न स्पष्टतः पूर्ण मनोहारी रूप में दिखते हैं तब ऋतु की प्रौढ़ता की अवस्था को आचार्य राजशेखर ने 'ऋतु प्रौढ़ि' नाम दिया है। ऋतु अनुवृत्ति की अवस्था तब उपस्थित होती है जब विगत ऋतु के चिह्न स्वरूप कुसुम आदि वर्तमान ऋतु में दिखाई देते हैं। ऋतुओं की अवस्थाओं के ऋतु अनुवृत्ति स्वरूप को काव्य संसार से जानना चाहिए। यह ऋतु अनुवृत्ति स्पष्टत: हेमन्त और शिशिर ऋतु में परिलक्षित होती है क्योंकि हेमन्त और शिशिर वस्तुतः एक ही हैं। हेमन्त की सभी विषयवस्तु शिशिर ऋतु में भी वर्णित की जा सकती है।
आचार्य राजशेखर प्रत्येक ऋतु के वर्ण्य विषयों का तथा आने वाली ऋतु में उनके विषयों की अनुवृत्ति का विस्तृत उल्लेख करने के पश्चात् भी कवि की प्रतिभा के महत्व को पूर्णतः स्वीकार करते हैं। प्रत्येक ऋतु की पूर्णतः विवेचना संभव भी नहीं है। देश भेद से पदार्थों में अन्तर अवश्यम्भावी है यथा शीत प्रधान देश तथा ग्रीष्म प्रधान देश और ऊँची-नीची भूमि में ऋतुओं का विकास भिन्न प्रकार का
1. चतुरवस्थश्च ऋतुरुपनिबन्धनीयः। तद्यथा - सन्धिः, शैशवं, प्रौढिः, अनुवृत्तिश्च। ऋतुद्वयमध्यं सन्धिः।-----
अतिक्रान्त लिङ्गं यत्कुसुमाद्यनुवर्तते । लिङ्गानुवृत्तिं तामाहुः सा ज्ञेया काव्यलोकतः॥ ------- हेमन्तशिशिरयोरैक्ये सर्वलिङ्गानुवृत्तिरेव। उक्तञ्च। 'द्वादशमासः संवत्सर, पञ्चतवो हेमन्तशिशिरयोः समासेन'। ---. ऋतुभववृत्त्यनुवृत्ती दिङ्मात्रेणाऽत्र चिते सन्तः। शेष स्वधिया पश्यत नामग्राहं कियद् ब्रमः॥
(काव्यमीमांसा - अष्टादश अध्याय)