Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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आनन्दवर्धन का अर्थसाम्य अर्थहरण विवेचन का आधार?
आचार्य आनन्दवर्धन का विचार है कि कवियों का बुद्धिसादृश्य उनके काव्यों में पाए जाने वाले भाव साम्य का कारण है। कवियों के काव्यों में पाई जाने वाली यह अर्थसमानता तीन प्रकार की हो सकती। पूर्ववर्णित अर्थ के प्रतिबिम्ब के समान, चित्र के समान तथा शरीर के समान ।।
जिस प्रकार किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब बिल्कुल वस्तु जैसा ही होता है उससे भिन्न नहीं, उसी प्रकार किसी पूर्व अर्थ का प्रतिबिम्ब जैसा अर्थात् बिल्कुल उसी रूप वाला अर्थ भी-यह वही पूर्ववणित अर्थ है, इस रूप में स्वीकृत हो तो कोई आश्चर्य नहीं है। इस कारण यद्यपि कवि ने अपनी बुद्धि से किसी अर्थ का वर्णन किया हो, फिर भी किसी पूर्व अर्थ से उसके प्रतिबिम्ब रूप वाली समानता उसे हेय बना देती है, क्योंकि किसी पूर्ववर्णित अर्थ का प्रतिबिम्ब जैसा अर्थ उसी पूर्व अर्थ के रूप में स्वीकार किया जाएगा, नवीन रूप में नहीं।
किसी वस्तु का चित्र उसकी अपेक्षा कुछ संस्कृत रूप में सामने आता है उसी प्रकार किसी पूर्व अर्थ से केवल कुछ संस्कार के कारण भिन्न कोई अर्थ यह उसी पूर्ववर्णित अर्थ का चित्र है' इस रूप में ही स्वीकृत होगा। चित्र भी वस्तु से केवल कुछ ही भिन्न होता है, इसलिए यह वही नहीं है ऐसा कह सकता सम्भव न होने के कारण इस प्रकार के साम्य का भी कवि वर्णित अर्थ में आ जाना उचित नहीं है।
कभी कभी एक दूसरे से मिलते जुलते दो व्यक्ति हो सकते हैं। किन्तु वे एक ही व्यक्ति हैं यह नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार एक दूसरे से मिलते जुलते दो अर्थ हों तो वे एक ही हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता और इस कारण यह देहतुल्य साम्य त्याज्य भी नहीं है।
1 'सम्वादास्तु भवन्त्येव बाहुल्येन सुमेधसाम्
स्थितं ह्येतत् संवादिन्य एव मेधाविनां बुद्धयः' 'सम्वादो ह्यन्यसादृश्यं तत्पुनः प्रतिबिम्बिवत् आलेख्याकारवत्तुल्यदेहिवच्च शरीरिणाम् । 12।
(ध्वन्यालोक - चतुर्थ उद्योत) 2. तत्रपूर्वमनन्यात्म तुच्छात्म तदनन्तरम् तृतीयं तु प्रसिद्धात्म नान्यसाम्यं त्यजेत्कविः। 13 ।
(ध्वन्यालोक - चतुर्थ उद्योत) तत्र पूर्व प्रतिबिम्बकल्पं काव्यवस्तु परिहर्तव्यम् सुमतिना यतस्तदनन्यात्मतात्विकशरीरशून्यम्। तदनन्तरमालेख्यप्रख्यमन्यसाम्यं शरीरान्तर युक्तमपि तुच्छात्मत्वेन परित्यक्तव्यम्। तृतीयन्तु विभिन्नकमनीयशरीरसद्भावे सति ससम्बादमपि काव्यवस्तु न त्यक्तव्यम् कविना। (ध्वन्यालोक - चतुर्थ उद्योत)