Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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की अपनी मौलिक उद्भावनाएँ हैं । नामों के समान होने पर भी जहाँ आनन्दवर्धन ने कवियों के बुद्धि सादृश्य को कारण माना था वहाँ आचार्य राजशेखर अभ्यासी कवियों के लिए अर्थग्रहण को ही महत्व देते हैं। इस प्रकार एक ही वर्णित विषय का संदर्भ दोनों स्थानों पर पृथक् होने के कारण आनन्दवर्धन के विवेचन में यह भेद उपस्थित रहने पर भी राजशेखर द्वारा उनके स्वयं उद्भावित रूप में वर्णन की भी
समीचीनता है।
अभ्यास की अवस्था में भी दूसरों के अर्थों को उसी रूप में स्वीकार करना राजशेखर को मान्य नहीं हैं। इसी कारण कवियों को उस विषय की उन्होंने पूर्ण शिक्षा दी है कि किस-किस प्रकार से हरण किया जाए कि उनमें कुछ संस्कार तथा नवीनता हो और पूर्व शब्दों, अर्थों के आधार पर रचित काव्य भी कवियों को परिपक्वता की ओर ले जाए। यहाँ राजशेखर आचार्य आनन्दवर्धन से समानता रखते हैं क्योंकि प्रतिबिम्ब के समान समता को दोनों ही हेय बतलाते हैं-आचार्य आनन्दवर्धन तथा आचार्य राजशेखर का विचार आलेख्यप्रख्य अथवा चित्रवत् अर्थसाम्य के सम्बन्ध में भिन्न हो गया है। जहाँ चित्रवत् भेद आनन्दवर्धन की दृष्टि में त्याज्य है वहाँ आचार्य राजशेखर उसे भी स्वीकार्य बतलाते हैं। इस भिन्नता के मूल में दोनों आचार्यों की क्षेत्र भिन्नता निहित है। अभ्यास करने वाला कवि धीरे-धीरे ही ऊपर उठता है, इस कारण वह दूसरों के वही अर्थ केवल कुछ संस्कार के साथ भी ग्रहण कर सकता है । अभ्यासी कवि के लिए तो बिल्कुल उसी रूप में ग्रहण करने की अपेक्षा कुछ संस्कृत रूप में ग्रहण करना कहीं अच्छा है। इसलिए जहाँ तक अभ्यासी कवि का प्रश्न है उसके लिए आलेख्य प्रख्य अथवा चित्र रूप में दूसरों का अर्थग्रहण करना उचित है, इससे उसे अभ्यास परिपक्वता तथा काव्यरचना में व्युत्पत्ति की प्राप्ति हो सकती है किन्तु जहाँ महाकवियों तथा अभ्यस्त कवियों का प्रश्न है, वे यदि ऐसी काव्य रचना करें जो कि किसी पूर्व अर्थ से केवल कुछ संस्कार के कारण ही भिन्न हो तो यह उनके महाकवित्व की निन्दनीयता होगी। यही कारण है कि अभ्यासी कवियों से सम्बन्ध होने के कारण आचार्य राजशेखर ने चित्र नामक भेद को भी स्वीकार्य बतलाया है किन्तु महाकवियों से, अभ्यस्त कवियों से सम्बन्ध होने के कारण आचार्य आनन्दवर्धन ने उसे हेय बतलाया है।
तुल्यदेहितुल्य अर्थ को दोनों ही आचार्यों ने समान रूप में ही स्वीकार्य बतलाया है। महाकवियों से सम्बन्ध के कारण आचार्य आनन्दवर्धन की दृष्टि में यह भेद स्वीकार्य है क्योंकि दो कवि