Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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महाकवि :- पूर्ण विकसित कवि की अवस्था को महाकवि कहा गया है। वह स्वतन्त्र रूप
से पूर्ण प्रबन्ध के निर्माण में समर्थ होता है। इस अवस्था में कवि को शब्द, अर्थ, भाव तथा रस सभी के
स्वतन्त्र रूप में निबन्धन की क्षमता से युक्त माना जा सकता है।
कविराज :- सामान्यत: महाकवि के बाद कवि के विकास की अवस्थाएं समाप्त हो जाती हैं
क्योंकि महाकवित्व श्रेष्ठ कवित्व की कसौटी है। किन्तु आचार्य राजशेखर कवि के विकास की सीमा
को महाकवित्व से भी आगे तक ले जाते हैं। उनकी दृष्टि में कवि के विकासक्रम का अन्तिम सोपान कविराजत्व है ।2 महाकवि एक भाषा के प्रबन्ध निर्माण में पटु होता है किन्तु कविराज का रचना
स्वातन्त्र्य विभिन्न भाषाओं, विभिन्न प्रकार के प्रबन्धों तथा विभिन्न रसों से सम्बद्ध होता है। (आचार्य
राजशेखर ने केवल कविराज के लिए ही विभिन्न रसों से रचना स्वातन्त्र्य का उल्लेख किया है किन्तु यह विषय ध्यान देने का है कि महाकवि का भले ही एक भाषा में रचना स्वातन्त्र्य हो किन्तु विभिन्न रसों से युक्त रचना में वह भी स्वतन्त्र होता है क्योंकि एक प्रबन्ध में एक नहीं अनेक रस मिलते हैं) किन्तु राजशेखर काव्यनिर्माण की दृष्टि से कविराज को महाकवि से भी उच्च स्थान प्रदान करते हैं। कविराज कवि की शिष्य से पूर्ण कवि बनने तक के विकासक्रम की अन्तिम अवस्था है तथा कविराज पूर्णत: विकसित परिपूर्ण कवि। आचार्य राजशेखर द्वारा मान्य 'कविराज' अवस्था उनके किञ्चित् अहंकार को व्यक्त करती है क्योंकि उन्होंने स्वयं को कई स्थानों पर कविराज कहा है।
आचार्य राजशेखर द्वारा विवेचित यह सात अवस्थाएँ कवि के क्रमिक विकास पर आधारित हैं
और इसी कारण अभ्यास से सम्बद्ध भी। शिष्य की अवस्था से एकाएक ही महाकवि अथवा कविराज
की अवस्था तक पहुँचना सम्भव नहीं है। कवि को प्रारम्भिक तथा अन्तिम अवस्था के मध्य विकास की
1. योऽन्यतरप्रबन्धे प्रवीणः स महाकविः।
(काव्यमीमांसा-पञ्चम अध्याय) 2 यस्तु तत्र तत्र भाषाविशेषे तेषु प्रबन्धेषु तस्मिंस्तस्मिंश्च रसे स्वतन्त्रःस कविराजः। ते यदि जगत्यपि कतिपये।
(काव्यमीमांसा-पञ्चम अध्याय)