Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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रूप उपस्थित होता है। पूर्व अर्थ का भी मौलिक रूप में अपूर्व शैली से वर्णन कर सकना आचार्य कुन्तक स्वीकार करते हैं।। जो पदार्थ पहले प्रतीत हो चुके हैं उनके प्रतिनिधि रूप दूसरे पदार्थ की प्राप्ति न हो सकना भी सम्भव हो सकता है। ऐसी स्थिति में कवि अत्यधिक सुकुमार अनिर्वचनीय अपूर्व शैली से सम्भवत: उसी पदार्थ का वर्णन करके काव्यरचना करते हैं।
करतही
प्रत्येक कवि के काव्य में उसकी अपनी विशिष्ट प्रतिभा से उत्पन्न वैचित्र्य होता है। अतः अर्थ
के एक या एक समान होने पर भी उक्तिवैचित्र्य सभी अर्थों को नवीन बना देता है। किसी भी अर्थ के
वर्णन में कवि की अपनी प्रतिभा का प्रभाव अवश्य होता है तथा प्रतिभा की विशेषता है नवनवोन्मेष-इसलिए नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के प्रभाव से रचे गए काव्य में वैचित्र्य तथा नवीनता अवश्य होते हैं। पूर्वजन्म के संस्कार से प्राप्त प्रतिभा के कारण कवि के मानस में अर्थ की उद्भावना स्वयं ही होती है, विशेष प्रयत्न पूर्वक उसका उल्लास नहीं होता।
आचार्य अभिनवगुप्त की धारणा है कि प्रतिभा के प्रभाव से विचित्र तथा अपूर्व अर्थ का निर्माण
कर सकने वाला कवि ही प्रजापति के समान सष्टि करने के महत्व को प्राप्त करता है।
महाकवि कभी भी दूसरों से शब्द, अर्थ लेने का प्रयास नहीं करते, उनके मानस में नवीन तथा
अभिवाञ्छित अर्थ सरस्वती द्वारा स्वयं उबुद्ध होते रहते हैं। वाक्पतिराज आदि आचार्यों के अनुसार
सरस्वती का भण्डार कभी खाली नहीं होता। नवीन विषयों का परिस्फरण कवियों के मानस में सदा ही
होता रहता है, कवि मानस का यही वैशिष्टय है। यदि मानस में नवीन विषयों का परिस्फुरण होता है
तो कवि उन्हें अपने मौलिक ढंग से काव्य में आबद्ध करने में भी समर्थ होता है। जहाँ तक अर्थ मौलिकता का प्रश्न है कवि का ज्ञानमय चक्षु कौन से अर्थ मौलिक है और कौन से प्राचीन इसका निर्णय करने में स्वयं ही समर्थ होते हैं। दूसरों के द्वारा निबद्ध किए अर्थों में महाकवि अन्धे के समान होते हैं
तथा नवीन विषयों की प्राप्ति उन्हें दिव्य दृष्टि से हो जाती है। कवियों के मानस में सारा विश्व ही
1 यदप्यनूतनोल्लेखं वस्तु यत्र तदप्यलम् उक्तिवैचित्र्यमात्रेण काष्ठां कापि नीयते । 38 । प्रथम उन्मेष
वक्रोक्तिजीवित - (कुन्तक)