Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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काव्यपाक को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करने के लिए दोनों मतों का समान रूप से मान्य
होना ही उचित है। अवन्तिसुन्दरी ने आचार्य वामन के मत का विरोध किया है किन्तु काव्यपाक के दो
पक्ष स्वीकार करके आचार्य वामन तथा अवन्तिसुन्दरी के मतों के पारस्परिक विरोध को खंडित किया
जा सकता है तथा दोनों ही मतों की अलग-अलग दृष्टि से समीचीनता स्वीकार की जा सकती है। श्रेष्ठ
काव्य के लिए सौशब्द्य तथा रस प्रतीति का निर्वाह दोनों ही गणों की समान आवश्यकता है। आचार्य
राजशेखर ने विभिन्न मतों का उल्लेख करके अन्त में अपना मत देते हुए पदों के परिवर्तन की अपेक्षा न
होने को काव्य का शब्दपाक माना है। इसके अतिरिक्त काव्य की परिपक्वता के निर्णय के सम्बन्ध में
उन्होंने सहृदयों को ही प्रमाण माना है। सहृदयों को रुचिकर प्रतीत होने वाले काव्य का सरस होना
अवश्यम्भावी है। आचार्य राजशेखर के विचारानुसार काव्य परिपक्वता का निर्धारक तत्व रस है यह
उनके द्वारा स्वीकृत पाक प्रकारों से ही स्पष्ट होता है। इस प्रकार रस का निर्वाह काव्य परिपक्वता का एक पक्ष है तथा सौशब्द्य दूसरा पक्ष।
आचार्य आनन्दवर्धन के अनुसार भी काव्य का सरस होना उसकी प्रौढ़ता का परिचायक है।
ध्वनिकाव्य को उन्होंने परिपक्व काव्य की कसौटी के रूप में स्वीकार किया है ।2 कवि का
रसाभिव्यक्ति में तात्पर्य न होना तथा उसके द्वारा केवल अलंकारयुक्त काव्यनिर्माण चित्रकाव्य (जिसकी
1. 'कार्यानुमेयतया यत्तच्छब्दनिवेद्यः परम् पाकोऽभिधाविषयस्तत्सहृदयप्रसिद्धिसिद्ध एव व्यवहाराङ्ग मसौ, इति यायावरीयः।
(काव्यमीमांसा - पञ्चम अध्याय) 2 रसभावादिविषयविवक्षा विरहे सति।
अलङ्कारनिबन्धो यः सः चित्रविषयो मतः॥ रसादिषु विवक्षा तु स्यात्तात्पर्यवती यदा। तदा नास्त्येव तत्काव्यं ध्वनेर्यत्र न गोचरः।।
इदानीन्तु तु न्याय्ये काव्यनयव्यवस्थापने क्रियमाणे नास्त्येव ध्वनिव्यतिरिक्तः काव्यप्रकार: यतः परिपाकवतां कवीनां रसादितात्पर्यविरहे व्यापार एव न शोभते।
(तृतीय उद्योत) ध्वन्यालोक (आनन्दवर्धन )