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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैन गीता
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सम्मत्पर्य / समीक्षा हेतु / भेंट रतनचंदभाज्य
प्रकाशक / सम्पादक
रचयिता श्री १०८ प्राचार्य विद्यासागर जी महाराज
प्रकाशक
श्री रतनचंद जी भायजी दमोह (म. प्र. )
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मनोभावनाप्राचार्य श्री विद्यासागर जो
समाधानश्री विनोबा जी, पवनार ( वर्धा )
श्रद्धासुमनमिघई गलावचद, दमोह
प्रकाशकरतनचद जी भायजी, दमोह (म. प्र.)
संस्करणप्रथम १०००, अप्रेल १९७०
महेन्द्र प्रिन्टर्स सराफा, जबलपुर फोन : २०२६७
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सम्मत् । समीक्षा हेतु / मेंट
प्रकाशक / सम्पादक
मनोभावना
. विगत वीस मास पूर्व की बात है, राजस्थान स्थित अतिशय क्षेत्र : महावीर जी में महावीर जयन्ती के अवसर पर मसंघ में उपस्थित था। उस समय ममण मुत्तम का, जो मर्व मेवा संघ वाराणसी में प्रकाशित है, विमोचन हुमा । यह एक सर्व मान्य मंकलिन ग्रन्थ है । इसके गंकलनकर्ता जिनेन्द्र वर्णी जी स्व. गणेदाप्रमाद जी वर्णी के अनन्य शिष्यों में एक हैं। प्रापन जैन सिद्धान्त का प्रवन का करके यह नव गीता ममाज के मामने प्रस्तुत किया है । प्रापका यह कार्य प्रेरणाप्रद एवं स्तुत्य ।
इम ग्रन्थ में चारों अनुयोगों के विषय यथास्थान चित्रित हैं । अध्यात्मग्म में प्रोत-प्रोत ग्रन्थ राज ममयमार, प्रवचन मार, नियममार, अष्टाणि पंचास्तिकाय. द्रव्य मग्रह, गोमटमार आदि ग्रन्थों की गाथाये इममे प्रवर रूप मे मकलित हैं। यह ग्रन्थ आद्योपान्त प्राकृत गाथाम्रो से मपादिन हे। पं० कलागचन्द जी मिद्धान्ताचार्य ने हम ग्रन्थ का मंक्षेप विन्तु मून्दर गद्यानुवाद किया है। जो जन प्राकृत भाषा मे अनभिज्ञ हैं उन्हें या ग्रन्थ गत विषय को समझने में सम्पूर्ण महायक है।
ममणसूनम के मूल प्रेरणा-स्रोत समाज मेवी मर्व मेवा-मंघ के निर्माता विबा जी ( बाबा ) हैं। पच्चीमवां वीर निर्वाण महात्मव के उपलक्ष में जैन समाज में प्रापने मांग की थी। यद्यपि जन माहित्य विपूल मात्रा में है नथापि उममे मब लोग लाभ नही पा रहे हैं। अतः ममाज के मम्मुख एक मी कृति प्रस्तुत की जाय कि जिममे जैनतर भी जैन दर्शन मे मान्माननि कर सके। वह कार्य प्राज मानद सम्पन्न हुआ।
मन में वहत काल में करवटें ले रहा था कि एक ऐसा काव्य ग्रन्थ का निर्माण किया जाय कि पाबाल, वृद्ध उस ग्रन्थ के मंगीत के माध्यम से अल्प काल में ही पढ़कर जैन दर्शन की उपयोगिता एवं ध्रुव विन्दु के सम्बन्ध में परिचय प्राप्त कर सकें और जीवन को समुन्नत बनाम। किन्तु काल-लब्धि के बिना भी कोई कार्य नही हो मकना और पुरुषार्थ से मुख मोडकर काल लम्धि की प्रतीक्षा करने मे भी काल-लब्धि नहीं प्रा सकती है। इसी बीच बनारम के दो पत्रों के माध्यम से समणमुत्तम के
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पद्यानुवाद के लिए प्रेरणा प्राप्त हुई । एक पत्र था श्रीमान् पं० जमनालाल जी शास्त्री का एवं दूमग था श्री कृष्णगज मेहता जी का।
शुभम्य शीघ्र इस मूनि को चरितार्थ करते हुये गुरु स्मृति के साथ प्रन्य का पद्यानुवाद प्रारम्भ किया । तीन चार स्थलो मे गाथागत रहस्य को समझने में पंडित केलागचन्द जी कृत गद्यानुवाद ने दीपक का काम किया है। किन्तु यह अनुमान नहीं था कि अनुवाद (पद्यानुवाद) इतने अल्प काल में सम्पन्न होगा। पद्यानुवाद में केवल माढे मात माम लगे पौर मिदक्षत्र कुण्डनगिरि पर मानन्द सम्पन्न हुअा जो पाठको के सम्मुख जन गीता के रूप में प्रस्तुत है।
जन यह प्राज तक कई श्रीमानो, धीमानो एव मनो की दष्टि मे भी जाति गचक ही रहा है जबकि वह उम महज अजर अमर अमूर्त प्रात्मा की प्रोर मुमुक्षुत्रों को प्राकृष्ट करता है । विषय कपायो में ऊपर उठाकर उन्हें परम शानि पथ का प्रदर्शन करना है। जैन गन्द की उत्पत्ति इम प्रकार है । जर्यान स्वकी यानि टन्द्रियाणि पात्मन म जिन जिन एव जैन इनि । जो महापुरप अपनी टन्द्रियों एवं प्रात्मा को पूर्णअपेण जीनता है, उन्ह कुमाग में बचाना है वह जिन है, जिन ही जैन है. जन का गी अर्थात् वाणी और उस गी का भाव या मार के अर्थ में ना प्रत्यय का प्रयोग करने में गीता शब्द की निप्पनि होती है। प्रत यह मुस्पष्ट हमा कि उन जिनेन्द्र भगवान की वाणी के मार का नाम ही जैन गीना मिद है।
पौदगलिक परति रूप गन्दी में ही न उलझकर शब्दावबांध में प्रर्थात बोध एव प्रविधि मे उम परम केन्द्र बिन्दु का भी भवगम प्राप्त कर उस तक जाने का माधको वो मनन् प्रयाम करने रहना चाहिये । इमी उद्देश्य को अपनी दृष्टि में रखकर माधना पथारूढ माधको मतो ने
पर कल्याण हेतु मिन मिष्ट वचनों में हमे उम महज चेतनाभाव सत्ता
उपदेश दिया है और प्राजीवन उस परम सत्ता का मनन मथन कर नवनीत के रूप मे विपुल माहित्य का निर्माण किया है।
झर झर करता झरना, कहना चल चल चलना । उस सत्ता से मिलना, पुनि पुनि पडे न चलना ।।
लखना तज कर लिखना सहज शुद्धात्मा को प्रभीष्ट नहीं था तथापि चिरानुभूत संकल्प-विकल्प के संस्कार ने चंचल मन को लिखने के
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( ५ )
विकल्प की प्रोर आकृष्ट किया, फलस्वरूप श्राभ्यान्तर परणति छूटी प्रोर वहि: पति प्रवाहित हुई । क्षद्मवस्था का मनोबल इतना निर्बल है कि वह अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त अपने चंचल स्वभाव का परिचय दिये बिना नहीं रहता। इसी से मन ने प्रस्तुत कृति लिखने का विकल्प किया, यह भी समयोचित ही हुआ । आगम उल्लेख है कि विषय कपाय रूप अशुभ उपयोग से बचने के लिये सहज स्वभाव रूप शुद्धोपयोग की उपलब्धि के लिये तत् माधनभून शुभोपयोग का प्रालंबन लेना मुनियों सतपथ साधकों एवं मतों के लिये भी सामयिक उपादेय है ही । ग्रतः मनोभावना यही है कि प्रध्यात्मरस से परिपूरित इस कृति का मनोयोग से प्रास्वादन कर भव्य पाठक परम वृत्ति का अनुभव करे !
ममता अरुणिमा बढी,
उन्नत शिवर पर चढ़ी !
निज दृष्टि निज में गढी, धन्यतम है यह घड़ी ।
यह सब स्व वयोवृद्ध तपोवृद्ध एवं ज्ञान वृद्धाचार्य गुरु श्री ज्ञानसागर महाराज जी के प्रसाद का परिणाम है कि परोक्ष रूप से उन्ही के प्रभय चिन्ह चिन्हित कर-कमलों में जैन गीता का समर्पण करता हुआ"
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गुरु चरणारविंदचंचरीक ॐ शुधान्मने नमः
ॐ निरंजनाय नमः
ॐ श्री जिनाय नमः
ॐ निजाय नमः
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सभाधान
( विनोबा)
मेरे जीवन में मुझे अनेक ममाधान प्राप्त हए है। उममें ग्राग्विरी, अन्तिम ममाधान, जो गायद मानम ममाधान है, इमी माल प्राप्त हुआ। मैंने कई दफा जनो में प्रार्थना की थी कि जैसे वैदिक धर्म का मार गीता में मात मी प्लोकी में मिल गया है, बौद्धो का धम्मपद में मिल गया है, जिमकं कारण ढाई हजार माल के बाद भी वृद्ध का धर्म लोगो को मालम होता है, वैसे जैनो का होना चाहिए। यह जनो के लिए मुश्किल बात थी, इसलिए कि उनके अनेक पन्य है पोर प्रन्थ भी अनेक हैं। जमे बाइबिल है या कुरमान है, कितना भी बडा हो, एक ही हैं। लेकिन जैनों में श्वेताम्बर, दिगम्बर ये दो है, उसके अलावा तेगपन्थी, स्थानकवासी
मे चार मुख्य पन्थ तथा दूसरे भी पन्थ है । और ग्रन्थ नो वीम-पच्चीस है। मैं बार-बार उनका कहना रहा पिपाप मब लोग, मुनिजन, इकट्ठा होकर पर्चा कगं पोर जैनो का एक उनम, मर्वमान्य धर्ममार पंग करो। प्राबिर वर्णीजी नाम का एक बेवफ." निकला और बाबा की बात उमको जंच गयी। वे अध्ययनशील है. उन्होंने बहुत मंहनन कर जैन परिभाषा का एक कोश भी लिम्बा है। उन्होंने जैन धर्ममार नाम की एक किताब प्रकाशित की, उमकी हजार प्रतिया निकाली पोर जैन ममाज में विद्वानो के पाम और जन ममाज के बाहर के विद्वानो के पास भी भेज दी। विद्वानों के मुझावों पर में कुछ गाथाएं हटाना. कुछ जोडना, यह माग करके जिणधम्म किताब प्रकाशित की। फिर उम पर चर्चा करने के लिए बाबा के प्राग्रह मे एक मगीनि बैठी. उममे मुनि, प्राचार्य पोर मरे विद्वान, श्रावक मिलकर लगभग तीन मौ लोग इकट्ठे हु ! । बार-बार चर्चा करके फिर उसका नाम भी बदला. म्प भी बदला. प्राम्विर मर्वानुमति से श्रमण-सूक्तम-जिमे अर्धमागधी में “ममणमुत्त" कहते है, बना। उममे ७५६ गायाएं है। का प्रोकडा जनो को बहुत प्रिय है। ७ ओर १०८ को गुणा करो तो ७५६ बनता है। सर्वसम्मनि मे इतनी गाथाएं ली। पौर तय किया कि मंत्र शुक्ल त्रयोदशी को वधंमान-जयन्ती प्रायेगी, ज. इम साल २४ अप्रैल को पडती है, उम दिन वह अन्य प्रत्यन्त गुद्ध रीति से प्रकाशित किया जायगा । जयन्ती के दिन जैन धर्म-सार, जिमका नाम
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"समणसुत्तं" है, सारे भारत को मिलेगा पोर प्रागे के लिए जब तक जैन, उनके धर्म वैदिक, बौद्ध इत्यादि जीवित रहेंगे तब तक "जैन-धर्म-मार" पढ़ते रहेंगे। एक बहुत बड़ा कार्य हना है, जो हजार, पन्द्रह सौ माल में हुमा नहीं था। उसका निमित्तमात्र बाबा बना, लेकिन बाबा को पूरा विश्वास है कि यह भगवान महावीर की कृपा है।
मैं कबूल करता हूँ कि मुझ पर गीता का गहाग अमर है। जम गीता को छोडकर महावीर मे बढकर किसी का प्रसर मेरे चित्त पर नहीं है। उसका कारण यह है, कि महावीर ने जो प्राज्ञा दी है वह बाबा को पूर्ण मान्य है। प्राशा यह कि सत्याग्रही बनो। प्राज जहाँ जहाँ जो उठा सो सत्याग्रही होता है। बाबा को भी व्यक्तिगत मत्याग्रही के नाते गांधी जी ने पेश किया था, लेकिन बाबा जानता था वह कौन है, वह सत्यागही नही, सत्यग्राही है। हर मानव के पास मत्य का प्रण होता है, इसलिए मानव-जन्म मार्थक होता है। तो सब धमों मे, मब पन्थो में, सब मानवो में मत्य का जो प्रग है, उसको ग्रहण करना चाहिए। हमको मत्याग्रही बनना चाहिए, यह जो शिक्षा है महावीर की, बाबा पर गीता के बाद उमी का प्रमर है। गीता के बाद कहा, लेकिन जब दखता है ता मुझे दानों में फरक ही नहीं दीखता है ।
वद्य-विद्या मन्दिर पवनार (वर्धा) २५-१२-७४
गम हार गम हार
गम हरि हस्ताक्षर श्री विनोबा जी
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श्री
श्रद्धा सुमन जैन गीता के रचयिता
कर्नाटक प्रान्त के जिला बेलगांव में जैन धर्मानुयायी श्री मल्लप्पा जी की धर्मपन्नी श्रीमती की कव में जन्मे श्री विद्याधर जी जो कि दिगम्बर दीक्षा लकर १०८ प्राचाय श्री विद्यामागर जी के नाम में इस समय भारत देश में यथानाम तथा गुण में प्रमिद्ध है इस ग्रन्थ के कर्ता है ।
