Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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उदबुद्ध प्रज्ञा को आचार्य महिमभट्ट प्रतिभा कहते हैं ।। यह प्रतिभा भगवान् का तृतीय नेत्र है, जिससे तीनों लोकों के भाव साक्षात् हो जाते हैं, प्रतिभा द्वारा निबद्ध अप्रत्यक्ष अर्थ भी साक्षात् से प्रतीत होते हैं।
पण्डितराज जगन्नाथ की प्रतिभा के स्वरूप की सम्बद्धता काव्यरचना के अनुकूल पद तथा पदार्थ की शीघ्र उपस्थिति कराने वाली बुद्धि से है ।2 आचार्य वाग्भट का विचार है कि अक्लिष्ट पदों तथा अभिनव उक्तियों के उद्बोध में समर्थ उत्तम कवि की सर्वव्यापिनी बुद्धि ही प्रतिभा है ३ काव्य अथवा
कला के निर्माण में प्रतिभा ही समर्थ है, यह प्रतिभा नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा है। प्रतिभा के प्रभाव से
ही क्रान्तिदर्शी कवि भूत, भविष्य तथा वर्तमान् को मानों प्रत्यक्ष देखते और वर्णन करते हैं। अव्यक्त रूप वस्तुओं के दर्शन में तथा मनोहारी वर्णन में प्रतिभा ही नियोजित करती है। आचार्य केशवमिश्र की प्रतिभा पूर्वजन्म के संस्कार रूप में प्राप्त पुण्य अथवा शक्ति ही है।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि काव्यशास्त्र के अधिकांश आचार्यों की दृष्टि में शक्ति तथा प्रतिभा दो भिन्न वस्तुओं की बोधक नहीं हैं, किन्तु आचार्य राजशेखर शक्ति एवम् प्रतिभा को पूर्णतः भिन्न मानते हैं 5 आचार्य राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' में केवल प्रतिभा का स्वरूप ही स्पष्ट किया है, शक्ति का
नहीं।
जब शक्ति का प्रतिभा से पृथक् रूप में स्वरूप स्पष्ट नहीं है तब शक्ति और प्रतिभा का पार्थक्य केवल एक ही वस्तु की दो भिन्न स्थितियों के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। आचार्य
1. रसानुगुणशब्दार्थचिन्तास्तिमितचेतसः क्षणं स्वरूपस्पर्शोत्था प्रजैव प्रतिभा कवेः। (117) सा हि चक्षुर्भगवतस्तृतीयमिति गीयते येन साक्षात्करोत्येष भावांस्त्रैलोक्यवर्तिनः।। (118)
___व्यक्ति विवेक (महिमभट्ट) द्वितीय विमर्श 2 तस्य च कारणं कविगता केवला प्रतिभा सा च काव्यघटनानुकूलशब्दार्थोपस्थितिः॥
प्रथमानन
रसगङ्गाधर (पण्डितराज जगन्नाथ) 3 प्रसन्नपदनव्यार्थयुक्त्युदबोधविधायिनी स्फुरन्ती सत्कवेर्बुद्धिः प्रतिभा सर्वतोमुखी। 4 । .........सर्वतो मुखं यस्याः सा तथा सर्वव्यापिनी सर्वाङ्गीणा चेत्यर्थः। एवं विधोत्तमकवेर्बुद्धिः प्रतिभा उच्यते।
वाग्भटालङ्कार (वाग्भट) (प्रथम परिच्छेद) 4. शक्तिः पुण्यविशेषः । स एव प्रतिभेत्युच्यते॥
अलङ्कारशेखर (केशवमिश्र) (प्रथम मरीचि) 5 समाधिरान्तरः प्रयत्नो बाह्यस्त्वभ्यासः तावुभावपि शक्तिमुद्भासयतः। 'सा केवलम् काव्ये हेतुः' इति यायाक्रीयः। विप्रसृतिश्च सा प्रतिभाव्यत्पुत्तिभ्याम्।
चतुर्थ अध्याय काव्यमीमांसा - (राजशेखर)