Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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काव्यविद्यास्नातकः- कानिर्माण सम्बन्धी शिक्षा के लिए गुरू के सामीप्य तथा गुरुकुल प्रवेश को महत्व देने के कारण ही आचार्य राजशेखर की दृष्टि में कवि की प्रथम प्रारम्भिक अवस्था है काव्यविद्यास्नातक। काव्य की विद्याओं, उपविद्याओं का ग्रहण करने के लिए तथा गुरू से काव्य निर्माण सम्बन्धी शिक्षाएँ ग्रहण करते हुए काव्यरचना का अभ्यास करने के लिए जब शिष्य का गुरूकुल में प्रवेश होता है उस अवस्था में उसे काव्यविद्यास्नातक कहते हैं । आचार्य राजशेखर के विवेचन से उस समय काव्यनिर्माण की शिक्षा के लिए गुरुकुलों के अस्तित्व की सम्भावना की जा सकती है।
हृदयकवि-द्वितीय अवस्था में शिष्य रूप कवि जो काव्यरचना करता है उसका प्रकटीकरण न करके उसे हृदय में ही निगूहित रखता है । यह हृदयनिगूहन कवि की अपरिपक्वावस्था का ही सूचक माना जा सकता है क्योंकि पूर्ण परिपक्व कवि के लिए हृदय में कविता करने की तथा हृदय में ही छिपाकर रखने की क्या आवश्यकता है-वह तो अपने काव्य को निश्चिन्त होकर प्रकट करता है।
अपरिपक्व कवि दोषभय से ही अपने काव्य को हृदय में छिपाने के लिए बाध्य होता होगा। हृदयकवि की अवस्था निश्चय ही उस समय नहीं रह जाती होगी जब कवि को अपने काव्य के दोषरहित होने
का विश्वास हो जाए।
अन्यापदेशी :- कवि की यह तृतीय अवस्था हृदयकवि की अवस्था के समान ही है-इसमें कवि रचना को प्रकट अवश्य करता है। किन्तु अपनी रचना बताकर नहीं बल्कि किसी दूसरे की रचना बताकर 3 सम्भवतः यहाँ भी अपनी रचना सामर्थ्य पर अविश्वास तथा दोषभय ही कारण है क्योंकि दूसरे की रचनारूप में प्रकट किए गए काव्य में दोष निकलने पर कवि के स्वयं के अपमान का भय नहीं
रहता।
1 यः कवित्वकामः काव्यविद्योपविद्याग्रहणाय गुरूकुलान्युपासते स विद्यास्नातकः।
(काव्यमीमांसा-पञ्चम अध्याय) (काव्यमीमांसा-पञ्चम अध्याय)
2 यो हृदय एव कवते च स हृदयकवि: 3 यः स्वमपि काव्यं दोषभयादन्यस्येत्यपदिश्य पठति सोऽन्यापदेशी।
(काव्यमीमांसा-पञ्चम अध्याय)