Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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कविसमयसिद्ध अर्थ का उससे अन्यथा रूप में वर्णन दोष माना गया है। यद्यपि इसके नाम भिन्न-भिन्न हैं असामयिकता दोष (अग्निपुराण), 1 प्रसिद्धिविरुद्धता दोष (मम्मट), प्रकृतिव्यत्यय दोप (वाग्भट) 2
विश्वनाथ प्रसिद्ध अर्थ के विषय में निर्हेतुता को दोष नहीं मानते। कविसमय के अनुसार वर्णन उनके अनुसार काव्य का ख्यातविरुद्धता गुण है अतः कविसमयसिद्ध अर्थ का उससे अन्यथा रूप में वर्णन किया ही नहीं जा सकता।
काव्यशास्त्र में कविसमय के विवेचन का इतिहास :
आचार्य राजशेखर से पूर्व भामह, दण्डी, उद्भट आदि आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में कविसमय का विवेचन नहीं किया। सम्भव है उनके सामने इस प्रकार के वर्णनों की लम्बी परम्परा न रही हो । यद्यपि कविसमयसिद्ध विषयों का अधिकता से वर्णन करने वाले महाकवि कालिदास इन आचार्यों के पूर्व हो चुके थे, किन्तु इन आलङ्कारिक आचार्यों ने लोकविरोधी, शास्त्रविरोधी, देशकाल विरोधी विषयों के वर्णन को दोष माना है। लोक, शास्त्र के अनुकूल अर्थ का ही काव्य में वर्णन होना चाहिए ऐसा आचार्य भामह स्वीकार करते हैं, किन्तु साथ ही उनकी यह भी मान्यता प्रतीत होती है कि लोकप्रसिद्ध अर्थ के निबन्धन का औचित्य तभी है जब वह अर्थ काव्य में भी प्रसिद्ध हो। 'देशविरोध' के प्रसङ्ग में लोकेकाव्ये च प्रसिद्धम्' कहकर वह ऐसा ही स्वीकार करते प्रतीत होते हैं । किन्तु कविप्रसिद्धि के
1. उद्वेगजनको दोषः सभ्यानाम्--- असामयिकता नेयामेतां च मुनयो जगुः
2. इदमन्यच्च यद्यथोक्तं कविसमयप्रसिद्धं तत्तथैव निवीयात्। अन्यथा तु प्रकृतिव्यत्ययो नाम दोषः ।
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-- समयाच्युतिः । 101
अग्निपुराण का काव्यशास्त्रीय भाग (एकादश अध्याय)
काव्यानुशासन (वाग्भट) (पञ्चम अध्याय)
3 निर्हेतुता तु ख्यातेऽथ दोषतां नैव गच्छति। कवीनां समये ख्याते गुणः ख्यातविरुद्धता । 22।
सप्तम परिच्छेद साहित्यदर्पण (विश्वनाथ )
4. देशकालकलालोकन्यायागमविरोधि च प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तहीनं दुष्टं च नेष्यते 1 21
या देशे द्रव्यसम्भूतिरपि वा नोपदिश्यते ततद्विरोधि विज्ञेयं स्वभावात् तद्यथोच्यते । 29 । मलये कन्दरोपान्तरूढकालागुरुगुमे सुगन्धिकुसुमानम्रा राजन्ते देवदारवः । 30 । कन्दराणां गुहानां समीपे प्ररूढाः कालागुरुद्रुमाः यस्मिन् तस्मिन् । मलयपर्वते चन्दनानां समृद्धिलोंके काव्ये च प्रसिद्धा । न तु कालागुरुणां देवदारुणाम् चेति देशविरोधीदम् ।
(चतुर्थ परि काव्यालङ्कार ( भामह )
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