प्रापका जन्म ग्राम सदनगा में वि म. २००३ आश्विन शुक्ला पूर्णिमा की माता श्रीमती जी में हुअा था। पाप अपने चार भाइयो सहित अपने घर में रहते थे। प्राप जब 9 वर्ष के थे, उमी ममम में प्रापके मन में मनुष्य भव माथंक करने की उत्कट अभिलाषा थी, जिसके प्रतिफल में प्राचार्य शानिमागर जी के पास जाकर प्रापन उनके उपदेशामृत का पान किया प्रोर प्रान्म हित करने घर वालो में बिना पूछे घर छोड़कर चल दिये । गजस्थान में जयपुर नगर में प्राचार्य देगभूपण महागज का ममागम हो गया पोर मापने उनमे प्राजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया।
गजम्मान का भ्रमण करते-करते अजमेर में प्राचार्य श्री ज्ञानसागर जी महागज के दर्शन हुये पोर प्राप उनके ममागम में रहने लगे । प्राचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के पाम रहकर प्रापने जैन ग्रन्थी, काव्य प्रन्यो एवं न्याय ग्रन्यो का भी अध्ययन किया । प्रापकी विद्याध्यन करने की लगन, बुद्धि एव प्रतिभा में प्रभावित होकर तथा प्रापकी वीतराग परणनि को देवकर, प्राचार्य श्री ज्ञान श्री ज्ञानमागर जी महागज ने अजमेर मे दिनांक ३० जून १६६८ को प्रापको ब्रह्मचारी पद में सीधी मुनि दीक्षा प्रदान की। मुनि दीक्षा के समय मापकी प्रायु केवल २ वर्ष की थी।
अनुकरणीय :
पारका पूग परिवार एक भाई को छोडकर मभी लोग माता जी, पिताजी तथा दो भाई एव दो बहिने मोक्ष मार्ग पर चल रही है। दो भाई
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श्री १०५ पलक योग सागर जी एवं श्री १०५ क्षुल्लक समय सागर जी आपके ही मंघ में आत्म साधना में रत हैं तथा माताजी, पिताजी एवं दोनों बहिन श्री १०८ प्राचार्य धर्मसागर जी के संघ में प्रात्म कल्याण कर रहे हैं।
आपकी मातृभाषा कन्नड है फिर भी बहुत ही अल्प समय में (सिर्फ पाँच वर्ष में) अापने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी एवं प्राकृत भाषा पर अपना पूर्ण अधिकार जमा लिया । आज जनता जब आपके हिन्दी मे प्रवचन मुनती है तो दोनों तले अंगुली दबाकर रह जाती है।
मंस्कृत भाषा पर तो प्रापका विलक्षण प्राधिपत्य है। अच्छे-अच्छे व्याकरणाचार्य भी प्रापके मस्कृत ज्ञान को देखकर चकित हो जाते हैं।
आपने अपने अध्ययनकाल में इन भाषामो का अध्ययन करने में उग्र पुरुषार्थ एर कठिन परिश्रम किया है। प्राप चौबीस घंटे में सिर्फ तीन घंटे इस गीर को विश्राम देते थे और इक्कीम घटे निरन्तर विद्याध्ययन में लगे रहने धे। जिमको देखकर प्राचार्य श्री ज्ञानमागर जी भी प्रापको बार-बार रोकने थे कि इतना परिश्रम करना ठीक नहीं है, परन्तु आप अपनी लगन के पक्के थे जिमका प्रतिफल प्राज प्रापके मामने है कि प्राप दम छोटी मी उम्र में ही विद्या के मागर बन गये है और प्रापने बहुत मे ग्रन्थों की रचना की है व कतिपय ग्रन्थों के अनुवाद भी किये है।
प्रापन मस्कृत भाषा में 'श्रमण शतकम', 'निरन्जन शतकम', "भावना शतक' प्रादि तथा हिन्दी में निजानुभव शतक', 'योग सार', 'मधिनत्र', 'इष्टोपदेश', 'एकीभाव स्तोत्र' प्रादि ग्रन्थो की पद्य में रचना की 7. अनुवाद किया । 'श्रमण मुनम' का हिन्दी अनुवाद प्राचार्य श्री ने जैन गीता के नाम में किया जो कि अापके हाथ में है । यह ग्रन्थ कुडलपुर में मन् १६७६ के चातुर्माम में पूर्ण हुमा एवं सन् १६७७ के चातुर्माम में ममयमार की गाथाम्रो का हिन्दी अनुवाद पूर्ण हुप्रा । इस समय समयसार कलश का हिन्दी अनुवाद ममाप्त होने जा रहा है। दोनों ग्रन्थ प्रापके पान्म-हिन करने में सहायक होने के लिए शीघ्रातिशीघ्र प्रापके पास पाने वाले है ।
इन सभी ग्रन्थो में आपकी प्रान्मानुभूति के साथ वीतरागता में नन्मय चिन्तन शंली की झलक अतिशयता में प्राप्त होगी। प्रत्येक छंद में गतरागता से प्रोत-प्रोन तथा निर्दोष काव्य के भी अपूर्व दर्शन होंगे।
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पर में लिखने का एक ही कारण प्राचार्य श्री बनलाते हैं कि सभी पाठकगण छंद को हमेशा गुनगुना सकते हैं प्रोर याद भी कर सकते हैं। पाप भी जब अपने मुंह मे इन छंदों को बोलते हैं तो मुनकर के श्रीनागण गदगद हो जाते हैं । मभी ग्रन्थों में दिये गये उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि प्रापकी चिन्तन शैली विलक्षण है । प्राजकल भी प्राप स्वयं एवं प्रापक मंघ के एलक भुल्लकगण भी अपना अमूल्य समय ज्ञानाराधन में लगाते हैं। एक क्षण भी व्यथं नहीं जाने देने । एक बार हमने कहा कि पाप लांग नी जरूरत से ज्यादा इस गरीर में कार्य लेने हैं, इसको पारा विश्राम भी नहीं देने, ना प्राचार्य श्री बोले कि एक मेकन्ड भी यदि प्रमाद करे ना हमारी कई वर्षों की नपस्या नष्ट हो जाती है। इमनिय प्राप अपने उपयोग की पढाई में, शास्त्र लिम्बने में नथा नत्व चर्चा में ही लगाये रहते है । विशेष बात यह है कि प्राप श्रावको में मात्र तन्व पाही करते हैं, अन्य कोई बात नहीं करते।
प्राचार्य श्री की विशेषता है कि किमी भी प्रकार की नत्व चर्चा ही पाप हमेगा प्रमन्न मुद्रा में ही चर्चा करते है, कभी भी प्रापकी मुद्रा मैं म्लानता नहीं पाती । म समय की प्रचलित विवादग्रस्त मान्यतानी जमे निश्चय म्यवहार, निमित्त उपादान, क्रमबद्ध पर्याय, दीनगग मम्यग्दर्शन, सगग मम्यग्दर्शन, निश्चय चारित्र, शुद्धापयोग, शुभापयोग, स्वरूपाचरण, चारित्र का प्रामगनानुन निदोष चिन्तन चिन्हिन ममाधान बहुन ही मग्न अच्छे एव प्रकाट्य उदाहरणों में परिपूर्ण भाषा में करते है कि श्रोता के हृदय में मीधे प्रवेग करके उसका समाधान व ग्ने है। इन मब कारणो मे प्राचार्य विद्यामागर जी को इस युग का ममन्तभद्र कहा जावे ना कोई अनियनि नही होगी।
प्राप चारित्र पालन करने में भी चारित्र न टामणि है । प्राप छनीनछनीम घंटे तक समाधि में लीन रहते हैं। प्राप अपने मुनि दीक्षाकाल मे ही चार रसों का त्याग किये हुए है. मिपं दो रम ( दही, दूध ) के ही पाप लेते है । मापके निर्दोष चारित्र पालन नथा तत्त्वज्ञान एवं प्रवर बुद्धि को देखकर ही प्राचार्य श्री ज्ञानमागर जी महाराज ने स्वयं प्राचार्य पद छोडकर पापको प्राचार्य पद में विभूपित किया। जिनके गम में इतनी विलक्षण विनय-सम्पन्नता हो कि अपने शिष्य को ही प्राचार्य पद देकर उनको नमस्कार किया होवे उनके निप्य की विनय-मम्पन्नता भी अपूर्व ही
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( ११ ) है। भाप संघस्थ साधुनों से माचार पालन कराने में भी श्रीफल के समान ऊपर से कठोर कि तु अंतरंण में प्रत्यन्त कोमल हैं। प्राचार्य श्री को अपने गिष्यों की शिक्षा एवं उनके चरित्र पालन कराने प्रादि का भलीभांति ध्यान रहना है । आपने अपने गुरु प्राचार्य श्री ज्ञानसागर महाराज की सल्लेम्वना के समय जो अपूर्व मेवा की उसकी चर्चा सुनते ही प्रांखों में अश्रुधारा प्रवाहित हो जाती है। मापने अपने रचित प्रन्थों में : 'निजानुभव शतक' में प्रात्मानुभव के उपाय, प्रात्मानुभव के वाधक कारणो
का मान एव प्रात्मानुभव का फल । 'निर-जन शनक' में--भगवान भन मोर भक्ति की अपूर्व धाग प्रवाहित
की है जिसमें भन स्वानुभूति के द्वारा भगवान में
प्रभेद हो जाता है और दंत समाप्त हो जाता है। 'भावन शतक' मेमोलह कारण भावनामों का प्रपूर्व चिन्तनपूर्ण
भावों का प्रदर्शन किया है। इन भावनाप्रो के मनन एवं अनुभवन के द्वारा प्रगले भवों में तीर्थकर
प्रकृति का वध हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। प्राचार्य श्री के बारे में जो भी लिखा जावे मूर्य को दीपक दिवाने के ममान हंगा। ग्रापकी प्रनिभा एवं श्रमणोनम वृनि को देखकर श्रावको का मस्तक बरबम प्रापके चरणों में भक जाना है। प्रापके मन में एक ही बान ममायी है कि जिम प्रकार में मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में अग्रमः हो गया हूँ उ मी प्रकार टम मंमार के मनुाय विषय वामना की झठी चका चोप को छोडकर मोक्षमार्ग में लग जावे । "मी आपकी अनुकम्पा युत उत्पट भावना है जिसे देखकर ऐमा लगता है कि ग्राप भी तीर्थकर प्रकृति का वध कर ही लेंगे । प्रापक पीतगगता में प्रोन-प्रांत एव प्रमीम अनुकम्पा मे भरपूर प्रवचन मुनकर प्रत्येक धना को ऐमा लगने लगता है कि यह ममार क्षण-भंगुर एव मारहीन है. इमलिये प्राचार्य श्री के चरणों में रहकर प्रात्म-हित कर लिया जावे ।
अपूर्व अवसर :
यह नो मिद क्षेत्र कुण्डलपुर के बटे बाबा की चुम्बकीय शक्ति ग ही प्रभाव नथा हम लोगों का परम मौभाग्य है कि ऐसे वीनगगी परोपकाने
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( १२ ) प्रात्मानुभवी मंत भ्रमण करने-करते श्री दि० सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर जी में वो बाबा के दर्शनार्थ पाये, मात्र तीर्थ यात्रा करने । परन्तु हम मध्यप्रदेश वालो का मौभाग्य रहा कि बडे बाबा के चरणों में मन् १९७६ एवं मन् १९७७ मे दो चातुर्माम मानन्द बहुन शालीनता के साथ एव अमृतवाणी की वर्षा के साथ सम्पन्न हुए और इन दो वर्षों में वीनगगी मन की वाणी एवं श्रमणोनम चर्या की हजागे, लाग्यो लोगो ने कुण्डलपुर पाकर मुना पौर देखा । इन दिनी में कुण्डलपुर जी में तो चतुर्थकाल का नजाग देखने वनना था । मा लगता था कि प्राचार्य श्री के चरणों में माग जीवन ममाप्त होव और मम्यक्त्व का प्रकार प्राप्त कर हम अपने मनप्य भय का मफल करे । प्राचार्य श्री को चातुर्माम के बहुन निमत्रण पाते रहते हैं। हम फिर भी पाया है कि प्रगना चातुर्माम भीश्री दि० मिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर जी में ही होगा। नभी दगंन ज्ञानचारित्र की एकता में सम्पन्न हम मन के ममागम मे हम लोग पान्म कल्याण के पथ पर और प्राग स माँगे । श्री दि० सिद्ध क्षेत्र कुण्डलपुर जी में हजागे यात्रियों ने पाकर प्राचार्य श्री के प्रवचनों का लाभ लिया है। जिसके कारण ही प्राचार्य श्री जहाँ भी बिहार नग्ने है वहाँ दशनायियों की अपार भीड प्राचार्य श्री के. दगंन करने एव उनके मंह में निकले दा गन्द सुनने को प्राकुलित रहती है।
अन्त में बई बाबा में प्रार्थना है कि प्रापकी भान के प्रभाव मे इम पामर का हृदय इतना निमल ही जावे कि उम हृदय में प्राचार्य श्री के चरण कमल नब तक रहे जब तक हम कीट का उद्धार न हो जावे नपा प्रापकी चुम्बकीय शक्ति का इतना प्रमार होव कि प्राचार्य श्री का बिहार कही भी होवे पग्न्त चातुर्माम हर बार कुण्डलपुर जी मे ही हो ।
इन शब्दों के साथ में इस अनुवाद ग्रन्थ को विद्वानी के हाथो समर्पित करता हूँ। इम भावना में कि इसे पढकर सब लोग प्रात्म-कल्याण के पथ पर अग्रसर होरे पोर ऐमी भावना करता हूँ कि प्राचार्य श्री विद्यामागर जी महाराज बहुत समय नब हमाग पथ प्रदर्शन करते रहे ।
एक चरण सेवक सिंघई गुलावचद
मोह (म.प्र.)
