Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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अर्थ, उक्ति, रस आदि कवि भेदकों को कवियों का काव्यनिर्माण सम्बन्धी गुण बना दिया है तथा क्रमश: अभ्यास से पूर्ण परिपक्व कवि बनने की स्थिति को भी प्रस्तुत किया है।
अभ्यासी कवि के क्रमिक अभ्यास से सम्बद्ध होने के कारण ही यह विषय 'कविशिक्षा' से
सम्बद्ध ग्रन्थ में प्रस्तुत है - । अभ्यासी कवि का अभ्यास इन सभी विषयों से सम्बद्ध होना चाहिए तभी कवि में इन सभी गुणों का समावेश सम्भव है जो उसे पूर्ण महाकवि की स्थिति में पहुंचाता है। कवि के अभ्यास की प्रथम अवस्थाओं में अल्पगुणों के समावेश के कारण ही कवि को कनिष्ठ तथा मध्यम कवि कहा गया है। 'काव्यमीमांसा' में सर्वत्र आचार्य राजशेखर की भेद-विभेद की प्रवृत्ति व्याप्त है। किन्तु गुणों की संख्या पर आधारित कवि की कसौटी विषय की सूक्ष्म विवेचना नहीं है। चित्रकाव्य तथा रस काव्य पर आधारित कवि की कनिष्ठता तथा उत्कृष्टता प्रस्तुत करने वाला आचार्य आनन्दवर्धन का विचार ही स्वीकार्य है।
अभ्यास के उपाय :- काव्य हेतु प्रतिभा एवं व्युत्पत्ति कवि के काव्य के केवल मानसिक उद्भव से ही सम्बद्ध हैं किन्तु काव्य की क्रियान्विति के लिए काव्य हेतु अभ्यास की ही अनिवार्यता है। इसी कारण कवि की दिनचर्या में अभ्यास को आचार्य राजशेखर ने महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उनके विवेचन के अन्तर्गत कवि की दिनचर्या का द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ प्रहर काव्यनिर्माण के अभ्यास से सम्बद्ध है। प्रश्नोत्तरों द्वारा समस्याओं का विवेचन, विविध प्रकार के काव्यरचना सम्बन्धी अभ्यास, चित्रकाव्य का निर्माण, निर्मित काव्य का पुन:पुनः परीक्षण, अधिक का त्याग, न्यून का पूरण, अन्यथास्थित पदों का परिवर्तन तथा प्रस्मृत प्रद का अनुसन्धान आदि कार्य काव्य के अभ्यास तथा क्रमिक संस्कार के अन्तर्गत ही स्वीकत हैं।।
1. द्वितीय काव्यक्रियाम् ................भोजनान्ते काव्यगोष्ठी प्रवर्तयेत्। कदाचिच्च प्रश्नोत्तराणि भिन्दीत।
काव्यसमस्याधारणा, मातृकाभ्यासः, चित्रा योगा इत्यायामत्रयम्। चतुर्थ एकाकिनः परिमितपरिषदो वा पूर्वाह्रभागविहितस्य काव्यस्य परीक्षा। रसावेशतः काव्यं विरचयतो न च विवेकत्री दृष्टिस्तस्मादनुपरीक्षेत। अधिकस्य त्यागो न्यूनस्य पूरणं, अन्यथास्थितस्य परिवर्तनं, प्रस्मृतस्यानुसन्धानम् चेत्यहीनम्। मायं सन्ध्यामुपासीत सरस्वती च। ततो दिवा विहितपरीक्षितस्यभिलेखनमा प्रदोषात्
(काव्यमीमांसा-दशम अध्याय)