Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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कवि की स्वच्छता :
काव्य की आधारभूत सरस्वती के सम्मान के लिए एवं मानसिक सात्विकता की प्राप्ति के लिए काव्यरचना में प्रवृत्त होने से पूर्व सर्वथा स्वच्छता एवं पवित्रता की कवि के लिए अनिवार्यता है । इसी कारण आचार्य राजशेखर ने काव्यनिर्माण से पूर्व वाणी, मन एवं शरीर तीनों को स्वच्छ एवं पवित्र रखने का कवि को निर्देश दिया है। शास्त्रों के नित्य अध्ययन एवं अभ्यास से ज्ञान संवर्धन के द्वारा कवि की वाणी तथा मन की पवित्रता स्वयं ही सम्भव है। इसके अतिरिक्त शरीर की स्वच्छता का मन के विचारों एवं भावों पर विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है। इसी कारण शरीर को पूर्णतः स्वच्छ रखने की तथा स्वच्छ वस्त्र धारण करने की आवश्यकता सभी युगों के कवियों के लिए है। किन्तु शारीरिक स्वच्छता के संदर्भ में व्यक्त आचार्य राजशेखर का विचार उनकी समसामयिक परिस्थिति को सम्मुख उपस्थित करता है। वह समय राज्याश्रित कवियों का ही अधिक था। ताम्बूलयुक्त मुख, सुगन्धित लेपों से लिप्त शरीर, मूल्यवान् तथा स्वच्छ वस्त्र एवं शिर पर सुगन्धित पुष्प से समन्वित कवि का स्वरूप कवियों की तत्कालीन समृद्धि का ही परिचायक है। फिर भी काव्यनिर्माण के लिए कवि की शारीरिक स्वच्छता की आवश्यकता का निराकरण नहीं किया जा सकता, यद्यपि कवि के शारीरिक श्रृंगार का जैसा वर्णन आचार्य राजशेखर ने प्रस्तुत किया है उससे सम्बद्ध मान्यताएँ प्रत्येक युग में भिन्न हो सकती है। किसी युग में कवियों का अत्यधिक समृद्ध न होना भी सम्भव है फिर भी उसके लिए शरीर तथा वस्त्रों की स्वच्छता की महती आवश्यकता है। आचार्य क्षेमेन्द्र के ग्रन्थ में विवेचित सुवेष स वच्छता से सम्बद्ध निर्देश ही है। कवि के परिचारक, परिचारिकाएँ, सम्बन्धी एवम् मित्र :
आचार्य राजशेखर ने कवि के परिचारक, परिचारिकाओं, मित्रों एवं सम्बन्धियों के विशिष्ट भाषाओं में निष्णात होने का विवेचन किया है तथा कवि के परिचारकों के लिए अपभ्रंश भाषा, परिचारिकाओं के लिए मागध भाषा, अन्त:पुर की स्त्रियों के लिए प्राकृत तथा संस्कृत भाषा एवं मित्रों के
1. अपि न नित्यं शुचिः स्यात्। त्रिधा च शौचं वाक्शौचं मनःशौचं, कायशौचं च। प्रथमे शास्त्रजन्मनी। तार्तीयीकं तु
मनग्वछेदौपादौ, सताम्बूलं मुखं सविलेपनमात्रं वपुः, महार्हमनुल्वणं च वासः सकुसुमं शिर इति । शचि चिशीलनं हि सरस्वत्याः संवननमामनन्ति।
(काव्यमीमांसा - दशम अध्याय)