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वर्धमान सरोवर
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श्री दिगम्बर जैन सिद्ध-क्षेत्र कुण्डलपुर जी बमोह (म.प्र)
स्थित जल-मंदिर
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प्राचार्य श्री का माधना स्थल - जहाँ प्राचार्य श्री ने दो वर्षायोग व्यतीत कर अध्यात्म ग्रन्य श्री ममयमार जी कलश का हिन्दी पद्यानवाद किया
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पर्वत क्षेत्र का विहंगम दृश्य दे० जैन 'सद्धक्षेत्र कुण्डलपुर जी,
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सम्मत्पर्य समीक्षा हेतु । भेंट
प्रशाशक / सम्प:::
संघ नमस्कार
ॐ सर्वया ॥ श्री प्राचार्य विद्यासागर जी
चरण जहाज बैठ मुनिवर जी भव समुद्र को तरण चले हैं नगर-नगर से नर नारी जन झुक झुक शीश प्रणाम करे हैं प्रष्ट करम के नाश करन को निज में निज पुरुषार्थ करे हैं ऐमे विद्यासागर मुनि के चरण कमल हम नमन करे हैं
वीना वारहा के गजरथ में बात मर्म की एक कहे हैं इक नदिया के दोय किनारे निश्चय और व्यवहार कहे हैं ऐमी अनुपम वाणी सुनकर जन जन जय-जयकार करे हैं ऐसे विद्या के सागर को बार बार परणाम करे हैं
श्री एलक दर्शन सागर जी एलक दर्शन सागर जी भी दर्श ज्ञान प्रारूढ़ भये हैं द्रव्य करम का उदय देखकर भाव करम कछु नाहि करे हैं संवर सहित निर्जरा करके मुक्ति रमा को वरण चले हैं ऐसे ऐलक जी को लखकर भाव सहित हम नमन करे हैं
श्री एलक योग सागर जी ऐलक योगी सागर जी भी मुद्रा सहज प्रफुल्ल धरे दर्शन ज्ञान चरण पर चलकर रत्नत्रय की ओर बढ़े हैं पाहारों में अन्तराय लख करम निर्जरा सहज करे हैं ऐसे योगीगज को भी हम योग लगाकर नमन करे हैं
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श्री क्षुल्लक नियम सागर जी
भुलक नीयम सागर जी तो नियम पाल तन क्षीण करे हैं काय साथ इनकी नहिं दे रई पुरषारथ ये अधिक करे हैं फिर भी ये माधक बनकर के प्रातम हित के काज लगे हैं ऐसे क्षुलक जी को हम सब शीश नमाकर नमन करे हैं क्षुल्लक गम्मय सागर देखो शिव नगरी की ओर चले हैं समय-ममय की कीमत करके ममय मार की ओर बढ़े हैं समय-ममन पर समय सार लख कर्मन को मंहार करे है गेमे समय सार साधक को मन वचं काया नमन करे है
श्री क्षुल्लक चारित सागर जी क्षुल्लक चारित सागर जी भी चरित धरन की लगन करे है केवल श्रीधर के चरणों में ध्यान लगाकर करम हरे है बड़े बाबा के चरण कमल मे सल्लेखन की चाह करे हैं ऐसे चारित सागर जी को चरित्र हेतु हम नमन करे हैं
समुदाय नमन मंघ सहित ये विचरण करते अात्म साधना करत चले हैं तत्व ज्ञान की चरचा करकर जीवों का अज्ञान हरे है वीतरागता से परि पूरित है वीतराग युत चरण धरे है ऐसे मुनो संघ को महनिश मोक्ष हेतु हम नमन करे है नरियल को झूठा कहके ये श्रीफल को बदनाम करे है नगर-नगर से भव्य जनों को मोक्ष हेतु ये चाह कर है पर कोई भवि मिल जावे तो दीक्षा की ये बात करे हैं ऐसे मुनी संघ को हम सब हाथ जोड नमकार कर हैं
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नमस्कारकर्ता
सिंघई गुलाबचंद, दमोह
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विषयानुक्रमण प्रथम खंड - ज्योतिर्मुख
१. मंगल मूत्र २. जिन गामन मूत्र ३. मंघ मूत्र ४. निम्पण मूत्र ५. मंमार चक्र मूत्र ६. कममूत्र ७. मित्यान्व मूत्र ८. गग परिहार मूत्र ६ धर्म मूत्र १०. मयम मूत्र ११ अपरिग्रह मूत्र १२ अहिमा मूत्र १३. अपमाद मूत्र १४. गिना मूत्र १५. प्रान्म मूत्र
द्वितीय खंड - मोक्ष मार्ग
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१६. मोक्षमार्ग मूत्र १७. रत्नत्रय मूत्र १८. मम्यक्दर्शन मूत्र १६ सम्यक्ज्ञान मूत्र २०. मम्यक्चारित्र मूत्र २१. माधना मूत्र २२. द्विविध धर्म मूत्र २३. श्रावक धर्म मूत्र २४. श्रमण धर्म मूत्र २५. व्रत मूत्र
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२६. ममिति गुप्ति मूत्र २७. पावश्यक मूत्र २८. तप मूत्र २६. ध्यान मूत्र ३०. अनुप्रेक्षा मूत्र २१. लेश्या मत्र ३३. प्रात्म विकाम मात्र : मलखना मत्र
तृतीय खर. तत्व दर्शन
३८. तन्व मृत्र ३५ द्रव्य मात्र ३६. गोष्ट पत्र
चतुर्थ खंड- स्यादवाद
३७. अनेकान मात्र ३८. प्रमाण नत्र ३६. नय मूत्र ४०. स्यादाद मप्तमभी मूत्र ४१. ममन्वय मंत्र ४२. निक्षेप मूत्र ४३. ममापन मत्र ४४. वीर म्तवन
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जैन गीता ( समणसुत्तं का पद्यानुवाद)
१ मङ्गलसूत्र वसन्ततिलकाछन्द
हे ! शान्त सन्त अरहन्त अनन्त ज्ञाता, हे ! शुद्ध बुद्ध जिनसिद्ध प्रबद्ध धाता । प्राचार्यवर्य उवझाय मुसाधु सिन्धु मै बार बार तुम पाद पयोज वंदूं ॥ १।" है मूलमंत्र नवकार मुखी बनाता, जो भी पढ़े विनय मे प्रघको मिटाता । है प्राद्य मंगल यही मब मगलों में, ध्यानो इमे न भटको जग जंगलों में ॥ २ ॥ मर्वजदेव अरहन्त परोपकारी, श्री सिद्ध वन्द्य परमातम निर्विकारी । श्री केवली कथित प्रागम माधु प्यारे, ये चार मंगल, अमंगल को निवारे ।। ३ ।। श्री वीतराग अरहन्त कुकर्मनाशी, श्री सिद्ध शाश्वत सुखी शिवधामवामी । श्री केवली कथिन पागम साधु प्यारे, ये चार उत्तम, अनुनम गेप मारे ।। ४ ।। ये बाल भानु मम हैं अरहन्त म्वामी, लोकाग्र में स्थित मदाशिव सिद्ध नामी । श्री केवली कथित पागम माधु प्यारे, ये चार ही शरण में जगमें हमारे ।। ५ ।।
पचानुवाद
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जो श्रेष्ठ हैं शरण, मंगल कमजेता, पागध्य हैं परम हैं शिवपंथ नेता । हैं वन्द्य खेचर, नरों, अमरों. मुनों के, वे ध्येय पंच गुरु हों हम वालकों के ।। ६ ।।
है घातिकमंदल को जिनने नशाया, विज्ञान पा मुख ज्वलन्त अनन्त पाया । है. भानु भव्यजनकंज विकामते हैं, गुद्धान्म की विजय ही, अरहन्त वे है ।। ७ ॥
कनंव्य था कर लिया कृतकृत्य दृष्टा, हैं मुक्त कम तन मे निज द्रव्य स्रष्टा ! है दूर भी जनन मृत्यु तथा जरा मे, वे सिद्ध मिद्धिमुख दें मुझको जरा मे ॥ ८ ।।
ज्ञानी, गुणी मतमतान्तर ज्ञान धारे, मबाद में महज वाद विवाद टारे । जो पालते परम पंच महाव्रतों को, प्राचार्य वे मुमति दे हम मेवकों को ॥ ९ ॥ मनानरूप तम में भटके फिरे है, ससारिजीव हम है दुख मे घिरे है दो ज्ञान ज्योति उवझाय ! व्यथा हरो ना!! ज्ञानी बनाकर कृतार्थ हमें करो ना !!!॥१०॥ अत्यन्त शान्त विनयी समदृष्टि वाले, गोभे प्रशस्त यश से शशि से उजाले । हैं वीतराग परमोत्तम शीलवाले, वे प्राण डालकर साधु मुझे बचा लें ॥११॥
समणसुतं
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अहंत प्रकाय परमेष्ठि विभूतियो के, प्राचार्यवर्य उवझाय मुनीश्वरों के । जो माद्य वर्ण, प्र, म. मा, उ, म को निकालो, ओंकार पूज्य बनता, क्रमशः मिला लो ॥१२॥
आदीश हैं अजित शंभव मोक्ष धाम, वन्दं गुणोघ अभिनन्दन है ललाम । सद्भाव से सुमति पा सुपार्श्व ध्याऊँ, चन्द्रप्रभू चरण मे चिति ना चलाऊँ ॥१३।। श्री पुष्पदन्त शशि शीतल गील पुंज, श्रेयांस पूज्य जगपूजित वाम पूज्य । प्रादर्श मे विमल, मन्त अनन्त, धर्म, मैं शान्ति को नित नम मिल जाय शर्म ॥१४।।
श्री कुन्थुनाथ अरनाथ मुमल्लि स्वामी, सबोध धाम मुनिमुव्रत विश्व नामी । आराध्य देव नमि और अरिष्ट नेमी, श्री पार्ववीर प्रणम, निज धर्म प्रेमी ॥१५॥
हैं भानु से अधिक भासुर कान्तिवाले, निदोप हैं इसलिए शगिमे निराले । गंभीर नीर निधि मे जिन सिद्ध प्यारे, संसारसागर किनार मुझे उतारें ॥१६॥
पद्यानुवाद
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२ जिनशासन सूत्र हो के विलीन जिसमें मनमोद पाते, हैं भव्य जीव भव वारिधि पार जाते । श्री जैन शासन रहे जयवन्त प्यारा, भाई यही शरण, जीवन है हमारा ॥१७॥ पीयूष है, विषय-सौख्य विरेचना है, पोने मुशीघ्र मिटती चिर वेदना है । भाई जरा मरण रोग विनाशती है, संजीवनी मुखकरी 'जिन भारती" है ॥१८॥ जो भी लम्बा सहज मे परहन्त गाया, सत् शास्त्र बाद, गणनायक ने बनाया । पूजू इसे मिल गया श्रुतबोध मिन्धु, पी, बिन्दु, बिन्दु, दृगबिन्दु समेत वन्दू ॥१९॥ प्यारो जिनेन्द्र मुख से निकली मुवाणी, है दोष को न मिलती जिसमें निशानी । प्रो हो विशुद्ध परमागम है कहाता, देखो वही मब पदार्थ यथार्थ गाथा ॥२०॥ श्रद्धा समेत जिन प्रागम जो निहारें, चारित्र भी तदनुसार सदा मधारे । सक्लेश भाव तज निर्मल भाव धारे, ससारिजीवन परीत बनाय मारे ॥२१॥ हे बीतराग जगदीश कृपा करो तो, हे विज्ञ, ज्ञान मुझ बालक मे भगे तो। होऊं विरक्त तन से शिवमार्गगामी, मैं केवली विमल निर्मल विश्व नामी ॥२२॥
समणसुतं
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है मोज तेज झरता मुख से शशी हैं, गंभीर, धीर, गुण प्रागर हैं वशी हैं । वे ही स्वकीय परकीय सुशास्त्र ज्ञाता, खोलें जिनागम रहस्य सुयोग्य शास्ता ॥२३॥ जो भी हिताहित यहां खुद के लिए हैं, वे ही सदैव समझो पर के लिए हैं । है जैन शासन यही करुणा सिखाता, सत्ता सभी सदृश हैं सबको दिखाता ॥२४॥
पद्यानुवाद
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३ संघसूत्र है शीघ्र से सकल कर्म कलंक घोता, ना दोपधाम वह तो गुण धाम होता। हो एकमेक जिससे दृग बोध वृत्त, जानो सभी सतत "संघ" उसे प्रशस्त ॥२५॥ मम्यक्त्व बोध व्रत को गण नित्य मानो, है गच्छ मोक्ष पथ पे चलना मुजानो । मन् संघ है गुण जहाँ उभरे हुए हैं, शुद्धात्म ही समय है, गुरु गा रहे हैं !!॥२६।। पापो यहाँ प्रभय है भवभोत ! भाई, धोखा नही, न छल, शीतलता सुहाई। माता पिता सब समा नहि भेद नाता, लो सघ की शरण, सत्य अभेद भाता ॥२७॥ सम्यक्त्व में चरित में प्रति प्रौढ़ होते, विज्ञानरूप मर में निज को डुबोते । जो संघ में रह म्वजीवन को बिताते, वे धन्य हैं सफल जीवन को बनाते ॥२८॥ जो भक्ति भाव रखता गुरु में नहीं है, लज्जा न नेह भय भी गुरु से नहीं है । सम्मान गौरव कभी यदि ना करेगा, मो व्यर्थ में गुरुकुली बन क्या करेगा ? ॥२९॥
