Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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आचार्य दण्डी प्रतिभा के अभाव में भी व्युत्पत्ति तथा अभ्यास के महत्व को कुछ सीमा तक स्वीकार करते हैं, क्योंकि व्युत्पत्ति तथा अभ्यास से प्रतिभा के अभाव मे भी किञ्चित् काव्य सामर्थ्य की प्राप्ति उन्हें मान्य है। 1 इसके अतिरिक्त राजशेखर द्वारा स्वीकृत दुर्बुद्धि शिष्य तथा क्षेमेन्द्र के ग्रन्थ में विवेचित अशिष्य तो प्रतिभा के अभाव में दैवी प्रेरणा से ही कवि बन जाते हैं।
आचार्य राजशेखर से पूर्व शिष्य भेदों का विवेचन आचार्य वामन के अतिरिक्त अन्य किसी आचार्य ने नहीं किया है किन्तु शिक्षा शिष्य को ही दी जाती है अतः 'काव्यक्ष की शिक्षा द्वारा अभ्यास' को काव्यहेतु मानकर सभी आचार्यों ने अप्रत्यक्ष रूप से कवि की शिष्यावस्था को स्वीकार किया है। काव्यज्ञ की उपासना एवं शिक्षा को भामह, दण्डी, वामन, रूद्रट, हेमचन्द्र, वाग्भट्, महिमभट्ट मम्मट आदि सभी आचार्यों ने कवि के लिए अनिवार्य माना है - इस विषय का पूर्वोल्लेख हो चुका है। काव्यमार्ग में प्रारम्भिक अभ्यासी कवियों की स्थिति को 'ध्वन्यालोक' के रचयिता आचार्य आनन्दवर्धन ने भी स्वीकार किया है यद्यपि उन्होंने कवि तथा सहृदय की परिपक्वता को काव्य के श्रेष्ठ रूप ध्वनि काव्य से ही सम्बद्ध माना है। आनन्दवर्धन की धारणा है कि रसाभावादि विषय की विवक्षा न होने पर जो अलङ्कार निबन्धन होता है वह चित्रकाव्य का विषय है रसादि विवक्षा से जहाँ भी तात्पर्य हो वहाँ सर्वत्र ध्वनि काव्य होता है। प्रारम्भिक अभ्यासी कवि ही रसादि तात्पर्य की अपेक्षा किए बिना चित्रकाव्य की रचना करते हैं किन्तु परिपक्व कवियों का केवल ध्वनि काव्य ही होता है 2
आचार्य राजशेखर के ग्रन्थ 'काव्यमीमांसा' से प्रारम्भ शिक्षाग्रन्थों का रचना क्रम आचार्य राजशेखर के पश्चात् बढ़ता ही गया राजशेखर के परवर्ती आचार्य क्षेमेन्द्र ने कविशिक्षा से ही सम्बद्ध अपने 'कविकण्ठाभरण' नामक ग्रन्थ में शिष्य की अवस्था से कवि बनने तक का विकासक्रम स्वीकार किया है। इस विकासक्रम के अन्तर्गत विभिन्न स्थितियों को दृष्टि में रखते हुए आचार्य क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रन्थ को उसी क्रम से पाँच भागों में विभाजित किया है। यह पाँच विभाग प्रारम्भिक कवि के
1. न विद्यते यद्यपि पूर्ववासना गुणानुबन्धि प्रतिभानमद्भुतम् श्रुतेन यत्नेन च वागुपासिता ध्रुवं करोत्येव कमप्यनुग्रहम् (1/104) काव्यादर्श (दण्डी)
2 तदेवमिदानीन्तनकविकाव्यनयोपदेशे क्रियमाणे प्राथमिकानामध्यासार्थिनाम् यदि परं चित्रेण व्यवहार: प्राप्तपरिणतीनान्तु ध्वनिरेव काव्यमिति स्थितमेतत् ध्वन्यालोक (तृतीय उद्योत) (पेज-423)