Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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आचार्य राजशेखर अभ्यास की निरन्तरता के लिए नियमित दिनचर्या की अनिवार्यता स्वीकार करते हैं। उनके विचार में श्रेष्ठ सहृदयहृदयाह लादकारी काव्य नियमित दिनचर्या के अनुसार काव्य रचना का निरन्तर अभ्यास करने वाले कवियों द्वारा ही निर्मित किया जा सकता है।
काव्य में शब्द अर्थ निबन्धन से सम्बद्ध अभ्यास का आचार्य राजशेखर द्वारा प्रदर्शित श्रेष्ठ उपाय है-साङ्ग वेदों एवं इतिहास पुराणादि के अर्थों एवं कथाओं को लेकर काव्यनिर्माण का प्रयास। अभ्यास से सम्बद्ध उपायों के रूप में आचार्य राजशेखर ने हरण का विस्तृत विवेचन किया है किन्तु उनका विस्तार तथा महत्व उनके पूर्णतः पृथक् विवेचन के लिए बाध्य करता है।
कवि के लिए अभ्यास के उपाय आचार्य वाग्भट के 'वाग्भटालङ्कार' तथा आचार्य क्षेमेन्द्र के
'कविकण्ठाभरण' में भी विवेचित है-आचार्य वाग्भट की धारणा है कि कवि को काव्य के लिए अर्थ
प्राप्ति हेतु मन की निर्मलता एवं प्रतिभा के साथ प्रातः कालीन अभ्यास की भी परम आवश्यकता हैकाव्य के लिए अर्थ, पद के प्रपच्च को, शब्दसंघटना एवं अर्थसंघटना को अभ्यास द्वारा ही सीखा जा सकता है । निरन्तर काव्य रचना के अभ्यास के परिणामस्वरूप ही कवि को काव्य के लिए उचित शब्दों, अर्थो के चुनाव की क्षमता प्राप्त होती है-कवि की प्रारम्भिक अवस्था के लिए आचार्य वाग्भट द्वारा बताए गए उपाय हैं- अर्थशून्य पदावली द्वारा छन्दरचना का अभ्यास एवं प्राचीन कथाओं को लेकर अर्थबन्ध का अभ्यास 2 काव्य के लिए विभिन्न छन्दबन्ध सीखने के लिए अर्थशून्य पदों को लेकर पद्य बनाना भी
1 अनियतकालाः प्रवृत्तयो विप्लवन्ते तस्माद्दिवसं निशाम् च यामक्रमेण चतुर्द्धा विभजेत्।
(काव्यमीमांसा-पञ्चम अध्याय) 2 अनारतं गुरूपान्ते यः काव्ये रचनादर:
तमभ्यासं विदुस्तस्य क्रमः कोऽप्युपदिश्यते। 6। बिभ्रत्या बन्धचारूत्वं पदावल्यार्थशून्यया वशीकुर्वीत काव्या छन्दांसि निखिलान्यपि । 7। अनुल्लसन्त्यां नव्यार्थयुक्ताभिनवत्वतः अर्थसङ्कलनात्त्वमभ्यस्ये त्सङ्कथास्वपि । 101
वाग्भटालङ्कार (वाग्भट) (प्रथम परिच्छेद)
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