भाई अलिप्त सहसा विधि नीर मे है, उत्फुल्ल भी जिनप सूर्य प्रकाश से है । सागार भव्य प्रलि प्रा गुण गा रहे हैं, गाते जहाँ प्रगुण केसर पो रहे हैं ॥३०॥
समणमुत्त
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भाती जहाँ वह महाव्रत कणिका है, ना नाप भी श्रुतमयी सुमृणालका है । घेरे हुए श्रमण रूप-सहस्र-पत्र, प्रो "संघ पर" जयवन्त रहे पवित्र ॥३१॥
पद्यानुवाद
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४ निरूपणसूत्र निक्षप और नय, पूर्ण प्रमाण द्वारा, ना अर्थ को समझता यदि जो सुचारा । तो मत्य तथ्य विपरीत प्रतीत होता , होता असत्य सव सत्य, उसे डुबोता ॥३२॥
निक्षेप है वह उपाय सुजानने का , होता वही नय निजाशय ज्ञानियों का। तृ ज्ञान को समझ सत्य प्रमाण भाई , यों युक्ति पूर्वक पदार्थ लखें, भलाई ॥३३।।
दो मूल में नय सुनिश्चय, व्यवहार , विस्तार शेप इनका करता प्रचार । पर्याय द्रव्य नय हैं मय दो नयों में , होते सहायक सुनिश्चय साधने में ॥३४।।
धारे अनन्त गुण यद्यपि द्रव्य सारे , तो भी "सुनिश्चय" अखंड उन्हें निहारे । पं खंड, खड कर द्रव्य प्रखंड को भी , देखें कथंचित यहां "व्यवहार" सो ही ।।३।। विज्ञान प्रो चरित-दर्शन विज्ञ के हैं, जाते कहें, सकल वे व्यवहार से हैं। ज्ञानी परन्तु वह ज्ञायक शुद्ध प्यारा, ऐसा नितान्त नय निश्चय ने निहारा ॥३६॥
है नित्य निश्चय निषेधक, मोक्ष दाता, होता निषिद्ध व्यवहार नही मुहाता । लेते मुनिश्चय नयाश्रय संत योगी, निर्वाण प्राप्त करते, तज भोग भोगी !॥३७॥
समणस्त
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बोलो न प्रांग्ल नर से यदि मांग्ल भाषा, कैसे उसे सदुपदेश मिले प्रकाशा? सत्यार्थ को न व्यवहार बिना बतायाजाता सुबोध शिशु में गुरु से जगाया ॥३८॥
भूतार्थ शुद्ध नय है निज को दिखाता, भूतार्थ है न व्यवहार, हमें भुलाता । भूतार्थ की शरण लेकर जीव होतासम्यक्त्व भूषित वही मन मैल धोता ॥३९।।
जाने नहीं कि वह निश्चय चीज क्या है हैं मानते सकल बाह्य क्रिया वृथा है। वे मूढ़ नित्य रट निश्चय की लगाने चारित्र नष्ट करते, भव को बढ़ाते ॥४०।'
शुद्धात्म में निरत हो जब सन्त त्यागी, जीवे विशुद्ध नय प्राथय ले विरागी । शुद्धात्म से च्युत, सराग चरित्र वाले भूले न लक्ष्य व्यवहार अभी संभाले ॥४१॥ हैं कौन से श्रमण के परिणाम कैमे, कोई पता नहिं बता सकता कि ऐमे । तल्लीन हों यदि महावत पालने में वे वन्द्य हैं नित नमू व्यवहार में मैं ॥४२॥
वे ही मृषा नय करे पर की उपेक्षा, एकान्त से स्वयम की रखते अपेक्षा । सच्चे मदेव नय वे पर को निभा ले बोलें परस्पर मिले व गले लगा लें ॥४३।।
पद्यानुवाद
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उत्मर्ग मार्ग निज में निजका विहारा, शास्त्रादि साधन रखो अपवाद न्यारा। ज्ञानादि कार्य इनसे बनते सुचारा, धारो यथोचित इन्हें सुख हो अपारा ॥४॥
सम्ममुक्त
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५ संसार चक्र सूत्र
संसार शाश्वत नहीं ध्रुव है न भाई, पाऊँ निरन्तर यहां दुख, ना भलाई। तो कौन सी विधि विधान सुयुक्तियां रे ! छूटे जिसे कि मम दुर्गति पंक्तियां रे ! ॥४५॥ ये भोग काम मधु-लिप्त कृपाण से हैं, देते सदा दुख सुमेरु-प्रमाण से हैं। संसार पक्ष रखते सुख के विरोधी, हैं पाप धाम, इनसे मिलती न बोधि ॥४६॥
भोगे गये विषय ये बहुबार सारे, पाया न सार इनमें मन को विदारे । रे ! छान बीन कर लो तुम वार वार, निम्सार भून कदली तरु में न सार ॥४७॥
प्रारम्भ में अमृत मो सुख शान्तिकारी, दे अन्त में अमित दारुण दुःख भारी। भूपाल-इन्द्रपदवी सुर मम्पदायें । छोड़ो इन्हें विषम ये दुख प्रापदायें ॥४८।।
ज्यों तीव्र खाज चलती खुजली ग्वजाते रोगी तथापि दुख को सुख ही बनाने । मोहाभिभूत मतिहीन मनुष्य सारे, त्यों काम जन्य दुख को मुख ही पुकारें ॥४९।: संभोग में निरत, मन्मति से परे हैं, जो दुःख को मुम्ब गिर्ने, भ्रम में परे हैं । वे मढ़ कर्म-मल में फमने वृथा है, मकवी गिरी नहाती कफ में यथा है ॥५०।।
पद्यानुवाद
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हो वेदना जनन मृत्यु तथा जरा से, ऐसा सभी समझने, सहसा संदा से । तो भी मिटी विषय लोलुपता नहीं है, मायामयी सुदृढ़ गांठ खुली नहीं है ॥५१॥ संसारि जीव जितने फिरते यहां हैं वे राग रोष करते दिखते सदा हैं। दुष्टाप्ट कर्म जिससे अनिवार्य पाते, है कर्म के वहन से गति चार पाते ॥५२॥ पाते गीत महल देह उन्हें मिलेंगी, वे इन्द्रियां खिड़कियों जिसमें खुलेंगी। होगा पुन: विषय सेवन इन्द्रियों से, रागादिभाव फिर हो जग जन्तुओं से ।।५३॥ मिथ्यात्व के वश अनादि अनन्त मानो, सम्यक्त्व के वश अनादि सुसान्त जानो । संसारिजीव इस भांति विभाव धारे, वे धन्य है तज इन्हें शिव को पधारें ।।५।।
लो ! गन्म से, नियम से, दुख जन्म लेते, मारी जग मरण भी प्रति दुःख देते। संसार ही ठस ठस! दुख से भरा है, पाड़ा चराचर सहे सुख ना जरा है ।।५।।
समणसुतं
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जो भी जहाँ जब जभी जिस भांति भाता, विज्ञान में तब तभी उस भांति पाता। जो अन्यथा समझता करता बताता, कुज्ञान ही वह सदा सबको सताता ।। ५६ ॥ रागादि भाव करता जब जीव जैसे, तो कर्म बन्धन बिना बच जाय कैसे ? । भाई ! शुभाशुभ विभाव कुकर्म पाते, हैं जीव संग बंधते, तब वे सताते ।। ५७ ॥ जो काय से वचन से मद मत्त होता, लक्ष्मी धनार्थ निज जीवन पूर्ण खोता। त्यों राग रोष वश है वसु कर्म पाता, ज्यों सर्प, जो कि द्विमुखी, मृण नित्य खाता ॥ ५८ ॥ माता पिता सुत सुतादिक माथ देते, अापत्ति में न सब वे दुख वॉट लेते । जो भोगता करम को करता अकेला,
औचित्य कर्म बनता उसका मुचेला ।। ५९ ।। है बन्ध के समय जीव स्वतन्त्र होते, हो कर्म के उदय में परतन्त्र रोते । जैसे मनुष्य तरु पे चढ़ते अनूठे, पानी गिरा, गिर गये जब हाथ छुटे ।। ६० ॥ हो जीव को सवल कर्म कभी सताता, तो कर्म को महज जीव कभी दबाता। देता धनी धन अरे! जब निर्धनी को, होता बली, ऋण ऋणी जब दे धनी को ।। ६१ ॥
पचानुवाद
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मामान्य में करम एक, वही द्विधा है, हैं द्रव्य कर्म जड़, चेतन मे जुदा है। जो कर्म गक्ति अथवा रति-रोप-भाव, है भावकर्म जिससे कर लो वचाव ।। ६२ ।। शुद्धोपयोगमय प्रातम को निहारें, वे माषु इन्द्रियजयी मन मार डारें। ना कर्म रेणु उनपे चिपके कदापि, ना देह धारण करें फिर अपापी ।। ६३ ।। ना ज्ञान-प्रावरण से मब जानना हो, ना दर्शनावरण से सब देखना हो। है वेदनीय मुख दुःख हमें दिलाता, है मोहनीय उलटा जगको दिखाता ॥ ६ ।। ना प्रायु के उदय मे, तन-जेल छुटे, है नाम कर्म रचता, बहुरूप झूठे । है उच्च-नीच-पददायक गोत्र कर्म, तो अन्ताय वश ना बनता मुकर्म ।। ६५ ।
संक्षेप से समझ लो तुम प्रष्ट कर्म, सद्धर्म से मब सधे शिव-शान्ति शर्म । होती इन्ही सम सदा वमु कर्म चाल, कर्मानुमार समझो, पट द्वारपाल । मो खड्ग, मद्य, लि, मौलिक चित्रकार, है कुम्भकार क्रमशः वमु कोषपाल ।। ६६ ।
समणमुत्तं
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७ मिथ्यात्व सूत्र
संमोह से भ्रमित है मन मत मेरा, है दीखता सुख नहीं, परितः अंधेरा । स्वामी रुका न अबलौं गति चार फेरा, मेरा अतः नहि हुवा शिव में बसेरा ।। ६७ ।। मिथ्यात्व के उदय से मति भ्रष्ट होती, ना धर्म कर्म रुचता, मिट जाय ज्योति । पीयूष भी परम-पावन-पेय-प्याला, अच्छा लगे न ज्वर में वन जाय हाला ।। ६८ ॥ मिथ्यात्व में भ्रमित पीकर मोह-प्याला, ज्वालामुखी तरह तीव्र कषाय वाला। माने न चेतन अचेतन को जुदा जो, होता नितान्त वहिरातम है मुधा ओ ।। ६९ ।। तत्वानुकूल यदि जो चलता नहीं है, मिथ्यात्व चीज इससे बढ़ कोनमी है। कर्तव्यमूढ़, पर को वह हैं बनाता, मिथ्यात्व को सघन रूप तभी दिलाता ।। ६० ।।
वयानुवाद
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८ राग परिहार सूत्र है कर्म के विषम बीज सराग रोष, समोह मे करम हो बहु दोष कोष । तो कर्म से जनन मृत्यु तथा जरा हो ये दुःख मूल, इनकी कब निर्जरा हो ? ।। ७१ ।। हो क्रूर, शर, मशहूर, जकर बैरी, हानी तथापि उममे उतनी न तेरी। ये राग रोष तुझको जितनी व्यथा देंकोई न दें, अब इन्हें दुख दे मिटा दे ॥ ७२ ।। मसार मागर अमार अपार खारा, ससारि को सुख यहाँ न मिला लगारा । प्राप्तव्य है परम पावन मोक्ष प्याग, ना जन्म मृत्यु जिसमें मुख का न पारा ।। ७३ ।। चाहो सुनिश्चय भवोदधि पार जाना, वाहो नहीं यदि यहां अब दुःख पाना । घोग्वा न दो म्वयम को टल जाय मौका, वैठो मुशीघ्र तप-संयम-रूप नौका ।। ७४ ।। सम्यक्त्वरूप गुण को सहसा मिटाते, चारित्र रूप पथ मे बुध को डिगाते । ये पाप ताप भय है रति राग रोष, हो जा सुदूर इन से, मिल जाय तोष ।। ७५ ।। भोगाभिलाप वश ही बस भोगियों को, होता असह्य दुख है सुर-मानवों को। ना साधु मानसिक कायिक दुःख पाते, वे वीतराग बन जीवन है बिताते ।। ७६ ॥
समणसुतं
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वैराग्य भाव जगता जिस भाव से है, श्रो कार्य प्रार्य करते, अविलम्ब मे है। जो हैं विरक्त तन से भव पार जाते, आसक्त भोग तन में भव को बढ़ाते ।। ७७ ।।
पं न पदार्थ सारे,
है राग रोष दुख, वे बार बार मन में बुध यों विचारे । नृष्णा अतः विषय को पड़ मद जाती, जाती विमोह ममता, ममता सुहाती ॥ ७८ ॥
से निराला,
दृष्टिवाला ।
मैं शुद्ध चेतन प्रचेतन ऐसा सदैव कहता सम रे! देह नेह करना प्रति छोड़ो उसे तुम यही गुरु का बताना ।। ७९ ।।
दुःख पाना,
मोक्षार्थ ही दमन हो सब इन्द्रियों का, वैराग्य से शमन क्रोध कषायियों का । हो कर्म प्रागमन -द्वार नितान्त वन्द, गद्धात्म को नमन हो नहि कर्म बन्ध ॥ ८० ॥ !
