Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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विभिन्न कविसमयों के यही रूप उनके काव्य में आने से पूर्व लोक तथा शास्त्र में स्वीकृत थे। देश काल के अन्यथात्व से लोक और शास्त्र की स्वीकृति में अन्तर आ गया, फिर भी लोक शास्त्र की अस्वीकृति को कविगण प्राक्तन स्वीकृति के रूप में ही अपनाते रहे, क्योंकि कविसमय इसी रूप में काव्योपकारक थे।
इस प्रकार अशास्त्रीय, अलौकिक कविसमयों का भी मूलाधार लोक और शास्त्र ही है। लोक और शास्त्र ही काव्यवर्णनों के आधार बनते हैं। लौकिक एवम् शास्त्रीय अर्थों को ही कवि अपनी कल्पना से मौलिक रूप प्रदान करते हैं। अत: अशास्त्रीय, अलौकिक कविसमयों को अपनाना कवियों को दोषी नहीं ठहराता, क्योंकि उन्होंने जब इन अर्थों को अपनाया उस समय उनको लोक तथा शास्त्र में किसी विशिष्ट कारण से उसी रूप में (उनके वास्तविक रूप से भिन्न रूप में) स्वीकार किया जाता था। अत: विद्वानों और कवियों ने तो उन्हें लौकिक एवम् शास्त्रीय स्वीकृत रूप में ही प्रारम्भ में अपनाया था, देश कालान्तर वश उनका रूपान्तर हो गया, स्वीकृति बदल गयी तो कविगण दोषी नहीं हैं। कविसमय अशास्त्रीय और अलौकिक हों तो भी उनका मूल तो शास्त्रीय एवम् लौकिक है। शास्त्रीय एवम् लौकिक स्वीकृति अशास्त्रीय, अलौकिक हो जाने पर भी काव्यजगत् में अपने काव्योपकारकत्व के कारण परिवर्तित नहीं की गई, क्योंकि उनका अशास्त्रीय, अलौकिक रूप मूल के शास्त्रीय एवम् लौकिक होने के कारण दोष नहीं कहा जा सकता।
राजशेखर का यह कथन कि लोक शास्त्र से संगत अर्थ ही अपनाए गए समीचीन नहीं हैं, क्योंकि लोक तथा शास्त्र का सम्बन्ध कभी भी असंगत बातों से नहीं होता। शास्त्र तथ्य निर्धारक हैं, अलौकिक काव्य के सृष्टा नहीं। इसी प्रकार लोक भी काव्यसृष्टा न होकर वास्तविकता से सम्बद्ध है। कविसमय की लोकसंगतता कुछ अंशों में यह स्वीकार करके मान्य हो सकती है कि लोक की कुछ प्रतिभाओं ने कुछ अर्थों को उनके सौन्दर्यातिशय के कारण उनके सत् रूप से भिन्न रूप में स्वीकार किया होगा, काव्य रूप में भले ही निबद्ध न किया हो। यही विषय काव्य रचना के आरम्भ होने पर कवियों द्वारा अपनाए गए तथा धीरे-धीरे परम्परा बन गए। स्वीकृति बदलने का यह तात्पर्य माना जा सकता है
कि कालान्तर में कवि प्रतिभाओं से भिन्न प्रतिभाओं ने लौकिक वास्तविकता से ही अधिक सम्बद्ध होने
के कारण इन विषयों के सत् रूप को ही अपनाया, सौन्दर्यातिशय से सम्बद्ध रूप को नहीं। यद्यपि कल्पना