Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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प्रतिभा से उत्पन्न हो सकता है। आचार्य राजशेखर का इस प्रकार का कवि 'आभ्यासिक' कहलाता है, क्योंकि काव्यनिर्माण की प्रबल इच्छा होने पर वह व्युत्पत्ति तथा अत्यधिक अभ्यास से ही सामान्य कवित्व प्राप्त करने में सक्षम होता है।
औपदेशिक कवि-बुद्धि के अभाव में कवि बनना संभव नहीं होता। मन्त्र, तन्त्रादि से, उपदेश वरदानादि से बुद्धि तथा प्रतिभा की उत्पत्ति होने पर इस प्रकार का दुर्बुद्धि व्यक्ति कवि बन सकता है। यह औपदेशिक कवि औपदेशिक प्रतिभासम्पन्न होता है।
बुद्धिमता, काव्य एवं काव्याङ्ग विद्याओं का अभ्यास तथा दैवी शक्ति एकत्र दुर्लभ हैं । इन तीनों के एकत्र होने पर व्यक्ति कविराज अथवा श्रेष्ठ कवि बन जाता है।।
प्रतिभा के इस प्रकार के भेदों को आचार्य राजशेखर के अतिरिक्त अन्य आचार्यों ने भी स्वीकार किया है। आचार्य दण्डी ने यद्यपि काव्यहेतुओं में प्रमुख स्थान नैसर्गिकी प्रतिभा को ही दिया है। किन्तु व्युत्पत्ति एवम् अभ्यास द्वारा किञ्चित् काव्यनिर्माण की सामर्थ्य की प्राप्ति को वह स्वीकृति देते हैं ।2 अत: आहार्या प्रतिभासम्पन्न कवियों की स्थिति उन्हें मान्य है। उनकी प्रतिभाएँ प्राक्तनी-पूर्वजन्म के संस्कार से प्राप्त तथा इदानीन्तनी-ऐहिक संस्कार से प्राप्त हैं। आचार्य रुद्रट की सहजा और उत्पाद्या शक्तियाँ (प्रतिभाएँ) इसी प्रकार की हैं 3 आचार्य राजशेखर के प्रतिभाभेद के समान भेद पण्डितराज जगन्नाथ के ग्रन्थ में भी मिलते हैं। पण्डितराज ने प्रतिभा के कारणों के दो वर्ग प्रस्तुत किए हैं (क)
1 "बुद्धिमत्त्वं च काव्याङ्गविद्यास्वभ्यासकर्म च कवेश्चोपनिषच्छक्तिस्त्रयमेकत्र दुर्लभम् ।। काव्यकाव्याङ्गविद्यासु कृताभ्यासस्य धीमतः मन्त्रानुष्ठाननिष्ठस्य नेदिष्ठा कविराजता॥"
काव्यमीमांसा - (चतुर्थ अध्याय) 2. न विद्यते यद्यपि पूर्ववासना गुणानुबन्धि प्रतिभानमद्भुतम्। श्रुतेन यत्नेन च वागुपासिता ध्रुवं करोत्येव कमप्यनुग्रहम् ॥
काव्यादर्श (दण्डी) प्रथम परिच्छेद (104) 3 प्रतिभेत्यपरैरुदिता सहजोत्पाद्या च सा द्विधा भवति ।
पुंसा सह जातत्वादनयोस्तु ज्यायसी सहजा। 161 स्वस्यासौ संस्कारे परमपरं मृगयते यतो हेतुम् उत्पाद्या तु कथंचिद्वयुत्पत्त्या जन्यते परया । 17 ।
(प्रथम अध्याय) (काव्यालङ्कार-रुद्रट)