Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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कविसमयों का ज्ञान कवियों के लिए आवश्यक भी मानते हैं किन्तु उन्होंने कविसमयों के विवेचन में एक दो कविसमयों के अतिरिक्त भुवनों की संख्या, समुद्रों की संख्या तथा दिशाओं की संख्या का ही निर्देश किया है। राजशेखर ने इन विषयों का देश विवेचन में अन्तर्भाव किया है। वाग्भट ने राजशेखर द्वारा उल्लिखित कविसमयों का विवेचन अपने ग्रन्थ में नहीं किया है। वे देश आदि की संख्या को ही कविपरम्परा के रूप में स्वीकार करते रहे होंगे। वाग्भट के कविसमय सत् के अनिबन्धन, असत् के निबन्धन तथा नियम के अन्तर्गत एवम् अशास्त्रीयत्व, अलौकिकत्व के अन्तर्गत नहीं आते। अत: कविसमय की परिभाषा तथा भेदों के सन्दर्भ में विचार करने पर वाग्भट द्वारा विवेचित कविसमयों को पारिभाषिक 'कविसमय' के अन्तर्गत स्वीकार नहीं किया जा सकता।
आचार्य केशवमिश्र ने कविसमय का विस्तृत विवेचन किया है। वे भी लोक तथा कविप्रसिद्धि का विरोध उपस्थित होने पर कवि प्रसिद्धि का ही महत्व स्वीकार करते हैं। विभिन्न कविसमयों का उल्लेख करने के साथ उन्होंने भी कुछ अन्य विषयों को कविसमय के अन्तर्गत स्वीकार किया है जैसे भुवनों, दिशाओं एवं समुद्रों की संख्या, विभिन्न ऋतुओं के वर्ण्य विषय, वामन के समान पदप्रयोग के नियम। किन्तु ये विषय कविसमय से पृथक् विषय हैं, कविसमय में इनका अन्तर्भाव नहीं हो सकता।
कविसमय का विवेचन अग्निपुराण में भी मिलता है। अग्निपुराण में दो प्रकार के कविसमयों का उल्लेख है सामान्य कविसमय तथा विशेष कविसमय। कवियों के विवाद के परिणामस्वरुप जो प्रसिद्ध होते हैं, वे सामान्य कविसमय हैं, तथा जो कवियों के परस्पर व्यवहार से बनते हैं वे नियम विशिष्ट कविसमय हैं। कविसमय का इस प्रकार का भेद सर्वप्रथम अग्निपुराण में मिलता है, किन्तु काव्यशास्त्र के परिभाषिक 'कविसमय' के अन्तर्गत केवल विशिष्ट कविसमय ही आता है।
आचार्य देवेश्वर की 'कविकल्पलता'2 तथा आचार्य अमर सिंह की 'काव्यकल्पलताविवेक' में भी कविसमय विवेचन है, किन्तु इस विवेचन में मौलिकता का अभाव है। केवल विशिष्ट कविसमयों
1. यत्र लोकस्य कवेश्च प्रसिद्धयोर्विरोधस्तत्र कविप्रसिद्धिरेव बलीयसी।
(मरीचि - 6 पृष्ठ - 19)
अलङ्कारशेखर (केशव मिश्र) 2 असतोऽपि निबन्धेन निबन्धेन सतोऽपि वा नियमेन च जात्यादेः कवीनां समयस्त्रिधा । 441
(प्रथम स्तवके तृतीयं कुममम।
कविकल्पलता (देवेश्वर)