Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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आचार्य क्षेमेन्द्र की दृष्टि में उपजीवन का महत्व काव्य रचना के अभ्यास की दृष्टि से है और उपजीवन का सम्बन्ध केवल अभ्यासी कवि से। शिक्षार्थी कवि सर्वप्रथम छायोपजीवन द्वारा काव्यरचना का अभ्यास करता है। छायोपजीवन का अर्थ है दूसरे प्रसिद्ध कवियों के पद्यों के पद, पाद अथवा समस्त पद्य के अनुकरण में अपना पद्य बनाना। दूसरों की अपूर्ण रचनाओं को पूर्ण करते हुए, दूसरे के अभिप्राय को प्रकारान्तर से अपनी भाषा में व्यक्त करते हुए प्रारम्भिक कवि काव्यनिर्माण के अभ्यास में परिपक्वता
प्राप्त कर सकते हैं।
आचार्य वाग्भट्ट को केवल शब्दोपजीवन ही स्वीकार है। समस्यापूर्ति द्वारा काव्यनिर्माण के अभ्यास का औचित्य है-किन्तु अर्थोपजीवन उनकी दृष्टि में कवि के स्तैन्य का सूचक है। पण्डितराज जगन्नाथ किसी अर्थ की पूर्ववर्णितता अथवा अवर्णित पूर्वता के विभाजन को कवि का समाधिगुण मानते हैं ।2 आचार्य विश्वेश्वर की 'सहित्यमीमांसा' में हरण सम्भवतः उक्ति का भेद है-क्योंकि इस ग्रन्थ में वर्णित कवि की बीस वक्र उक्तियों में से दो छायोक्ति (अन्य उक्तियों की अनुकृति) तथा घटितोक्ति (विप्रकीर्ण अनेक उक्तियों का कवि नैपुण्य से एक स्थान पर संगठन) का सम्बन्ध हरण से ही प्रतीत होता है। कविशिक्षा नामक ग्रन्थ के रचयिता आचार्य विनय चन्द ने भी कवि के अभ्यास हेतु महाकवियों के काव्यार्थों का चर्वण तथा परसूक्तग्रहण महत्वपूर्ण माना है। अभ्यासी कवि का
छायोपजीवी, पादोपजीवी तथा पदोपजीवी होना स्वीकार किया है।
परकाव्यग्रहोऽपि स्यात्समस्यायाम् गुणः कवे: अर्थं तदर्थानुगतं नवं हि रचयत्यसौ । 13। परार्थबन्धाद्यश्च स्यादभ्यासो वाच्यसङ्गतौ स न श्रेयान्यतोऽनेन कविर्भवति तस्करः । 12।
(वाग्भटालङ्कार - वाग्भट - प्रथम परिच्छेद) 2 अवर्णितपूर्वोऽयमर्थः पूर्ववर्णितच्छायो वेति कवेरालोचनं समाधिः।।
अयं वर्ण्यमानोऽर्थः केनापि पूर्वं न वर्णित इत्यवर्णितपूर्वोऽयोनिरित्यन्यत्र प्रसिद्धः अथवा पूर्व केनापि वर्णितस्यैवार्थस्य छाया (सादृश्यम्) यस्मिंस्तादृशोऽन्यच्छायायोनिरिति प्रसिद्धोऽस्तीति कवेः कविकृतम् यदालोचनं विभावनं तत् समाधिः। तत्रावर्णितपूर्वत्वालोचनम् प्रथमः, पूर्ववर्णिवच्छायत्वालोचनन्तु द्वितीयः प्रकार: समाधेरिति सारम्।
(प्रथमानन) (पृष्ठ 227) (रसगङ्गाधर - पण्डितराज जगन्नाथ)