Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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हरण के औचित्य के सम्बन्ध में राजशेखर का अवन्ति सुन्दरी के मत से विरोध :
___ अवन्तिसुन्दरी के मत से हरण की निर्दोषता कुछ विलक्षण ही कारणों से है। पूर्व कवि की अप्रसिद्धि, प्रतिष्ठाराहित्य, उसके काव्य का प्रचलित न होना, काव्यरचना की कटुता, असम्मानित भाषा का कवित्व आदि कुछ ऐसे तत्व हैं जिनके कारण यदि पूर्व कवि के काव्य को पश्चाद्वर्ती कवि अपनाएं तो दोष नहीं होगा। इस प्रकार किसी पूर्व कवि के काव्य को ज्यों का त्यों अपनाकर स्वरचित काव्य के रूप में उसका प्रचार भी कवि के लिए दोष नहीं है सम्भवतः यही अवन्तिसुन्दरी का विचार है, किन्तु हरण के औचित्य को स्वीकार करने पर भी उसकी अवन्तिसुन्दरी द्वारा मान्य निर्दोषता आचार्य राजशेखर को स्वीकार नहीं है। हरण या उपजीवन अभ्यास के साधन हैं चोरी नहीं, किन्तु किसी कवि की अप्रसिद्धि आदि कारणों से उसके काव्य को ज्यों का त्यों अपनाना चोरी और इसी कारण दोष भी है। इसी प्रकार मूल्य देकर किसी की रचना को खरीदना और स्वरचित रूप में उसका प्रचार भी दोषपूर्ण है।
दूसरों के शब्दों, अर्थों को केवल अभ्यास के ही लिए परिपूर्ण रूप में नहीं, किन्तु केवल अंश रूप में अपनी प्रतिभा द्वारा संस्कृत करते हुए ग्रहण करने का औचित्य है। दूसरों के शब्दों आदि को लेकर पूर्व कवि के नाम आदि का निगूहन बाणभट्ट की दृष्टि में हेय है।3 अबचिन्तसुन्दरी के विचार का विरोध करके राजशेखर बाणभट्ट से विचार साम्य रखते प्रतीत होते हैं। कवि के यत्र तत्र चौरकर्म को राजशेखर स्वीकार करते हैं किन्तु जैसी चोरी बाणभट्ट आदि को अस्वीकार है उसके प्रति उनकी भी अस्वीकृति है। यदि किसी की पूर्ण रचना का हरण दोष है तो उसी प्रकार किसी रचना की उक्तियों को अंश रूप में अपनाना भी अनुचित ही होगा, इस समस्या के समाधान में राजशेखर का उक्तियों के अर्थान्तर-संक्रमण का विचार सामने आता है। कवि के चौरकर्म को स्वीकार करते हुए भी वह उसके
1. "अयमप्रसिद्धः प्रसिद्धिमानहम्, अयमप्रतिष्ठ : प्रतिष्ठावानहम्, अप्रक्रान्तमिदमस्य संविधानकं प्रक्रान्तं मम,
गुडूचीवचनोऽयं मृद्वीकावचनोऽहम्, अनादृभाषाविशेषोऽयमहमादृतभाषाविशेष:----------इत्यादिभिः कारणैः शब्दहरणेऽर्थहरणे चाभिरमेत" इति अवन्तिसुन्दरी
काव्यमीमांसा - (एकादश अध्याय) 2 'न' इति यायावरीयः। उल्लेखवान्पदसन्दर्भः परिहरणीयो नाप्रत्यभिज्ञायातः पादोऽपि। तस्यापि साम्ये न किञ्चन दुष्टं स्यात्।
काव्यमीमांसा - (एकादश अध्याय) 3. अन्यवर्णपरावृत्या बन्धचिह्ननिगृहनै: अनाख्यातः सतां मध्ये कविश्चौरो विभाव्यते । 7।
हर्षचरित (बाणभट्ट) प्रथम उच्छ्वास