ज्यों शोभता जलज जो जलमे निराला, त्यों वीतराग मुनि भी तन मे खुशाला । होता विरक्त भव में रहता यही है, रंगीन में न रचता पचता नहीं है ॥ ८१ ॥
पद्यानुवाद
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धर्म सूत्र पाता सदैव तप संयम में प्रशंसा, मो धर्म मंगलमयी जिसमें अहिंसा । जो भी उमे विनय मे उर में विठाते, सानन्द देव तक भी उनको पुजाते ।। ८२ ॥ है वस्तु का धरम तो उसका स्वभाव, सच्ची क्षमादि दशलक्षण धर्म-नाव । जानादि रत्न त्रय धर्म, मुखी बनाता, है विश्व धर्म प्रम थावर प्राणि-त्राता ॥ ८३ ॥ प्यारी क्षमा, मृदुलता ऋजुता सचाई,
प्रो गोच्य मयम धरो, तप में भलाई । त्यागो परिग्रह, अकिंचन गीत गा लो, नो ! ब्रह्मचर्य मर में डुबकी लगा लो ।। ८४ ॥ हो जाय घोर उपसर्ग नरों मुरों मे, या खेचरों पशुगणों जन दानवों से । उद्दीप्त हो न उठनी यदि क्रोध ज्वाला, मानो उमे तुम क्षमामृत पेय प्याला ।। ८५ ।. प्रत्येक काल मब को करता क्षमा मैं, सारे क्षमा मुझ करे नित मागता मैं । मैत्री रहे जगत के प्रति नित्य मेरी, हो वैर भाव किसमे जब है न वैरी ।। ८६ ॥ मैने प्रमाद वश दुःख तुम्हें दिया हो, किवा कभी यदि अनादर भी किया हो। ना शल्य मान मन में रखता वृथा मै, हूँ मांगता विनय से तुममे क्षमा मैं ॥ ८७ ।।
समनसुत्तं
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हूँ श्रेष्ठ जाति कुल में श्रुत में यशस्वी, ज्ञानी सुशील प्रति सुन्दर हूँ तपस्वी । ऐसा नहीं श्रमण हो, मन मान लाते, निन्ति वे परम मार्दव धर्म पाते ॥ ८८ ।।
देता न दोष पर को, गुण डूढ़ लेता, निन्दा करे स्वयम की, मन प्रक्ष जेता । मानी वही नियम से गुणधाम ज्ञानी, कोई कभी गुण बिना बनता न मानी ॥८९॥
सर्वोच्च गोत्र हमने बहुबार पाया, पा, नीच गोत्र, दुख जीवन है बिताया। मैं उच्च की इसलिए करता न इच्छा, म्थाई नहीं क्षणिक चंचल उच्च नीचा ।। ९० ।।
प्राचार में वचन में व विचार में भी, जो धारता कुटिलता नहिं म्वप्न में भी। योगी वही सहज प्रार्जव धर्म पाता, ज्ञानी कदापि निज दोप नहीं छिपाता ॥९१ ॥
मिश्री मिले बचन वे रुचते मभी को, संताप हो श्रवण मे न कभी किमी को । कल्याण हो म्व पर का मुनि बोलता है, हो मन्य धर्म उसका दृग खोलता है ॥ ९२ ।।
हो चोर चौर्य करता विपया भिलापो, पाता त्रिकाल दुग्व हाय अमत्य भाषी। देखो जभी दुन्वित ही वह है दिग्वाता, सत्यावलम्बन सदीव मुवी बनाना ॥ ९३ ११
पपानुवाद
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मामि के वचन पाज नहीं सुहाते, हैं पथ्यरूप, फलतः कटु दीख पाते। पीते प्रतीव कड़वी लगती दवाई, नीरोगता फल मिले, मति मुस्कुराई ।। ९४ ॥
विश्वाम पात्र जननी सम मत्यवादी, हो पूजनीय गुरु मादृश अप्रमादी। वे विश्वको म्वजन भांति सदा मुहाते, वन्, उन्हें मतत में गिर को झुकाते ।। ९५ ॥
जानादि मौलिक मभी गुण वे अनेकों, है, सत्य में निहित मयम गोल देवो । प्रावास ज्यों जलधि है जलजीवियों का त्यों मत्य धर्म जग में सब मद्गुणों का ॥ ९६ ।।
ज्यों ज्यों विकास धन का क्रमशः बढेगा, स्यों त्यों प्रलोभ बढ़ता बढता बढ़ेगा। मम्पन्न कार्य कण में जब जो कि पूरा, होता वही न मन में रहता अधूरा ।। ९७ ।। पा मैकड़ों कनक निर्मित पर्वतों को, होगी न तृप्ति फिर भी तुम लोभियों को। माकाश है वह अनन्त अनन्त प्रागा माशा मिटे, सहज हो परितः प्रकाशा ।। ९८ ।।
त्यों मोह से जनम, तामस लोभ का हो या लोभ से दुरित कारण मोह का हो। ज्यों वृक्ष प्रो ! उपजता उम बीज मे है, या बीज जो उपजना इम वृक्ष से है ॥ ९९ ॥
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सन्तोष धार, समता जल से विरागी, धोते प्रलोभ मल को बुध सन्त त्यागी। लिप्सा नही अशन में रखते कदापि, हो शौच्य धर्म उनका, तज पाप पापी ॥१०॥
जो पालना समिति, इन्द्रिय जीतना है, है योग रोध करना, व्रत धारना है। सारी कपाय तजना मन मारना है, भाई वहीं सकल संयम साधना है ।१०१॥
फोड़ा कषाय घट को, मन को मरोड़ा, है योगि ने विषय को विप मान छोड़ा। म्वाध्याय ध्यान बल मे निज को निहारा, पाया नितात उसने तप धर्म प्यारा ।।१०२।। वैराग्य धार भवभोग गरीर मे यो ! देखा स्व को यदि मुदूर विमोह में हो । नो त्याग धर्म समझो उनने लिया है, सदेग यों जगत को प्रभुने दिया है ॥१०॥
भोगोपभोग मिलने पर भी कदापि, जो भोगता न उनको बनना न पापी। त्यागी वही नियम मे जगमे कहाता, भोगो न भोग तजता, भव योग पाता ।।१०।।
जो अतरंग बहिरग निमग नगा, होता दुग्वी नहि मुखी, वम नित्य चगा। भाई ! वही वर अकिंचन धर्म पाना, पाता म्वकीय मुख को, अघ को खपाता ॥१०५।।
पद्यानुवाद
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है शुद्ध पूर्ण दग बोधमयी सुधा से, में एक हूँ पृथक हूँ सब से सदा से । मेरा न और कुछ है नित में प्रापी, मेरी नहीं जडमयी यह देह रूपी ॥१०६।। में हूँ सुखी रह रहा मुख मे अकेला, मंग न और कुछ है गुरु भी न चेला । उद्दीप्त हो यदि जले मिथिला यहाँ रे, बोले “नमी" कि उसमे मम हानि क्या रे ! ॥१०७॥
निस्सार जान जिनने व्यवहार मारा, छोड़ा, रम्बा न कुछ भी कुल पुत्र दारा । ऐमा कहें सतत वे सब मन्त सच्चे, कोई पदार्थ जग में न बुरे न अच्छे ।।१०८।। ज्यों पप जो जलज हो जलमे निराला, मो ना गले नहि सड़े रहता निहाला । त्यों भोगमें न रचता पचता नहीं है, है वंद्य ब्राह्मण यहां जगमें वही है ॥१०९॥ ना मोह भाव जिसमें दुख को मिटाया, तृष्णा विहीन मनि, मोहन को नशाया । तृष्णा विनष्ट उसमे यति जो न लोभी, हो लोभ नष्ट उससे विन संग जो भी ॥११०॥
जो देह नेह तजता निज ध्यान धारी, है ब्रह्मचर्य उसकी वह वृत्ति सारी । है जीव ही परम ब्रह्म सदा कहाता, हैं बार बार उसको शिर मैं नवाता ।।१११॥
समणसुतं
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________________ चंद्रानना, मृगदृगी, मृदुहासवाली, लीलावती, ललित ये ललना निराली / देखो इन्हें, पर कभी न बनो विकारी, मानो तभी कि हम हैं सब ब्रह्मचारी // 112 / / संसर्ग पा अनल का झट लाख जैसा, स्त्री संग से पिघलता प्रनगार वैसा / योगी रहे इसलिए उनमे सुदूर, एकान्त में विपिन में निज में जरूर // 113 // कामेन्द्रिका दमन रे ! जिसने किया है, कोई नहीं अब उमे कठिनाइयां है / जो धैर्य मे अमित मागर पार पाना, क्या गीघ्र मे न सरिता वह तैर जाना ? // 11 // नारी रहो, नर रहो जब शील धारी, म्त्री मे बचे नर, बचे नरसे सुनागे / म्त्री प्राग है, पुरुष है नवनीत भाई, उद्दीप्त एक, पिघले, मिलते बुराई // 115 / / होती मुशोभित नथापि मुनारि जाति, फैली दिगंततक है जिन-शील-व्याति / ये हैं पवित्र धरती पर देवतायें, पूजें इन्हें नित सुगमुर अप्सरायें // 116 / / कामाग्नि मे जल रहा त्रयलोक मारा, देखो जहां विषय को लपटे अपाग / वे धन्य है यदपि पूर्ण युवा बने है, सन् गोल मे लम रहे निज में रमे है।।११७।। पप्रानुवाद
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________________ जो एक, एक कर रात व्यतीत होती, प्राती न लौट, जनता रह जाय रोती / मोही अधर्म रत है, उसकी निशायें, जाती वृथा दुखद है उलटी दिशायें / / 118 // ले द्रव्य को वनिक तीन चले कमाने, जाके बमे गहर में खुलतीं दुकानें / है विज एक उनमें धनको बढ़ाता, है एक मूल धन लेकर लौट आता // 119 / / प्रो मद, मूल धनको जिमने गवाया, सारा गया वितथ हाय ! किया कराया / ऐमा हि कार्य अवलो हमने किया है, मद्धर्म पा उचित कार्य कहां किया है ? / / 120 / / प्रात्मा म्वरूप रत प्रातम को जनाता, शुद्धात्म रूप निज माक्षिक धर्म भाता / प्रात्मा उसी तरह मे उसको निभावे, शीघ्रातिशीघ्र जिसमे मुव पाम आवे // 11 // समगतं
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________________ 10 संयम सूत्र आत्मा मदीय दुखदा तरु शाल्मली है, दाहात्मिका-विषम-वैतरणी नदी है / किंवा सुनंदन वनी मनमोहिनी है, है काम धेनु सुखदा दुख हारिणी है // 122H प्रात्मा हि दुःख सुख रूप विभाव कर्ता, होता वही इसलिए उनका प्रभोक्ता / आत्मा अनात्म रत ही रिपु है हमारा, तल्लीन हो स्वयम में तब मित्र प्यारा / / 123 // आत्मा मदीय रिपु है वन जाय स्वरी, स्वच्छन्द-इन्द्रिय-कषाय-निकाय बैरी / जीत उन्हें जिननियंत्रणमें रखें मैं, धर्मानुमार चलके निज को लखू में / / 124 / / जीत भले हि रिपु को रण में प्रतापी, मानो उमे न विजयी, वह विश्व तापी / रे ! शूर वीर विजयी जग में वही है, जो जीतता म्वयम को वनता मुखी है // 25 // जीतो भन्न हि पर को, पर क्या मिलेगा? पूर्वी तुम्हे दरित क्या उममे टलंगा? भाई लड़ो स्वयम में मन दूमों में, छूटो मभी महज में भव बधनों से // 126 / / अत्यन्त ही कठिन जो निज जीतना है, कर्तव्य मान उमको वम माधना है। जो जी रहा जगत में वन यात्म जता, . सर्वत्र दिव्य मुख का वह लाभ लेता // 127 / / पमानवाद
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________________ प्रोत्रित्य है न पर के वध बंधनों मे, में हो रहा दमित जो कि युगों युगों से। होगा यही उचित, मंयम योग धारू, विश्वाम है, म्वयम पे जय शीध्र पाऊँ / / 12 / / हो एक में विरति तो रति एक से हो, प्रत्येक काल मव कार्य विवेक मे हो। ले लो प्रभी तुम प्रसंयम से निवृत्ति, सारे करो मनत मंयम में प्रवृत्ति // 129 / / हैं. राग रोप अघकोष नही मुहाने, ये पाप कर्म, मवमे महमा कराते / योगी इन्हें नज, जभी निज धाम जाते, प्राने न लौट भव में, मुख चैन पाते / / 130 // लो, ज्ञान ध्यान तप संयम साधनों को, हे माधु ! इन्द्रिय-कपाय-निकाय रोको / घोड़ा कदापि रुकता न बिना लगाम, ज्यों ही लगाम लगता, बनता गुलाम / / 131 // चारित्र में जिन समान बने उजाले, वे वीतराग, उपशान्त कषाय वाले। नीचे कपाय उनको जब है गिराती, जो हैं मराग, फिर क्या न उन्हें नचाती ? // 132 / / हा ! साधु भी समुपशान्त कषाय वाला, होता कपाय वश मंद विशुद्धिवाला / विश्वासभाजन कषाय अतः नही है, जो पा रही उदय में प्रथवा दबी है // 133 / / समणसुतं
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________________ थोड़ा रहा ऋण, रहा वृण मात्र छोटा, हैं राग, भाग लघु यों कहना हि खोटा। विश्वास क्यों कि इनपे रखना बुरा है, देते सुशीघ्र बढ़ के दुख मर्मरा हैं // 134 // ना क्रोध के निकट "प्रेम" कदापि जाता, है मानसे विनय शीघ्र विनाश पाता। माया विनष्ट करती जग मित्रता को, प्रागा विनष्ट करती सब सभ्यता को // 135 // क्रोधाग्नि का गमन गीघ्र करो क्षमा से रे ! मान मर्दन करो तुम नम्रता मे। धारो विशुद्ध ऋजुता मिट जाय माया, संतोप में रति करो तज लोभ जाया // 136 / / ज्यों देह में मकल अग उपांग को, लेता समेट कछवा, लव मंकटों को। मेधावि-लोग अपनी सब इन्द्रियों को लेने ममेट निज में भजते गुणों को / 137 // अजान मान वश दी कुछ ना दिखाईमानो, अनर्थ घटना घट जाय भाई। मद्यः उसी ममय ही उम की मिटाम्रो आगे कदापि फिर ना तुम भूल पायो / / 138 / / जो धीर धर्म रथ को रुचि में चलाता, है ब्रह्मचर्य मर में डुबकी लगाता। पाराम धर्ममय जो जो जिमको मुहाता, धर्मानुकूल विचरें मुनि मोद पाता / / 139 / / पद्यानुवाद
