Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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काव्यहेतु अभ्यास के स्वरूप के विषय में सभी आचार्यों का मतैक्य प्रतीत होता है। सभी विपयों के कौशल प्रदान करने वाला निरन्तर प्रयत्न अभ्यास है। सभी आचार्यों ने काव्यज्ञों अथवा काव्यविद गरुओं के सामीप्य में उनके उपदेश एवं शिक्षा की सहायता से काव्यनिर्माण के पुन: पुन: प्रयास को अभ्यास नाम दिया है। इस विषय में निरन्तरता अथवा असकृतरूपत्व का विशेष महत्व है
क्योंकि किसी कार्य को करने का सकत नहीं बल्कि असकृत् (पुन:-पुन:) प्रयास ही अभ्यास कहलाता
अभ्यास के लिए गरू की सहायता की. उसकी शिक्षा की सभी आचार्यों के अनुसार आवश्यकता
है। कवि के सभी प्रकार के शिष्य रूपों के लिए राजशेखर ने गुरू की सहायता की अपेक्षा स्वीकार की है। गुरू की सहायता की आवश्यकता कवि को उसके उपदेश से काव्यनिर्माण के अभ्यास के लिए ही है। राजशेखर से पूर्व आचार्यों ने भी काव्यहेतु अभ्यास का तथा काव्यज्ञ के उपदेश अथवा शिक्षा का परस्पर सम्बद्ध रूप में ही उल्लेख किया है क्योंकि अभ्यास काव्यज्ञाताओं के निर्देश से ही सम्भव है और काव्यज्ञाताओं द्वारा प्राप्त काव्यनिर्माण सम्बन्धी निर्देश ही कवि शिक्षा के विषय हैं। इस प्रकार काव्यशास्त्र के व्यावहारिक पक्ष कवि शिक्षा का काव्य हेतु अभ्यास से महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है क्योंकि सभी आचार्यों को काव्यहेतु अभ्यास को क्रियान्वित करने के लिए काव्यज्ञ की शिक्षा की अपेक्षा मान्य है। काव्यज्ञ गुरू की सहायता एवं उसकी शिक्षा को काव्यनिर्माण के लिए आवश्यक मानने वाले आचार्यो में दण्डी, वामन, रूद्रट, राजशेखर, हेमचन्द्र, वाग्भट्, महिमभट्, मम्मट, विद्याधर, पण्डितराज जगन्नाथ आदि का नामोल्लेख किया जा सकता है। काव्यनिर्माण के लिए काव्यज्ञाता की उपासना को आचार्य भामह ने आवश्यक माना है। इसका तात्पर्य काव्यज्ञ की शिक्षा एवं उसके द्वारा प्राप्त निर्देशों से अभ्यास करने से ही है। आचार्य क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रन्थ में वर्णित कवि के ज्ञान और अभ्यास रूप द्वितीय विकासक्रम को शिक्षा नाम दिया है। अभ्यासी कवि के लिए काव्यज्ञ गुरू की सहायता एवं उसका उपदेश उन्होंने भी आवश्यक माना है-शुष्क वैयाकरण या नीरस नैयायिक को गुरू बनाना
1 शब्दाभिधेये विज्ञाय कृत्वा तद्विदपासनम् विलोक्यान्यनिबन्धांश्च कार्य: काव्यक्रियादरः (1/10)काव्यालङ्कार (भामह)