Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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अव्यवस्थित सा रहा होगा। वस्तुतः पूर्व देश की समस्त वेष रचना अव्यवस्थित तथा सतर्कता से रहित
प्रतीत होती है।
मध्यदेश या पाञ्चाल देश की पाञ्चालमध्यमा प्रवृत्ति :
इस वेष विन्यास में स्त्रियाँ कमर से घुटनों तक लहराते घाघरे पहनती थीं। कपोल तक लम्बे कर्णाभरण तथा नाभि तक लटकते मुक्ताहार स्त्रियों को विशेष रूप से प्रिय थे, किन्तु पुरुषों के वेष में परिवर्तन न होने का संकेत काव्य पुरुष की स्थिति से मिलता है।2
दक्षिण देश की दाक्षिणात्या प्रवृत्ति :
इस वेष रचना में स्त्रियाँ भुजाओं के नीचे से कसकर साड़ियाँ बाँधती थीं। सुन्दर केश बन्धन तथा धुंघराली लटों से ललित ललाट इस वेष के वैशिष्ट्य थे। यदि काव्यपुरुष को पुरुष का प्रतीक स्वीकार करें तो सरसहृदय काव्यपुरुप दक्षिण देश के तत्कालीन पुरुषों के सुन्दर, व्यवस्थित वेप विन्यास की सूचना देता हुआ परिलक्षित होगा ३
नवीन कवियों को पात्रों की वेषभूषा से सम्बद्ध कुछ अन्य सूचनाएँ भी काव्यमीमांसा से प्राप्त होती हैं, जो इस ग्रन्थ का अपना ही वैशिष्ट्य है। देश अनन्त होने पर भी कवि को प्रवृत्ति, वृत्ति के सम्बन्ध में उनका चार ही विभाग करना चाहिए। चक्रवर्तिक्षेत्र ही चार भागों में विभक्त है। अपने देश की
1 'आर्द्राद्रचन्दनकुचार्पितसूत्रहार: सीमन्तचुम्बिसिचयः स्फुटबाहुमूलः दूर्वाप्रकाण्डरुचिरास्वगुरुपभोगाद् गौडाङ्गनासु
चिरमेष चकास्तु वेषः'
"यदृच्छयाऽपि यादृड्नेपथ्यः स सारस्वतेय आसीत्--------' काव्यमीमांसा - (तृतीय अध्याय) 2 'ताडङ्कवल्गनतरङ्गितगण्डलेखमानाभिलम्बिदरदोलिततारहारम्। आश्रोणिगुल्फपरिमण्डलितान्तरीयम् वेषं नमस्यत
महोदयसुन्दरीणाम्' 'किञ्चिदार्द्रितमना यन्नेपथ्यः स सारस्वतेय आसीत्--------'
काव्यमीमांसा - (तृतीय अध्याय) 3. 'आमूलतो वलितकुन्तलचारुचूडश्चूर्णालकप्रचयलाञ्छितभालभागः।
कक्षानिवेशनिबिडीकृतनीविरेष वेषश्चिरं जयति केरलकामिनीनाम्' 'तामनुरक्तमनाः स यन्नेपथ्यः सारस्वतेय आसीद-------
काव्यमीमांसा - (तृतीय अध्याय)