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________________ 11 अपरिग्रह सूत्र जो भी परिग्रह रखें विषयाभिलाषी, वे चोर हिंसक कुशील असत्यभाषी। संसार की जड़ परिग्रह को बताया, यों सँग को जिनप ने मन मे हटाया / / 140 / / जो मूढ ले परम सयम से उदासी, धारे धनादिक परिग्रह दास दासी। अत्यन्त दुःख सहता भवमे डुलेगा, तो मुक्ति द्वार अवरुद्ध न ही खुलेगा / / 141 / / जो चिन से जब परिग्रह को हटाता है, बाह्य के सव परिग्रह को मिटाता। है वीतराग समधी अपरिग्रही है देखा स्वकीय पथ को मुनि ने सही है // 142 / / मिथ्यात्व वंद त्रय हास्य विनाशकारी ग्लानो, रती, अनिशोक कुभीति भारी। ये नोकपाय नद चार कपायिया है यो भीतरी जहर चौदह ग्रथियों है / / 143 / ये ग्वेन धाम धन, धान्य. अपारशि शय्या विमान पशु वर्तन दाम दामी नाना प्रकार पट. प्रामन पक्तिया रे ! ये बाहरी जडमयी दस अथिया रे // 144 / अत्यन्त शात गतवनात नितान्त चंगा हो अनरग बहिर ग. निमग, नगा। होता सुखी सतत है जिम भानि योगी चक्री कहा वह सुखी उस भाति भोगी / / 145 / ममणमुतं
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________________ ज्यों नाग अंकुश बिना वश में न पाता, खाई बिना नगर रक्षण हो न पाता। त्यों संग त्याग बिन ही सब इन्द्रियां रे ! प्राती कभी न वश में, तज ग्रंथियां रे // 146 / / पमानवाद
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________________ 12 अहिंसा सूत्र जानो तभी तम सभी सहमा बनोगे, संपूर्ण प्राणिवध को जब छोड़ दोगे। है साम्यधर्म वह है जिसमें न हिंसा, विज्ञान मंभव कभी न, बिना अहिंसा // 147 / / हैं चाहते जबकि ये जग जीव जीना, होगा अभीष्ट किसको फिर मृत्यु पाना? यों जान, प्राणिवध को मुनि शीघ्र त्यागें. निग्रंथरूप धरके, दिन रैन जागें // 148 / / हे जीव ! जीव जितने जग जी रहे है. विख्यात वे मब चराचर नाम मे है। निग्रंथ माधु बन, जान अजान में ये, मारे कभी न उनको न कभी मराये // 149 / / जैसा तुम्हे दुग्व कदापि नही मुहाता, वैसा अभीष्ट पर को दुख हो न पाता। जानो उन्हें निज समान दया दिवानो, सम्मान मान उनको मन मे दिलामो // 150 / / जो अन्य जीव वध है बध प्रो निजी है, भाई यही परदया स्वदया रहा है. साधू स्वकीय हितको जब चाहते है. वे सर्व जीव वध निश्चित त्यागते है / / 151 // तू है जिसे समझता वध योग्य बैरी तु ही रहा "वह" अरे यह भूल तेरी / तू नित्य सेवक जिमे बस मानता है, तू ही रहा 'वह" जिसे नहि जानता है // 152 / / समणसुतं
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________________ रागादि भाव उठना वह भाव हिसा, होना प्रभाव उनका मनझो अहिंसा / त्रैलोक्य पूज्य जिनदेव हमें बताया, कर्तव्यमान निजकार्य किया कराया / / 153 / / कोई मरो मत मरो नहि बंध नाता, रागादिभाव वश ही दुन कर्म प्राता / शास्त्रानुसार नय निश्चय नित्य गाता, यों कर्म-बन्ध-विधि है, हमको बनाता // 154 / / है एक हिसक तथैक असंयमी है, कोई न भेद उनमें कहते यमी है / हिंसा निरंतर नितान्त बनी रहेगी, भाई जहां जव प्रमाद-दगा रहेगी // 155. हिंसा नहीं पर उपाम्य बने अहिमा, ज्ञानी करे मतन हो जिम की प्रगमा / ले लक्ष्यकर्म क्षयका बन सत्यवादी, होता अहिमक वही मुनि अप्रमादी // 156 // हिंसा मदीय यह प्रातम हो अहिमा, सिद्धान्त के वचन ये कर लो प्रशंमा / ज्ञानी अहिमक वही मुनि अप्रमादी, हा ! मिहमे अधिक हिमक हो प्रमादी // 157 / / उत्तग मेरु गिरि सा गिरि कौन सा है ? निस्सीम कौन जगमें इम व्योम सा है ? कोई नहीं परम धर्म विना अहिमा, धारो इसे विनय से तज मर्व हिंसा // 158 / / षणानुवाद
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________________ देना तुझं अभय पार्थिव शिष्य प्यारा, तू भी सदा अभय दे जगको सहारा / क्या मान न कर रहा दिन रैन हिंसा !! संसार तो क्षणिक है भज ले अहिंसा // 159 // समणसुसं
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________________ 13 अप्रमाद सूत्र पाया इसे न अबलो इस को न पाना. मैने इमे कर लिया, न इमे कराना / ऐमा प्रमाद करते नहि सोचना है, या जाय काल कब प्रो न हि मूचना है // 160 // मंमार में कुछ न सार अमार मारे. है. मारभूत समतादिक-द्रव्य प्यारे / मोये हुए पुरुष ये बम सर्व खोते, जो जागते महज मे विधि पक धोने // 16 // मोना हि उत्तम प्रधार्मिक दुर्जनों का, है श्रेष्ठ "जागरण" धार्मिक मजनो का / यों वत्मदेवा नपकी अनुजा जयन्ती" वाणी मुनी जिनप की वह नीलवनी // 16 // मोया हवा जगत में वृध नित्य जागे, जागे प्रबोध उर में मव पाप त्यागे / है काल "काल" नन निर्बल ना विवाद, भेरण्ड मे नम अत: तज दो प्रमाद // 163 / / धाना अनेक विध ग्रास्रव का प्रमाद, लाना महर्प वर मंवर अप्रमाद / ना हो प्रमाद तब पण्डित मोह-जेता, होना प्रमाद वश मानव मढ़ नेता // 164 / / मोही प्रवृनि करते नहि कर्म खोते. ज्ञानी निवृनि गहते मनमल धोते / धीमान धीर धरते, धरते न लोभ , ना पाप ताप करते करते न क्षोभ // 165 / / [ 3 // ]
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________________ मोही प्रमत्त बनते, भयभीत होते, खोतं स्वकीय पद को दिन रन रोते / योगी करे न भय को वन अप्रमत्त, वे मस्त व्यस्त निज में नित दत्तचित्त : 166 // मोही ममत्व रखता न विराग होता, विद्या उमे न मिलती दिन रैन सोता। कैमे मिले मुख उमे जव आलसी है, कैमे बने "मदय" हिमक नाममी है // 167 // भाई मदेव यदि जागत नू रहेगा, तेरा प्रबोध बढ़ता बढ़ता बढ़ेगा / वे धन्य हैं. मान जाग्रत जी रहे हैं, जो मो रहे अधम हैं विप पी रहे हैं // 16 // है देव, भाल, चलता, उठना, उठाताशास्त्रादि वस्तु गाना, ना को गुलाता / है त्यागता मल, नगर को बचाता, योगी अहिनक दयाल नरी सदाना // 169 / / / 4 /
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________________ 14 शिक्षा सूत्र पाते नही अविनयी सुख सम्पदाये, पा ज्ञान गौरव सुखी विनयी सदा ये। जानो यही अविनयी-विनयी समीक्षा, ज्ञानी बनो सहज पाकर उच्च शिक्षा // 170 // मिथ्याभिमान करना, मनक्रोध लाना, पाना प्रमाद, तनमे कुछ रोग आना। पालस्यकानुभव, ये जब पच होते, शिक्षा मिले न, हम बालक सर्व गते // 171 // आलस्य हास्य मनरजन त्याग देना, होना मुशील, मन-इन्द्रिय जीत लेना। क्रोधी कभी न बनना, बनना न दोषी, ना भूलना विषय में न अमत्य--पोपी / / 172 / / भाई कदापि वनना न रहम्य भदी, ऐमा सदैव कहा गुरु आत्मवेदी / प्रा जाय आठ गुण जीवन मे किमी के, विद्या निवास करती मुख में उमी के // 173 / / सिद्धान्त के मनन मे मन-हाथ आता, विज्ञान भानु उगता, तमको मिटाता / जो धर्म निष्ठ बनता, पर को बनाता, सद्बोध रूप सर में डुबकी लगाता // 174 // ससार को प्रिय लगे प्रिय बोल बोलो, सध्यान में तप तपो दृग पूर्ण खोलो / सिद्धान्त को गुरुकुली बन के पढ़ोगे, सद्यः सभी श्रत विशारद जो बनोगे // 17 // [ 5 ]
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जाज्वल्यमान इक दीपक से अनेकों, हैं शीघ्र दीप जलते श्रयि मित्र देखो । प्राचार्य दीप सम हैं तम को मिटाते, प्रालोक धाम हम को सहसा बनाते ॥ १७६ ॥
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३६' ]
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१५ प्रात्म सूत्र तत्वों, पदार्थ-निचयों, जड़वस्तुओं में, है जीव ही परम श्रेष्ठ यहाँ सबों में । भाई मनन्त गुण धाम नितान्त प्यारा, ऐसा सदा समझ, ले निज का सहारा ॥१७७॥ प्रात्मा वही विविध है बहिरंतरात्मा, प्रादेय है परम प्रातम है महात्मा । दो भेद हैं परम प्रातम के सुजानो, हैं वीतराग "अरहन्त सुसिद्ध" मानो ॥१७८॥
मैं हूँ शरीरमय ही बहिरात्म गाता, जो कर्म मुक्त परमातम है कहाता । चैतन्य धाम मुझसे, तन है निराला, यों अन्तरात्म कहता, सम दृष्टिवाला ॥१७९॥ जो जानते जगत को बन निविकारी, सर्वज्ञदेव अरहन्त शरीरधारी । वे सिद्ध चतन-निकेतन में बसे हैं, सारे अनन्त सुख मे सहसा लमे है ॥१०॥ वाक्काय से मनस में ऋषि सन्त सारे, वे हेय जान बहिगत्मपना विसारे । हां ! अन्तरात्मपन को रुचि से मुधारे, प्रत्येक काल परमातम को निहारे ॥१८१॥
संसार चंक्रमण ना कुलयोनियाँ हैं, ना रोग, शोक, ग। जाति-विजातियां हैं ना मार्गना न गुणथानन की दशायें शुदात्म में जनन मृत्यु जरा न पायें ।।१८२।।
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मंस्थान, संहनन, ना कुछ ना कलाई, ना वर्ण, स्पर्श, रस, गंध विकार भाई ॥ ना तीन वेद, नहि भेद, अभेद भाता , गुद्धात्म में कुछ विशेष नहीं दिखाता ॥१८३॥
पर्याय ये विकृतियां व्यवहार से हैं, जो भी यहाँ दिख रहे जग में तुझं हैं। 4 सिद्ध के मदृश हैं जग जीव सारे, नू देख शुद्धनय से मद को हटा रे ! ॥१८४।।
प्रात्मा सचंतन प्ररूप अगन्ध प्यारा, अव्यक्त है अरस पीर प्रशब्द न्यारा । आता नहीं पकड़ में अनुमान द्वारा, मम्थान से विकल है सुग्व का पिटारा ॥१८॥
पात्मा मदीय गंतदोष प्रयोग योगी, निश्चित है निडर है निविलोपयोगी, निर्मोह, एक, नित, है सव संग त्यागी, है देह मे रहित, निर्मम, वीतरागी ॥१८६।।
सन्तोष-कोष, गतरोप, अदोप, ज्ञानी, निःशल्य शाश्वत दिगम्बर है अमानी। नीराग निर्मद नितान्त प्रशान्त नामी, प्रात्मा मदीय, नय निश्चय से अकामी ।।१८७॥
ना अप्रमत्त मम प्रातम ना प्रमत्त, है शुद्ध, शुद्धनय से मद-मान-मुक्ते । ज्ञाता वही सकल-जायक यों बताते, वे साषु शुद्ध नय प्राश्रय ले सुहाते ॥१८८॥
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हूँ ज्ञानवान, मन ना, तन ना, न वाणी, होऊं नहीं करण भी उनका न मानी । कर्ता न कारक न हूं अनुमोद दाता, घाता स्वकीय गुण का पर से न नाता ॥१८९॥ स्वामी ! जिसे स्वपर बोध भला मिला है, सौभाग्य से दग-सरोज खुला खिला है । वो क्या कदापि पर को अपना कहेगा ? ज्ञानी न मढ़ सम दोष कभी करेगा ॥१९०।। मैं एक, शुद्धनय से दृग बोध स्वामी, हूं शुद्ध, बुद्ध, अविरद्ध प्रबद्ध नामी । निर्मोह भाव करता निज लीन होऊ. शुद्धोपयोग-जल मे विधि पंक धोऊ ।। १ - १॥
卐 प्रथम खण्ड समाप्त
दोहा
ज्योतिर्मुख को नित नम, छुटे भव-भव-जेल, मत्ता मुझको वह दिने ज्योति ज्योनि का मेल ।।१।।
[
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१६ मोक्ष मार्गसूत्र
वैराग्य में विमल केवल बोध पाया, "सन्मार्ग" 'मार्गफल" को जिनने बनाया । " सम्यक्त्रमार्ग" जिसका फल मोक्ष न्यारा, है जैन शासन यही मुख दे अपारा ।।१९२।।
चारित्र बोध दृग है शिवपंथ प्यारा, ले लो अभी तुम अभी इसका सहारा । तीनो नराग जत्र लो कुछ बन्ध नाना, ये वीतराग बनते, शिव पास आता ।।१९३ ॥
