Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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अदृष्ट (ख) व्युत्पत्ति और अभ्यास । अदृष्टोत्पत्ति के विभिन्न कारण होते हैं जैसे देवता, महापुरुषादि के प्रसाद तथा वरदान।।
आचार्य वाग्भट तथा हेमचन्द्र की नवीन उल्लेख की सामर्थ्य वाली प्रज्ञारूपी प्रतिभा का जब तक उदय नहीं होता, यह बीज रूप में निहित होती है । इस प्रतिभा पर एक आवरण होता है, इस
आवरण का हटना ही प्रतिभा का उद्बोध है । जहाँ पर आवरण के हटने की प्रक्रिया स्वयं घटित होती हैं, वहाँ सहजा प्रतिभा होती है, जहाँ आवरण को दूर हटाने के लिए देवता आदि के अनुग्रह की आवश्यकता हो वहाँ औपाधिकी प्रतिभा होती है। यह औपाधिकी प्रतिभा आचार्य राजशेखर की
औपदेशिकी प्रतिभा से समानता रखती है, मन्त्र, तन्त्र उपदेशादि से उत्पन्न होना ही दोनों का साम्य है।
आचार्य राजशेखर ने शक्ति को व्यापक तथा प्रतिभा को सीमित स्वरूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न
किया, किन्तु शक्ति तथा प्रतिभा का भेद पूर्णतः स्पष्ट करने में उन्हें सफलता नहीं मिली। शक्ति तथा प्रतिभा का भेद, शक्ति को कर्ता तथा प्रतिभा को उसका कर्म स्वीकार करना, शक्ति का स्वरूप स्पष्ट न होना तथा प्रतिभा की उत्पत्ति के लिए विभिन्न संस्कारों की अपेक्षा-आचार्य राजशेखर के यह विचार परस्पर किञ्चित् असंगत से हैं। शक्ति यदि काव्यनिर्माणक्षमता की बीज रूप में उपस्थिति है तो सहजा
प्रतिभा के पूर्व तो कारण रूप में शक्ति का अस्तित्व स्वीकार किया जा सकता है किन्तु औपदेशिकी
प्रतिभा के पूर्व तो शक्ति कारण रूप में उपस्थित नहीं हो सकती। इस औपदेशिकी प्रतिभा के स्थल में भी
काव्यकारणीभूतायाः प्रतिभाया: कारणमाह-तस्याश्च हेतुः कश्चित् देवतामहापुरुषप्रसादादिजन्यमदृष्टम्, क्वचिच्च विलक्षणव्युत्पत्तिकाव्यकरणाभ्यासौ।
प्रथमानन
रसगङ्गाधर (पण्डितराज जगन्नाथ) 2 (क) प्रतिभा नवनवोल्लेखशालिनी प्रज्ञा। सा च ज्ञानावरणीयादिकर्मक्षयोपहेतुका गणधरादीनामिव सहजा, देवता परितोपौषधादिहेतुका कालीदासादीनामिवौपाधिकी।
(प्रथम अध्याय)
काव्यानुशासन (वाग्भट) (ख) प्रतिभा नवनवोल्लेखशालिनी प्रज्ञा ------------सा च सहजौपाधिकी चेति द्विधा सावरणक्षयोपशममात्रात् सहजा 151 सवितुरिव प्रकाशस्वभावस्यात्मनोऽभ्रपटलमिव ज्ञानावरणीयाद्यावरणम्, तस्योदितस्य क्षयेऽनुदितस्योपशमे च यः प्रकाशाविर्भावः सा सहजा प्रतिभा मन्त्रादेरौपाधिकी ।6।
(प्रथम अध्याय) (काव्यानुशासन - हेमचन्द्र)