Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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करके, जिन वस्तुओं को समझकर, देख और सुनकर उल्लिखित किया है उन पदार्थों का देश और कान के कारण भेद होने पर भी, उसी प्राक्तन अविकृत रूप में वर्णन करना कविसमय है।"1
राजशेखर की इस मान्यता के अनुसार तो यह मानना होगा कि कवि नदी में कमल का, चकोरों के चन्द्रिकापान आदि का वर्णन करते हैं, अत: उन्होंने अथवा उनके पूर्व विद्वानों ने अवश्य इन अर्थों को लोक में देख सुनकर तथा शास्त्रों का अध्ययन करके प्राप्त किया होगा, किन्तु देश और काल के कारण इन अर्थो या वस्तुओं का रूपान्तर हो गया, वे उस रूप में प्राप्त नहीं हुए, किन्तु कवि उनका वर्णन उसी रूप में करते रहे इसलिए यह अर्थ कविसमय बन गए, किन्तु नदी में कमल, चकोरों का चन्द्रिकापान अथवा अन्य इसी प्रकार के कविसमय रूप में स्वीकृत अर्थ क्या किसी देश अथवा काल की सत्यता हो सकते हैं? क्या किसी देश, काल में नदी के प्रवाहयुक्त जल में भी कमल खिल जाते थे, उन्हें अपने जन्म हेतु कीचड़ की आवश्यकता नहीं थी? क्या किसी देश अथवा काल में चकोरों के लिए चन्द्रिकापान सम्भव था? इसी प्रकार वेदों में-जिन पर सभी शास्त्रों को आधारित माना जाता है-कविसमय के अन्तर्गत
स्वीकृत अर्थ नहीं मिलते। अत: कविसमय रूप में स्वीकृत अर्थ लोक के किसी देश काल की, किसी
शास्त्र की किसी कारणवश स्वीकृति हो सकते हैं, सत्य नहीं माने जा सकते। अत: कवियों ने जिन अर्थों को वास्तविक रूप में प्राप्त किया उनका ही प्रणयन किया यह मानना समीचीन नहीं है, किन्तु यही मानने का औचित्य है कि कवियों ने जिन अर्थों को शास्त्र तथा लोक में केवल स्वीकृति के रूप में पाया (वास्तविक रूप में प्राप्त किया हो अथवा नहीं) उनका ही प्रणयन किया। अत: आचार्य राजशेखर के
कथन का यह तात्पर्य माना जा सकता है कि जो अर्थ किसी विशिष्ट कारण से शास्त्र तथा लोक में अपने
वास्तविक रूप से भिन्न रूप में स्वीकृत हो गए थे, उन्हें ही कवियों ने अपनाया तथा शास्त्र और लोक की स्वीकृति के बदल जाने पर भी कवि उन अर्थों को पूर्व स्वीकृत रूप में ही अपनाते रहे और उन अर्थो के उसी रूप में निबन्धन की कविजगत् में परम्परा बन गई।
1. पूर्वे हि विद्वांसः सहस्त्रशाखं साङ्गम् च वेदमवगाह्य, शास्त्राणि चावबुध्य, देशान्तराणि द्वीपान्तराणि च परिभ्रम्य यानर्थानुपलभ्य प्रणीतवन्तस्तेषां देशकालान्तरवशेन अन्यधात्वेऽपि तथात्वेनोपनिबन्धो यः स कविसमयः।
काव्यमीमांसा - (चतुर्दश अध्याय)