Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
View full book text
________________
[173]
कवि विभिन्न वस्तुओं का भी परस्पर ऐक्य स्वीकार करते हैं। कवि परस्पर भिन्न वर्णन करते हैं। एक कवि अपने वर्ण्य विषय के अनुरूप चन्द्रमा में शश का वर्णन करता है तथा दूसरा हरिण का। काव्यपरम्परा के अनुसार न तो शश का वर्णन दोष माना गया है, न हरिण का। अपने वर्ण्य विषय के
औचित्य के अनुसार कवि जैसा चाहे वर्णन कर सकते हैं। यदि इन विषयों का परस्पर ऐक्य स्वीकृत न होता तो काव्य में दोषों की संख्या में वृद्धि हो जाती। काव्यजगत् में वैषम्य हो जाता, एक प्रकार के कवि वर्णन के आधार पर दूसरे कवि का वर्णन दोष माना जाता। इन विषयों का ऐक्य स्वीकार करने से कवियों को अपनी आवश्यकता के अनुसार वर्णन की स्वतन्त्रता प्राप्त है।
इन विभिन्न ऐक्यों की स्वीकृति के अतिरिक्त कविजगत् में कवियों को कामदेव का स्वरूप मूर्त तथा अमूर्त दोनों रूपों में प्रस्तुत करने की स्वतन्त्रता है। वैविध्य युक्त काव्यरचना तथा वर्ण्य विषय का स्वातन्त्र्य प्राप्त करना ही इस प्रकार की मान्यताओं की स्वीकृति का लक्ष्य है।
शिव के मस्तक में स्थित चन्द्रमा का सदा बाल रूप ही काव्य में स्वीकार किया गया है। इसका
सम्भावित कारण यह माना जा सकता है कि चन्द्रमा की कलाएँ घटती बढ़ती रहती हैं, किन्तु शिव के
मस्तक में स्थित कला सदा खण्डरूप में ही रहती है, कभी वृद्धि को प्राप्ति नहीं करती और न कभी पूर्ण
चन्द्र ही बनती है। सम्भव है इसीलिए शिवचन्द्र का केवल बालरूप ही काव्य में स्वीकार किया गया।
वृक्षदोहद :
काव्यजगत् के उपरोक्त विशिष्ट वर्णनों के अतिरिक्त इस क्षेत्र का एक और वैशिष्ट्य है-वृक्षों में असमय सुन्दरियों के विभिन्न प्रयत्नों से पुष्पों के उद्गम का वर्णन।
सुन्दरियों के चरणाघात से अशोक का, वीक्षण से तिलक का, आलिङ्गन से कुरबक का, स्त्रियों के स्पर्श से प्रियङ्गु का, मुख से सेचन से बकुल का, नर्मवाक्य से मन्दार का, मृदुहास से चंपक का, मुख की वायु से सहकार (चूत) का, गीत से नमेरू का तथा सम्मुख नृत्य करने से कर्णिकार के विकास की