Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University

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Page 332
________________ [325] कवि की दृष्टि से भी परमानन्द तथा यश ही आचार्य राजशेखर द्वारा स्वीकार किया गया है। वे स्वयं कविरूप में कीर्तिकौमुदी से आलोकित, अत: आनन्दित थे। इसी कारण बालरामायण में उन्होंने कहा-फुल्ला कीर्तिर्भमति सुकवेर्दिक्षु यायावरस्य-प्र०अं०, श्लोक-6। आचार्य राजशेखर के कविगण काव्यमय शरीर से मर्त्यलोक में तथा दिव्यशरीर से स्वर्गलोक में प्रलय पर्यन्त निवास करते हुए परमानन्द को प्राप्त करते हैं-काव्यमयेन शरीरेण मर्त्यमधिवसन्तो दिव्येन देहेन कवय आकल्पं मोदन्ते (काव्यमीमांसा-तृतीय अध्याय) जब तक कवि के काव्य की भावकों द्वारा प्रसारित की गई यशचन्द्र की ज्योत्सना से दशों दिशाएँ प्रकाशमय न हों, तब तक कवि के काव्यनिर्माण की सार्थकता नहीं होती-काव्येन किं कवेस्तस्य तन्मनोमात्रवृत्तिना। नीयन्ते भावकैर्यस्य न निबन्धा दिशो दश। का०मी०, तृ० अ० । सरस्वती की कृपा से प्राप्त काव्य का निर्माता कवि महान् है तो उसका रसानुभव करते हुए परमानन्दित होकर काव्य की महिमा के प्रचारक सहृदय भावक भी तो कुछ कम नहीं है। इसी कारण आचार्य राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' में कवि तथा भावक को सम्मान की पराकाष्ठा 'काव्यमीमांसा' ने कवि को काव्यनिर्माण के लिए अनुपम निर्देश दिए तो भावकों के लिए भी समस्त व्यक्तिगत दोषों से दूर रहकर केवल काव्य के रसानुभव से अपने हृदय को एकाकार करने के अतननीय परामर्श प्रस्तुत किए। अतः आचार्य राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' कवि तथा भावक दोनों के लिए प्रस्तुत अतुलनीय, विलक्षण ग्रन्थ है। अपनी इस अनुपम कृति के निर्देश रूपी असंख्य प्रसूनों तथा उनके परागकणों से काव्यशास्त्रीय जगत् रूपी वाटिका के सुन्दर, सुरभित स्वरूप को हमारे दृष्टिपटल पर अङ्कित करने वाले आचार्य राजशेखर को सादर शतशः नमन।

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