Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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प्रतिभागुण हो तो ध्वनि और गुणीभृतव्यङ्गय का आश्रय लेने से काव्यार्थों की समाप्ति नहीं हो सकती, उसे असंख्य काव्यार्थ प्राप्त हो ही जाते हैं । आचार्य आनन्दवर्धन के अनुसार प्राक्तन जन्म के पुण्य अर्थात् संस्कार तथा अभ्यास के परिपाक से काव्यरचना में प्रवृत्त कवि के मानस में सरस्वती अभिमत अर्थ का आविर्भाव स्वयं करा देती है। पूर्वजन्म का संस्काररूप प्रतिभा तथा इस जन्म में अभ्यास का परिपाक कवियों को शब्दों और अर्थों के अन्वेषण में प्रयत्नशील नहीं रहने देता। सरस्वती द्वारा शब्द और अर्थ उनके मानस में स्वयं उबुद्ध होते हैं, यही महाकवियों का महाकवित्व है ।2 आचार्य आनन्दवर्धन द्वारा वर्णित इन सभी स्थलों में प्रतिभा तथा शक्ति दो भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं। आचार्य राजशेखर ने भी आचार्य आनन्दवर्धन के द्वारा प्रयुक्त 'शक्ति' शब्द के लिए कहा है कि 'शक्ति' शब्द लक्षणा से प्रतिभा के लिए ही प्रयुक्त है।
आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार प्रतिभा वाग्देवता के अनुग्रह से कवि के हृदय में उत्पन्न विचित्र अपूर्व अर्थ के निर्माण की शक्तिरूप है।4 कवि के हृदय में परिस्फुरित अभिधेय को उन्ही के विशेष प्रतिपादन में समर्थ अभिधान द्वारा कथन प्रतिभा के वैशिष्ट्य के रूप में आचार्य कुन्तक द्वारा स्वीकार किया गया है 5 रस के अनुकूल शब्द, अर्थ के लिए चिन्तित कवि की क्षणमात्र में स्वरूप के स्पर्श से
1. ध्वनेरित्थं गुणीभूतव्यङ्ग्यस्य च समाश्रयात् न काव्यार्थविरामोऽस्ति यदि स्यात्प्रतिभागुणः ।6।
ध्वन्यालोक - (आनन्दवर्धन) चतुर्थ उद्योत 2 सरस्वती स्वादु तदर्थवस्तु निष्यन्दमाना महतां कवीनाम्। अलोकसामान्यमभिव्यनक्ति प्रतिस्फुरन्तं प्रतिभाविशेषम् ।7।
ध्वन्यालोक - (प्रथम उद्योत) 3 'शक्तिशब्दश्चायमुपचरितः प्रतिभाने वर्तते'
(काव्यमीमांसा - पञ्चम अध्याय) 4. न कवेरपि स्वहृदयायतनसततोदितप्रतिभाभिधानपरवाग्देवतानुग्रहोत्थितविचित्रापूर्वार्थनिर्माणशक्तिशालिनः प्रजापतेरिव कामजनितजगतः
(प्रथम अध्याय)
अभिनव भारती (अभिनव गुप्त) 5. शब्दो विवक्षितार्थंकवाचकोऽन्येषु सत्स्वपि अर्थः सहृदयाहृलादकारिस्वस्पन्दसुन्दरः 19।
कविविवक्षितविशेषाभिधानक्षमत्वमेव वाचकत्वलक्षणम्। यस्मात् प्रतिभायां तत्कालोल्लिखितेन केनचित्परिस्पन्देन परिस्फुरन्तः पदार्था: प्रकृतप्रस्तावसमुचितेन के नचिदुत्कर्षेण वा समाच्छादितस्वभावाः सन्तो विवक्षाविधेयत्वेनाभिधेयतापदवीमवतरन्तस्तथाविधवशेषप्रतिपादनसमर्थेनाभिधानेनाभिधीयमानाश्चेतनचमत्कारितामापद्यन्ते।
प्रथम उन्मेष वक्रोक्तिजीवित - (कुन्तक)