मेट देता,
धर्मानुगग सुख दे दुग्व ज्ञानी प्रमादवश यों यदि मान लेता । अध्यात्म मे पतित हो पुनि पुण्य पाता, होता विलीन पर में निज को भुलाता ॥ १९४॥
भाई भव्य व्रत क्यों न सदा निभालें, ले ले भले ही तप, संयम गीत गा ले । श्री गनिया समितियां कल शील पाले, पाते न बोध दृा न बनते उजाले ।। १२५ ।।
जानो न । निश्चय तथा व्यवहार धर्म, बाघो मभी तुम शुभाशुभ प्रष्ट कर्म । सारी क्रिया विथन कुछ भी करो रे ! जन्मो मरो, भ्रमित हो भव में फिरो रे । । १९६ ॥
सद्धर्म धार धार उसकी करते प्रतीति, श्रद्धान गाढ़ रखते रुचि और प्रीति. चाहे अभव्य फिर भी भव भोग पाना, ना चाहते धरम से विधि को खपाना । १९७॥
[ ४० ]
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है पाप जो अशुभ भाव ही तुम्हारा, है पुण्य सौम्य शुभभाव सभी विकारा है निर्विकार निजभाव नितान्त प्यारा, हो कर्म नष्ट जिससे सुख शान्तिधारा ॥१९८।।
जो पुण्य का चयन ही करता रहा है, संसार को बस अवश्य बढ़ा रहा है। हो पुण्य से मुगति पं भव ना मिटेगा, हो प ण्य भी गलित तो शिव जो मिनेगा ॥१९९॥
मोही कहे कि शुभभाव सुशील प्यारा, खोटा बुरा अशुभभाव कुशील खारा, संसार के जलधि में जब जो गिराता, कैमे सुशील शुभ भाव, मुझे न भाता ॥२००।।
दो बेड़ियां, कनक की एक लोह की है, ज्यों एक मी पम्प को कस वांधती है । हो कर्म भी अशुभ या शुभ क्यों न होवें, त्यों वाँध ते नियम से जड़ जीव को वे ॥२०१॥
दोनों शुभाशुभ कुशील, कुशील त्यागो मंसर्ग राग इन का तज नित्य जागो, संसर्ग राग दनका यदि जो रखेगा स्वाधीनता विनगती दुग्व ही महंगा । २०२।।
अच्छा व्रतादिक तया मुर मौम्य पाना, स्वच्छन्दता अति वुरी फिर श्वभ्र जाना। अत्यन्त अन्तर ब्रताव्रत में रहा है छाया-सुधूप द्वय में जितना रहा है २०३।।
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चक्री बनो सुकृत से, सुर सम्पदायें, लक्ष्मी मिले अमित दिव्य विलासतायें। पं पण्य से परम पावन प्राण प्यारा, लम्यक्त्व हा! न मिलता मुख का पिटारा ॥२०४।।
देवायुपूर्ण दिवि में कर देव आते, व देव से अवनि पे नर योनि पाते भोगोपभोग गह जीवन हैं बिताते यो पुण्य का फल हमें गुरु है बताते ।।२०५॥
वे भोग भोग कर भी नहि फूलते हैं, मक्वी समा विपय में नहि झलते हैं। मंस्कार है विगत के जिससे सदीव यात्माचतन सुधी करते अतीव ।।२०६॥
पाना मनुष्य भव को जिनदेशना को, श्रद्धा ममेत मुनना तप माघना को । वे जान दुर्लभ इन्हें बुघलोक सारे, काटे कुकर्म मनि हो शिव को पधारे ॥२०७।।
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१७ रत्नत्रय सूत्र (प्रा) व्यवहार रत्नत्रय तत्वार्थ में रुचि हुई, दृग हो वहीं से, सज्ज्ञान हो मनन पागम का सही से । सच्चा तपश्चरण चारित नाम पाता, है मोक्ष मार्ग व्यवहार यही कहाता ।।२०।। श्रद्धान लाभ, बुध दर्शन मे लुटाता, विज्ञान से सब पदार्थन को जनाता । चारित्र धार विधि आस्रव रोध पाता, अत्यन्त शुद्ध निज को तप से बनाता ।।२०९।। निस्सार है चरित के बिन, ज्ञान सारा, मम्यक्त्व के बिन, रहा मुनि भेप भारा । होता न मंयम के बिना तप कार्यकारी, ज्ञानादि रत्न त्रय है भव दुःग्व हारी ॥२१०।। विज्ञान का उदय हो दृग के विना ना, होते न ज्ञान बिन मित्र ! चरित्र नाना । चारित्र के विन न हो शिव मोक्ष पाना. तो मोक्ष के विन कहाँ सुख का ठिकाना ।।२११।।
हा! अज्ञ की सब क्रिया उलटी दिशा है भाई क्रिया रहित ज्ञान व्यथा वृथा है पंगु लखें अनल को न बचे कदापि, दौडे भले ही वह अन्ध जले नथापि ॥२१॥
विज्ञान संयम मिले फल हाथ आता, हो एक चक्र रथ को चल ग्रो न पाता । होवे परस्पर महायक पगु अन्धा , दावाग्नि से बच सके कहने जिनंदा ।।२१३।।
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(प्रा) निश्चय रत्नत्रय सूत्र संसार में समयसार सुधा मुधारा, लेता प्रमाण नय का न कभी सहारा । होता वही दृग मयी वर बोध धाम मेरे उमे विनय से शतशः प्रणाम ।।२१४।।
साधू चरित्र दृग वोध समेत पा ले , मात्मा उन्हें समझ पातम गीत गा ले। ज्ञानी नितान्त निज में निज को निहारें वे अन्त में गुण अनन्त अवश्य धारें ॥२१॥ ज्ञानादि रत्न त्रय में रतलीन होना, धोना कषाय मल को बनना सलोना । स्वीकारना न करना तजना किसी को तू जान मोक्षपथ वास्तव में इमी को ॥२१६॥
सम्यक्त्व है वह निजात मलीन प्रात्मा विज्ञान है समझना निज को महात्मा । प्रात्मम्थ प्रातम पवित्र चरित्र होता, जानो जिनागम यही अयि भव्य श्रोता ।।२१७॥ अात्मा मदीय यह मंयम बोध-धाम, चारित्र दर्शनमयो लमता ललाम । है त्यागरूप सुख कूप, अनूप भूप ना नेत्र का विषय है नित है अरूप ॥२१८।।
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१८ सम्यक्पर्शन सूत्र (4) व्यवहार सम्यक्त्व पौर निश्चय सम्यक्त्व सम्यक्त्व, रत्नत्रय में वर मुख्य नामी है मूल मोक्षतरु का, तज काम कामी ! है एक निश्चय तथा व्यवहार दूजा, होते द्वि भेद, उनकी कर नित्य पूजा ॥२१९।। तत्वार्थ में रुचि भली भव सिन्धु सेतु सम्यक्त्व मान उसको व्यवहार से तू सम्यक्त्व निश्चयतया निज प्रातमा ही ऐसा जिनेश कहते शिब गह राही २२०॥ कोई न भेद, दृग में, मुनि मौन में है माने इन्हें सुबुध 'एक' यथार्थ में है होता अवश्य जब निश्चय का सुहेतु सम्यक्त्व मान व्यवहार, सदा उमे तू ॥२२१॥ योगी बनो अचल मेरु बनो तपस्वी, वर्षों भले तप करो, बन के यशस्वी सम्यक्त्व के बिन नहीं तुम वोधि पायो मंमार में भटकते दुख ही उठाओ ।।२२२।। वे भ्रष्ट हैं पतित, दर्शन भ्रष्ट जो है, निर्वाण प्राप्त करते न निजात्म को हैं। चारित्र भ्रप्ट पुनि चारित ले मिजेंगे 4 भ्रष्ट दर्शन तया नहि वे मिजेंगे ।।२२३॥ जो भी मुधा दृगमयी रुचि मंग पीता, निर्वाण पा अमर हो, चिरकाल जीता मिथ्यात्व रूप मद पान अरे! करेगा होगा सुखी न, भव में भ्रमता फिरेगा ॥२२४।।
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अत्यन्त श्रेष्ठ दृग ही जग में सदा से माना गया जड़मयी सब मंपदा तो मूल्यवान, मणि से कब काच होता ? स्वादिष्ट इप्ट, घृत से कब छाछ होता ?॥२२॥
होंगे हुए परम प्रातम हो रहे हैं तल्लीन प्रात्म सुख में नित जो रहे हैं सम्यक्त्व का सुफल केवल प्रो रहा है मिथ्यात्व से दुखित हो जग रो रहा है ॥२२६॥
ज्यों शोभता कमलिनि दृगमजु पत्र । हो वीर में न सड़ता रहता पवित्र । त्यों लिप्त हो विषय से न मुमुक्षु प्यारे होते कषाय मल से प्रति दूर न्यारे ॥२२७॥
धारे विराग दग जो जिन धर्म पाके, होते उन्हें विषय, कारण निजंग के । भोगोपभोग करते सब इन्द्रियो में, साधु सुधी न बंधते विधि बधनों मे ॥२२८ ।
वे भोग भोग कर भी बुध हो न भोगी, भोगे बिना जड़ कुधी बन जाय भोगी। इच्छा बिना यदि करें कुछ कार्य त्यागी, कर्ता कथं फिर बने ? उनका विरागी ।।२२९॥
ये काम भोग न तुम्हें समता दिलाते, भाई ! विकार तुम में न कभी जगाते । चाहो इन्हें यदि इरो इनसे जभी से, पामो अतीव दुसको सहसा तभी से ॥२३०॥
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(मा) सम्यग्दर्शन अंग
ये प्रष्ट अङ्ग दृग के, विनिशकिता है, नि:कांक्षिता विमलनिर्विचिकित्सिता है। चौथा अमूढ़पन है उपगहना को, धारो स्थितीकरण वत्सल भावना को ॥२३१॥
निःशंक हो निडर हो सम-दृष्टि वाले, माती प्रकार भय छोड़ स्वगीत गा लें । निःशंकिता अभयता इक साथ होती, है भीति हो स्वयम हो भयभीत, रोती ।।२३२ कांक्षा कभी न रखता जड़पर्ययों में, धर्मो-पदार्थ दलके विधि के पलों में । होता वही मुनि निकांक्षित अनधारी, बन्द उन्हें बन सकें द्रुत निर्विकारी ॥२३३।।
मम्मान पूजन न वंदन जो न चाहे, यो का कभी श्रमण हो निज च्यानि चाहे ? हो गयमी यनि प्रती निज ग्राम योजी, हो भिक्षु तापस वही उसको नमो जी ।।२३४।।
हे योगियो ! यदि भवोदधि पार जाना, चाहो अलौकिक अपार स्वसौख्य पाना । क्यों ख्याति लाभ निज पूजन चाहते हो? क्या मोक्ष लाभ उनमे तुम मानने हो ?।।२३।। कोई घृणास्पद नहीं जग में पदार्थ, सारे सदा परिणमें निज में यथार्थ । जानी न ग्लानि करते फलतः किसी से, धारे तृतीय दुग अङ्ग तभी खुशी से ॥२३६॥
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ना मुग्ध मूढ़ मुनि हो जग वस्तुवों में, हो लीन आप अपने अपने गुणों में। वे ही महान समदृष्टि अमृढ़ दृष्टि, नामाग्र दृष्टि रख नाशत कर्म-मृप्टि ।।२३७॥
चारित्र वोध दृग मे निज को सजानो, धागे क्षमा तप तपो विधि को स्वपाम्रो । माया-विमोह-ममता नन मार मागे, हो वर्धमान, गतमान, प्रमाण धागे ॥२३॥
माम्बार्थ गौण न करो, न उमे छुपायो, विज्ञान का मद घमण्ड नहीं दिखायो। भाई किमो मुबुध की न हमी उड़ानो, प्रागीग दो न पर को पर को भुलायो ॥२३९।।
ज्यों ही विकार लहरें मन में उठे तो, तत्काल योग त्रय में उनको ममेटो । मौचित्य प्रस्व जव भी पथ भूलता हो ले लो लगाम कर में अनकलना हो ॥२४०॥
है ! भव्य गौतम ! भवोदधि नैर पाया, पर्यो व्यर्थ ही रुक गया तट पाम पाया ! ले ले छलांग झट से अब तो धरा पे पालस्य छोड़ वरना दुख ही वहाँ पे ॥२४१॥
श्रद्धा समेन चलते बुध धामिकों की सेवा मुभक्ति करते उनके गुणों की। मिश्री मिले वचन जो नित बोलते हैं वात्सल्य पङ्ग धरते, दग खोलते हैं ॥२४२॥
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योगी सुयोगरत हो गिरि हो अकम्पा, धारो सदैव उर जीव दया नुकम्पा । धर्मोपदेश नित दो तज वासना दो, ऐमा कगे कि जिन धर्म प्रभावना हो।.२४३।।
वादी सुतापस निमिन मुगात्र ज्ञाता, श्री मिद्धिमान, वप के उपदेश दाता । विद्या-विशारद, कवीश विशेपवक्ता होता प्रचार इनमे वृष का महत्ता ॥२४४।।
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१८ सम्यक्सान सूत्र
सत् शास्त्र को सुन, हिताहित वोध पामो, प्रादेय हेय समझो, सुख चूंकि चाहो । प्रादेय को झट भजो, तज हेय भाई ! इत्यं न हो कुगति से पुनि हो सगाई ॥२४५।। प्रादेश, ज्ञान प्रभु का शिव पंथ पंथी, पाके म्वमें विचग्ने, तज सर्वग्रंथि । सम्यक्त्व योग नप मंयम ध्यान धारे, काटें कुकर्म, निज जीवन को सुधारें ॥२४६॥ ज्यों ज्यों नामानिधि में डुबकी लगाता, त्यों त्यों बनो नव नवीन प्रमोद पारा । वैराग्य भार बढता श्रुतभावना हो, श्रद्धा न हो दृढ़, नगे फिर वामना हो ।।२४७ । सूची भले ही कर में गिर भी गई । खोती कभी न गदि टोर लगी हुई हो। देही ससूत्र यदि को श्रुत नोध वा, होता विनष्ट भन में न रहे खुशाला ॥२४॥ भाई भले तुम बनो बुध मुख्य नेता, वक्ता कवि विविध वाडमय वेद वेत्ता । माराधना यदि नही दग की करोगे, तो बार-बार तन धार दुखी बनोगे ।.२४९।। त् राग को तनिक भी तन में रखेगा. शुद्धात्म को फिर कदापि नहीं लखेगा। होगा विशारद जिनागम में भले ही मारमा स्वदीय दुख से भव में रुले ही ॥२५०।।
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मारमा न मातम मनातम को लखेगा, सम्यक्त्व पात्र किस भौति महो बनेगा। प्राचार्य देव कहते बन वीतरागी, क्यों व्यर्थ दुःख सहता, तज राग रागो ॥२५॥
