Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
View full book text
________________
[261]
शब्दों में अभिव्यक्त करते हुए समाज के सम्मुख सत्कवि के काव्य की श्रेष्ठ समालोचना प्रस्तुत करते हुए कवि तथा काव्यजगत् का महान् उपकार करते हैं।
पण्डितराज जगन्नाथ के 'रसगङ्गाधर' की भूमिका में इन श्रेष्ठ समालोचकों का ही औचित्य बताया गया है। आलोचना नवनवोन्मेप जननी है किन्तु इसके लिए विज्ञ आलोचक ही होना चाहिए।
रचना में केवल दोष देखने वाले आलोचक की तुलना व्रणमात्रगवेषिका मक्षिका से की गई है।1
आचार्य विश्वेश्वर को साहित्यमीमांसा में सत्व, रज तथा तम इन तीन गुणों से युक्त उत्तम,
मध्यम तथा अधम तीन प्रकार के रसिक वर्णित हैं 2
1 आलोचकान् प्रति-नवप्रकाशितस्य मौलिकग्रन्थस्य व्याख्याग्रन्थस्य वा समालोचनम् कर्तव्यमेव विज्ञैरालोचकैः यत्
आलोचनैव नवनवरहस्योन्मेषजननी। परन्तु समालोचकैर्दोषैकदृग्भिनभाव्यम्। गुणानपश्यन्तः पश्यन्तोऽपि गवेषिकाभिर्मक्षिकाभिरेवोपमीयन्ते। अतो गुणदोषप्रकट नपरैः पक्षपातरहितै: स्वयं कृतकृतिभिः राजशेखराभिनन्दितकोटिकैस्तत्त्वाभिनिवेशिभिरालोचकैर्भवितव्यम्।
('रसगङ्गाधर' की भूमिका से उद्धृत) उत्तमाधममध्यत्वात् त्रिविधो रसिकः स्मृतः।
साहित्यमीमांसा (विश्वेश्वर) (प्रथम प्रकरण) अत्र सत्वं रजस्तम इति गुणाः। तद्योगात् सात्विको राजसस्तामस इति त्रिविधी रसिकः। यथाक्रमगत्तमो मध्यमोऽधमश्च।
(अष्टम प्रकरण) साहित्यमामाया (१५-१श्वर)