Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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नवीन थे, बाद में यही विषय कविशिक्षा के अन्तर्गत विभिन्न आचार्यों द्वारा स्वीकृत हुए। आचार्य राजशेखर ने कवि की प्रारम्भिक अवस्था को उसका शिष्यरूप माना है। शिष्यरूप से उसके कवि रूप में
परिवर्तित होने वाले क्रमिक विकास को स्वीकार करने के कारण ही उनका ग्रन्थ कवि बनने से सम्बद्ध
विभिन्न निर्देशों तथा शिक्षाओं का विवेचक है।
कवि की शिष्यावस्था:- प्रारम्भिक कवि के लिए गुरू का सामीप्य तथा गुरूकुल की आवश्यकता आचार्य राजशेखर को विशेष रूप से मान्य है। काव्यविद गरू की आवश्यकता केवल राजशेखर ने ही नहीं किन्तु अन्य आचार्यों ने भी प्रारम्भिक अवस्था के कवि के लिए समान रूप में स्वीकार की है, क्योंकि किसी भी नवीन विषय का ज्ञान प्रतिभा होने पर भी प्रयत्न तथा सहायता के बिना कठिन है।
आचार्य राजशेखर कवि बनने के इच्छुकों के दो प्रकार स्वीकार करते हैं
1. बुद्धिमान् शिष्य :- बुद्धिमान् शिष्य में पूर्वजन्म के संस्कार से प्राप्त सहजा प्रतिभा होती है। ऐहिक संस्कारों के बिना स्वयं ही उद्बुद्ध सहजा प्रतिभा सम्पन्न इन शिष्यों का वैशिष्ट्रय है- शास्त्रज्ञान
में स्वाभाविक रूचि तथा श्रवण, ग्रहण, धारण, मनन, शंकासमाधान एवम् तत्वज्ञान की निरपेक्ष
सामर्थ्य 1 किन्तु गुरू की आवश्यकता इन शिष्यों के लिए भी सर्वमान्य है। इन शिष्यों की जिज्ञासु वृत्ति गुरु के सहवास से यथार्थ वस्तु के ग्रहण की प्रेरणा प्राप्त करती है। इसके अतिरिक्त शंकासमाधान तथा निश्चित तत्व का ज्ञान भी गुरू के सहवास तथा प्रेरणा से ही सम्भव है। बुद्धिमान् शिष्य की प्रतिभा अपने विकास हेतु, काव्य के सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञेय विषयों को जानने के लिए काव्यनिर्माण में पूर्णत: प्रवृत्त होने के लिए तथा काव्यपरिपक्वता की प्राप्ति के लिए काव्यविद्यावृद्ध गुरूजन के सहवास की अपेक्षा रखती है। सहजा प्रतिभा सम्पन्न होने पर भी शिष्य का काव्यनिर्माण सम्बन्धी अनुभव तथा ज्ञान काव्यविद्या
वृद्ध गुरू के अनुभव तथा ज्ञान की अपेक्षा कम ही होगा यह सर्वमान्य है- गरू के काव्य सम्बन्धी ज्ञान
1 यस्य निसर्गतः शास्त्रमनुधावति बुद्धिः स बुद्धिमान् बुद्धिमान् शुश्रूषते शृणोति गृहणीते धारयति विजानात्यूहतेऽपोहति तत्त्वम् चाभिनिविशते।
(काव्यमीमांसा - चतुर्थ अध्याय)