Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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दिया है. बल्कि सभी पश्चादवर्ती आचार्यों की दष्टि में यह उपजीवन की क्रिया है।1 'हरण' क्रिया
चोरी अर्थ के कारण अपने सामान्य रूप में सर्वथा गर्हित है। राजशेखर के पश्चाद्वर्ती आचार्य पूर्व कवि के शब्दों, अर्थों की पश्चाद्वर्ती कवि के काव्य में स्थिति को स्वीकार करते हए भी उसे हरण नाम
सम्भवतः हरण क्रिया की निन्दनीयता के कारण ही नहीं दे सके। उपजीवन (किसी अन्य को आधार बनाकर काव्य निर्माण करना) यह नाम राजशेखर द्वारा दिए गए हरण नाम से कहीं अच्छा है। किन्तु 'हरण' एवं उपजीवन में नाम की भिन्नता होने पर भी दोनों नामों में निहित क्रिया एक ही है, दूसरों से प्रभाव ग्रहण करते हुए काव्य रचना करने की। आचार्य राजशेखर द्वारा विवेचित हरण एवं पश्चाद्वर्ती
आचार्यों द्वारा विवेचित उपजीवन दोनों एक ही विषय के पर्याय है यह उनके द्वारा विवेचित हरण तथा
उपजीवन के अवान्तर प्रकारों से स्पष्ट है।
___ राजशेखर से पूर्ववर्ती आचार्य कवि के लिए पूर्व कवियों के प्रबन्धानुशीलन को तो आवश्यक मानते हैं, किन्तु उनके प्रबन्धों में से कुछ हरण करना उनकी दृष्टि में सम्भवतः सर्वथा अनुचित है और इसी कारण उनके लिए ऐसे विषय के उपदेश का भी अनौचित्य रहा होगा। किन्तु कवि शिक्षक आचार्य राजशेखर की दृष्टि में इस विषय का अनौचित्य नहीं है और इसी दृष्टि से उन्होंने इस विषय का व्यापक उपदेश किया। साथ की कवि शिक्षा के सर्वप्रथम सुनियोजित विवेचक आचार्य राजशेखर ही हैं इस कारण भी पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों में इस विषय की विवेचना न होने की बात समझ में आती है। कवि का कहीं न कहीं किसी अन्य से प्रभावित होना स्वाभाविक है और प्रारम्भिक कवि के लिए तो यह
स्वाभाविकता अनिवार्य विवशता तथा आवश्यकता बन जाती है। अत: कवि शिक्षक होने के कारण
आचार्य राजशेखर के लिए किसी अन्य से कवि के प्रभावित होने की पूर्ण विवेचना भी अनिवार्य थी।
आचार्य राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' के शास्त्र संग्रह नामक प्रथम अध्याय में अपने ग्रन्थ के विषयों का निर्देश करते हुए 'शब्दार्थहरणोपायाः' कहा है। यहाँ 'उपाय' शब्द का कथन ही हरण के औचित्य की स्वीकृति का परिचायक है। उपाय सामान्यतः उचित सुसङ्गत विषय के ही बताए जा सकते
1. सतोऽप्यनिबन्धोऽसतोऽपि निबन्धो नियमछायाधुपजीवनादयश्च शिक्षाः। 101 छायायाः प्रतिबिम्बकल्पनया, आलेख्यप्रख्यतया, तुल्यदेहितुल्यतया, परपुरप्रवेशप्रतिमतया चोपजीवनम्।
[काव्यानुशासन ( हेमचन्द्र) प्रथम अध्याय]