Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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में ही सौन्दर्य निहित है-इनके शास्त्रीय एवं लौकिक रूप के काव्य में निबन्धन का कोई वैशिष्ट्य नहीं
है, क्योंकि उनमें कोई सौन्दर्य नहीं है।
कविसमय के अशास्त्रीय, अलौकिक रूप का ही औचित्य स्वीकार करके केवल परम्परा का ही इतना महत्व स्वीकार करना होगा कि उसके आधार पर अशास्त्रीय, अलौकिक विषय का भी काव्य में निबन्धन सम्भव है। कविसमय के विषय में परम्परा का महत्व अवश्य है। वह कविसमयों के निबन्धन का महत्वपूर्ण कारण है और परम्परा के आधार पर ही काव्य में इन विषयों को अपनाया जाता रहा, किन्तु परम्परा तो क्रमशः ही बनती है। कोई भी विषय प्रारम्भ में परम्परा नहीं होता, जब प्रारम्भ में परम्परा बनने से पूर्व कोई अर्थ काव्य में अपनाया गया होगा तो उसके पीछे कोई विशिष्ट औचित्य भावना अवश्य रही होगी, क्योंकि जिस विषय का कोई औचित्य न हो उसके निबन्धन की परम्परा बन ही नहीं सकती। कविजगत् भेड़चाल नहीं है । परम्परा के पीछे औचित्य भावना काम करती है, औचित्य रस का परम रहस्य है। अत: जब अशास्त्रीय, अलौकिक अर्थों को अपनाया गया होगा तो उनके किसी न किसी औचित्य को ध्यान में अवश्य रखा गया होगा, और इन अर्थों के इसी औचित्य ने उन्हें परम्परा बना दिया।
कविसमयों का परम्परित होने के साथ अशास्त्रीय, अलौकिक होना अनिवार्य है। अत: कविसमयों की अशास्त्रीयता और अलौकिकता में ही वह वैशिष्टय निहित है-जिसने उन्हें परम्परा बना दिया। देश की संख्या, दिशाओं की संख्या, समुद्रों आदि की संख्या को अन्य काव्यशास्त्रियों द्वारा कविसमय माना गया है किन्तु आचार्य राजशेखर उन विषयों को कविसमय नहीं मानते क्योंकि उनमें अशास्त्रीयत्व और अलौकिकत्व नहीं है। कविसमय का अशास्त्रीय, अलौकिक होना राजशेखर के अनुसार अनिवार्य है। कविबद्धविषय काव्यजगत् में प्रमाण तो माने जाते हैं तथा अदोषत्व की कसौटी रूप में स्वीकृत होते हैं किन्तु परम्परा के रूप में 'कविसमय' संज्ञा से वे ही अभिहित होते हैं जो अशास्त्रीय भी हों, अलौकिक भी। कविजगत् में जिस विषय के निबन्धन की परम्परा हो वह यदि
1. अनौचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गस्य कारणम् प्रसिद्धौचित्यबन्धस्तु रसस्योपनिषत्परा॥ ध्वन्यालोक (तृतीय उद्योत)
औचित्यस्यचमत्कारकारिणश्चारूचर्वणे रसजीवितभूतस्य विचारं कुरुतेऽधुना । 3 । (पृष्ठ - 2) औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम् । 5 । (पृष्ठ - 4)
औचित्यविचारचर्चा (क्षेमेन्द्र)