Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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लिए सभी भाषाओं का ज्ञान आवश्यक बतलाया है। कवि के सम्बन्धियों की भाषा से सम्बद्ध इस विवेचन के आधार पर तत्कालीन समाज में प्रचलित भाषाओं की स्थिति का ज्ञान होता है एवम् महत्व की दृष्टि से भाषाओं को संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा मागधी के क्रम में रखा जा सकता है। परिचारिकों, भृत्यों आदि की उपस्थिति तत्कालीन कवि को राजसी जीवन से सम्बद्ध रूप में प्रस्तुत करती है क्योंकि केवल राज्याश्रित, पूर्णतः समृद्ध कवि के ही परिचारक, परिचारिका, भृत्य आदि हो सकते हैं, सामान्य कवि के नहीं कवि के परिचारकों आदि का विभिन्न भाषाओं से सम्बद्ध ज्ञान राजसी जीवन से पृथक् कवि के लिए इसी तात्पर्य को व्यक्त करता है कि कवि को अपने समय में समाज में प्रचलित सभी भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए। कवि का सहायक लेखक :
सम्भवत: आचार्य राजशेखर के समय में कवियों के काव्य की परीक्षा हेतु छोटी बड़ी काव्यसभाओं का आयोजन होता था जिसमें काव्यपाठ के द्वारा कवि के काव्य का संस्कार एवं शुद्धता सम्भव थी। काव्यपाठ करते समय स्वयं ही अपने काव्य का सभा के द्वारा किए गए संस्कार के आधार पर लेखन कार्य कवि के लिए कठिन रहा होगा। इसी कारण सभा में पठित काव्य के संस्कार एवं विशुद्धि के अनन्तर उसके लेखन कार्य हेतु कवि के लिए एक सहायक लेखक की आवश्यकता स्वीकार की गई है। कवि के इस सहायक में आचार्य राजशेखर ने सभी भाषाओं में निपुणता, शीघ्र बोलना, सुन्दर अक्षर लिखना, इङ्गित को समझना, विभिन्न लिपियों का ज्ञान एवं लाक्षणिकता आदि गुण आवश्यक बतलाए है। काव्यसभा में पूर्णतः संस्कृत एवं विशुद्ध काव्य के लेखन हेतु सहायक की आवश्यकता स्वीकार करने के पश्चात् भी आचार्य राजशेखर के 'रात्रि आदि में सहायक के समीप उपस्थित न रहने पर उसके विभिन्न भाषाओं में कुशल सम्बन्धी उसके काव्य का लेखन कर सकते हैं 2' इस कथन के आधार पर कवि के सहायक लेखक की आवश्यकता को केवल सभा की परीक्षा के
1. अपभ्रंशभाषणप्रवणः परिचारकवर्ग: समागधभाषाभिनिवेशिन्यः परिचारिकाः प्राकृतसंस्कृतभाषाविद् आन्त:पुरिका, मित्राणि चास्य सर्वभाषाविन्दि भवेयुः
(काव्यमीमांसा - दशम अध्याय ) 2 सदः संस्कारविशुद्धयर्थ सर्वभाषाकुशल: शीघ्रवाक्, चार्वक्षरः, इङ्गिताकारवेदी नानालिपिज्ञः कविः लाक्षणिकश्च लेखक: स्यात्। तदसन्निधावतिरात्रादिषु पूर्वोक्तानामन्यतमः।
(काव्यमीमांसा - दशम अध्याय )