Book Title: Acharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Author(s): Kiran Srivastav
Publisher: Ilahabad University
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साहित्यविद्यावधू के प्रति पूर्णत: आकृष्ट, सरसहृदय काव्यपुरुष से सम्बन्ध इन विभिन्न वृत्तियों का पृथक्-पृथक् भावनाओं की अभिव्यक्ति वाले रसों से सम्पृक्त होना स्पष्ट करता है।
प्रवृत्ति :
प्रवृत्ति भिन्न देशों की वेष रचना के वर्णन से सम्बद्ध होने के कारण दृश्यकाव्य अथवा नाट्य का परमोपयोगी तत्व है। सभी काव्यों का उद्देश्य दर्शकों तथा श्रोताओं के हृदय में रसोन्मीलन करना ही है | अतः दृश्यकाव्यों में पात्रों के देश के अनुकूल ही उनका वेष दिखलाना उचित है। अनुचित वेप पा तथा अनुचित मञ्च रचना दृश्य काव्य के दर्शकों के लिए रस प्रतीति में बाधक बन जाती है। नाट्य में वेष रचना के औचित्य की अनिवार्यता के कारण भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में प्रवृत्ति का विस्तृत विवेचन प्राप्त हुआ, किन्तु काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में प्रवृत्ति का उल्लेख काव्यमीमांसा में ही प्राप्त होता है, इसका कारण यही है कि कवि शिक्षक के रूप में प्रतिष्ठित आचार्य राजशेखर कवियों को विभिन्न देशों की वेष रचना से परिचित कराने के अभिलाषी थे। उनका प्रवृत्ति विवेचन नाट्य शास्त्र पर ही पूर्णतः आधारित है। विभिन्न प्रान्तीय द्वेष भूषाओं के समग्र निर्देश हेतु भरत ने चार प्रकार की प्रवृत्तियों को स्वीकार किया है 3 नाट्य शास्त्र में पूर्व देश की औड्रमागधी प्रवृत्ति, पाञ्चाल देश की पाञ्चाल मध्यमा, अवन्ति देश की आवन्ती तथा दक्षिण देश की दक्षिणात्या प्रवृत्ति का उल्लेख है। काव्यमीमांसा में भी इन देशों की यही
1. यदृच्छयापि यादृड्नेपथ्यः स सारस्वतेय आसीत्-
यदपरं नृत्तवाद्यादिकमेषा चक्रे सा भारती वृत्तिः
किञ्चिदाद्रितमना यन्नेपथ्यः स सारस्वतेय आसीदिति-
दर्शयाम्बभूव सा सात्त्वती वृत्ति: ।-
तामनुरक्तमना: स यन्नेपथ्यः सारस्वतेय आसीदिति सा कैशिकी वृत्ति: '
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सापि यदीषन्नृत्तगीतवाद्यविलासादिकं
सापि यद्विचित्रनृतगीतवाद्यविलासादिकमाविर्भावयामास काव्यमीमांसा (तृतीय अध्याय) नाट्यशास्त्र (त्रयोदश अध्याय)
2. 'पृथिव्यां नानादेशवेषभाषाचारवार्ता : ख्यापयतीति प्रवृत्ति: '
3 चतुर्विधा प्रवृत्तिश्व प्रोक्ता नाट्यप्रयोक्तृभिः आवन्ती दाक्षिणात्या च पाञ्चाली मागधी 37
(नाट्यशास्त्र - त्रयोदश अध्याय)