तत्वाववोधि सहसा जिससे जगेगा, चांचल्यचित्त जिससे वश में रहेगा। प्रात्मा विशुद्ध जिससे शशि सा बनेगा, होगा वही "विमल ज्ञान" स्व-सौख्य देगा ॥२५२॥
माहात्म्य ज्ञान गुण का यह मात्र सारा, रागी विराग बनता तज राग खारा। मैत्री मदेव जग मे रखता सुचारा, शुद्धात्म में विचरता, मुख पा प्रपारा ॥२५३।।
मात्मा अनन्त, नित, शून्य उपाधियों से, अत्यन्त भिन्न पर से विधि बन्धनों से । ऐसा निरन्तर निजातम देखते हैं वे ही समग्र जिनशासन जानते हैं ।।२५४।।
हूं काय से विकल, केवल केवली हैं मैं एक हूँ विमल ज्ञायक हूँ बली हूँ जो जानता स्वयम को इम भांति स्वामी, निर्धान्त हो वह जिनागम पारगामी ॥२५॥
साधू समाघिरत हो निज को विशुद्धजाने, बने महज शुद्ध प्रवद्ध बुद्ध । रागी स्वको समझ राग मयी विचाग, होता न मुक्त भव से, दुख हो अपारा ।।२५६।।
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जो जानने मुनि निजातम को यदा है, वे जानते नियम से पर को तदा है, है जानना म्वपर को इक साथ होता ऐसा जिनागम रहा, दुख सर्व म्वोता ।।२५७।। जो एक को महज से मुनि जानते है, वे सर्व को समझते जब जागतं हैं। यों ईश का मदुपदेश सुनो हमेशा । मक्लेग द्वेष तज शीघ्र वनो महेशा ।२५८॥
मद्बोधि रूप मर में दुबको लगा ले मंतप्त तू स्नपित हो सुख तृप्ति पा ले। तो अन्त में बल अनन्त ज्वलन्त पाके विश्राम ले, अमित काल म्वधाम जाके ॥२५॥
महन्त स्वीय गृह को द्रुत जा रहे है वे शुद्ध-द्रव्य गुण पर्यय पा रहे है। जो जानता यति उन्हें निज जानता है संमोह कर्म उसका झट भागता है॥२६०॥ ज्यों विन बोट म्वजनों नहि दूमरों में, भोगी मुभोग करता दिन रात्रियों में । पा नित्य ज्ञान-निधि, नित्य नितान्त ज्ञानी त्यों हो मुखी, न रमना पर में अमानी ॥२६१।।
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२० सम्यक्वारित्र सूत्र
(म) व्यवहार चारित्र सूत्र होते सुनिश्चय-नयाश्रित व अनूप, चारित्र और तप निश्चय सौख्य कृप । 4 व्यावहार-नय-प्राश्रित ना स्वरूप चारित्र और तप वे व्यवह र म्प ॥२६२॥ जो त्यागना अशुभ को शुभ को निभाना मानो उसे हि व्यबहार चरित्र बाना। ये गुप्तियाँ ममितियां व्रत आदि सारे, जाने सदैव व्यवहारतया पुकारें ।।२६३॥ चारित्र के मुकुट में मिर ना सजोगे, आमढ़ संयममयी रथ पे न होगे । म्वाध्याय में रत रहो तुम भले ही ना मुक्ति-मंजिल मिले, दुख ना टले ही ।।२६।। देता क्रियारहित ज्ञान नहीं विराम, मार्गज्ञ हो यदि चलो न, मिले न धाम । किवा नहीं यदि चले अनुकूल वात, पाता न पोत तट को यह सत्य बात ।।२६५।।
चारित्र-शून्य नर जीवन ही व्यथा है, तो पागमाध्ययन भी उसकी वृथा है। अन्धा कदापि कुछ भी जब ना लवंगा जाज्वल्यमान कर दीपक क्या करेगा ? ||२६६॥
अत्यल्प भी बहुत है श्रु न ही उन्ही का, जो संयमी, सतन ध्यान धरूं उन्हीं का । सागार का बहुत भी श्रत बोध "भाग" चारित्र को न जिमने उर से मुधारा ।।२६७।।
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(मा) निश्चय चारित्र मात्मार्थ प्रातम निजातम में समाता, मच्चा सुनिश्चय चरित्र वही कहाता । हे भव्य पावन पवित्र चरित्र पालो पालो अपूर्व पद को, निज को दिपालो ॥२६॥ शुदात्म को समझ के परमोपयोगी, है पाप पुण्य तजता घर योग योगी मो निर्विकल्प मय चारित्र है कहाता, मेरे समा निकट भव्यन को मुहाता ॥२६९।। रागाभिभूत बन तू पर को लखेगा, भाई शुभाशुभ विभाव खरीद लेगा। तो वीतराग मय चारित से गिरेगा मसार बीच पर चारित से फिरेगा ॥२७०।।
हो अन्तरंग बहिरग निसग नंगा, सुद्धात्म में विचरता जब साधु चंगा। सम्यक्त्व बोधमय प्रातम देख पाता, प्रारमीय चारित सुधारक है कहाता ॥२७१॥
मातापनादि तप में तन को तपाना अध्यात्म मे स्खलित हो ब्रत को निभाना हे मित्र! बाल तप सयम मो कहाता, ऐमा जिनेश कहते, भव में घुमाता ॥२७२।।
लो! मास माम उपवाम करे रुचि मे, प्रत्यल्प भोजन करे, न डरे किसी से । पैमात्म बोघ बिन मढ़ बती बनेगा, ना पर्म लाभ लवलेश उसे मिलेगा ।।२७३॥
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चारित्र ही परम धर्म यथार्थ में है, साधू जिसे शममयी लख साधते हैं। मोहादि से रहित मातम भाव प्यारा, माना गया समय में शम साम्य मारा।।२७४।। मध्यस्थ भाव समभाव, विराग भाव चारित्र, धर्ममय भाव, विशुद्ध भाव, प्राराधना स्वयम की पद सात सारे हैं भिन्न-भिन्न, पर प्राशय एक घारे ॥२७५।। शास्त्रज्ञ हो श्रमण हो समधी तपस्वी, हो वीतराग व्रत संयम में यशस्वी । जो दुःख में व सुख में समता रखेगा गुद्धोपयोग उस ही क्षण में लग्वेगा ॥२७६॥
शुद्धोपयोग दृग है वर बोध-भानु निर्वाण सिद्ध शिव भी उसको हि जानू । मान उमे श्रमणता मन में विटा लं, वन्दू उमे नित नमू निज को जगा लू ।
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मुद्धोपयोग वग साधु मुमिद्ध होते, ग्वात्मोत्थ-मानिगय शाश्वत मोग्य जाते, जाती कही न जिमकी महिमा कभी भी, अन्यत्र छोड जिमको मुख ना कहीं भी ।।८।। वे मोह राग रति रोप नही किमी सेधारें मुमाम्य मुम्व में दुख में मची मे। होके बुभुक्षु न हि भिक्षु मुमक्ष होके प्राते हुए मत्र शुभाशुभ कर्म रोके ।।२७९।।
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(३) समन्वय सूत्र है वीतगग व्रत माध्य सदा सुहाता, होता मगग व्रत साधन, साध्यदाता । तो पूर्व माधन, अनन्तर साध्य धारो, मंपूर्ण बोध मिलता, शिव को पधागे ॥२०॥ ज्यों भीनरी कलुपता मिटती चलेगी, त्यों बाहरी विमलता बढती बढ़ेगी। देही प्रदोष मन में रखता जभी है, यो ! बाह्य दोप महमा करता तभी है। रे ! पंक भीतर मगेवर में रहा है जो बाद में जल कलकित हो रहा है ॥२८॥ मायाभिमान मद मोह विहीन होना, है भाव गदि. जिममें गिव सिद्धि लोना । पालो मे मकललोक अलोक देखा, यों बोर ने मदुपदेश दिया मुरखा ।।२८२ । जो पंच पाप तज, पावन पुण्य पाना, हो दूर भी अगुभ में गुभ को जुटाता । रागादि भाव फिर भी यदि ना नजेगा शुद्धान्म को न मुनि होकर भी भजेगा ।।२८३।। तो प्रादि में अशुभ को शुभ मे मिटायो, शुद्धोपयोग बल में शुभ को हटाम्रो । यों ही अनुक्रमण में कर कार्य योगी, ध्यानो निजात्म-जिन को, मुख शांति होगी ॥८४ चारित्र नष्ट जव हो दग बोध घाते. जाने मुनिश्चय मही रह वे न पाने हो या न हो विलय पं दग बोध का रे ! जावे चरित्र. मत यों व्यवहार का रे!1:२८५ ।
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श्रद्धापुरी सुरपुरी सम जो सजानो ताला वहाँ सुतप संवर का लगायो पाताल गामिनि क्षमामय खातिका हो प्राकार गुप्तिमय हो नभ छ रहा हो ॥२८६ प्रो धैर्य से धनुप-त्यागमयी मुधारो, सध्यान बान वल मे विधि की विदारो। जेता बनो विधि रणांगन के मुनीश ! होवो विमुक्त भव मे जगदीग धीग ।।२८७
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२१ साधना सूत्र उद्बोध प्राप्त कर लो गुरु गीत गा लो, जीतो क्षुधा विषय मे मन को बचालो। निद्राजयी वन दृढासन को लगा लो, पश्चात सभी तुम निजातम ध्यान पालो २८८
मंपूर्ण जान मय ज्योति शिखा जलेगा प्रशान मोह तम पूर्ण तभी मिटेगा। हो नष्ट रागरति रोपमयी प्रणाली, उत्कृष्ट सोल्य मिलता, मिट ती भवाली ।।२८९।। दुःसंग मे बच जिनागम चित्त देना, एकान्त वाम करना धृतिधार लेना। मूत्रार्थ चितन तथा गुरु-वृद्ध मेवा ये ही उपाय शिव के मिल जाय मेवा ।।२९०। हो चाहते मुनि पुनीत समाधि पाना, माथी, व्रती श्रमण या वुध को बनाना । एकान्तवास करना भय त्याग देना, शास्त्रानुसार मित भोजन मात्र लेना ॥२९.१।। जो अल्प, शुद्ध, तप वर्धक अन्न लेते क्या वैद्य मौषध उन्हें कुछ काम देते ? ना गृद्धता प्रशन में रखने न लिप्सा वे वैद्य हो, कर रहे अपनी चिकित्सा ॥२९॥ प्रायः अतीव रसमेवन हानिकारी, उन्मत्तता उछलतो उममे विकारी । पक्षी ममूह, फल-फल-लदे द्रुमों को, ज्यों कष्ट दें, मदन त्यों विषयी जनों को ।।३९३
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जो सर्व-इन्द्रिय जयी मित भोज पात, एकान्त में शयन प्रासन भी लगाते रागादि दोष, उनको लख काँप जाते पीते दवा उचित, रोग विनाश पाते ॥ २९४ ॥
श्रा, व्याधियां न जब लौं तुमको सताती । प्राती जरा न जब लौ तन को सुखाती । ना इन्द्रियाँ शिथिल हों जब लो तुम्हारी धारो स्वधमं तब लौ शिव सौम्यकारी ॥ २९५॥
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२२ विविध धर्म
सन्मार्ग हैं श्रमण श्रावक भेद से दो, उन्मार्ग शेष, उनको तज शीघ्र से दो ।
मृत्यु ंजयी अजर है अज है बली है, ऐसा सदा कह रहे जिन केवली हैं ||२९६॥
"स्वाध्याय ध्यान" यति धर्म प्रधान जानो, भाई बिना न इनके यति को न मानो । हे धर्म, श्रावक करें नित दान पूजा, ऐसा करे न, वह श्रावक है न दूजा ।। २९७ ।।
होता सुशोभित पदों अपने गुणों मे, साधू सुमंस्तुत वही सब श्रावकों से । पं साधु हो यदि परिग्रह भार धारे सागार श्रेष्ट उनमे गृहधर्म पारे ॥२९८ ॥
कोई प्रलोभवश साध बना पं शाक्तिहीन व्रत पालन में तो श्रावकाचरण ही करता ऐसा जिनेश मत है हमको बताता ॥ २९९ ॥
कराना,
हुआ हो
रहा हो
श्री
श्रावकाचरण में व्रत पंच होते,
है सात गील व्रन ये विधि पंक होते ।
जो एक या इन व्रतों सबको निभाता, है भव्य धावक वही जग मे कहाता ||३००||
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२३ श्रावकधर्म सूत्रचरित्र धारक गुरो ! करुणा दिखा दो, चारित्र का विधि विधान हमें सिखा दो । ऐसा सदैव कह श्रावक भव्य प्राणी, चारित्र धारण करें सुन मन्न वाणी ॥३०१।। जो सप्तधा व्यसन सेवन त्याग देते, भाई कभी फल उदुम्बर ग्वा न लेते । वे भव्य दर्शनिक श्रावक नाम पाते, धीमान धार दृग को निज धाम जाते ॥३०२।। रे मद्यपान परनारि कुशील खोरी अत्यन्त क्रूरतम दंड, शिकार चोरी भाई असत्यमय भाषण द्यूत क्रीड़ा ये सात हैं व्यसन, दें दिन-रैन पीड़ा ॥३०३ है मांस के प्रशन मे मति दपं छाता, तो दर्प से मनुज को मद पान भाता। है मद्य पीकर जुमा तक खेल लेता यों मर्व दोष करके दुख मोल लेता ।।३०४॥ रे मांस के प्रशन मे जब व्योम गामी, आकाश मे गिर गया वह विप्र स्वामी, ऐमी कथा प्रचलित सबने सुनी है। वे मांस भक्षण प्रतः तजते गुणी हैं ॥३०॥ जो मद्य पान करते मदमत्त होते, वे निन्द्य कार्य करते दख बीज बोते । सर्वत्र दुःख महते दिन रैन रोते, कैसे बने फिर मुखी जिन धर्म खोते ॥३०६।।
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निष्कम्प मेरू सम जो जिन भक्ति न्यारो, जागी, विराग जननी उर मध्य प्यारी । वे शल्यहीन बनते रहते खुशी से, निश्चिन्त हो, निडर, ना डरते किसी से ॥३०७॥
संसार में विनय की गरिमा निराली, है शत्रु मित्र बनता मिलती शिवाली। धारे प्रतः विनय थावक भव्य सारे, जावे सुशीघ्र भववारिधि के किनारे ॥३०८।।
हिंसा, मुषावचन, स्तेय कुशीये लता, मूर्छा परिग्रह इन्हीं वश हो व्यथायें । हैं पंच पाप इनका इक देश त्यागहोता अणुव्रत, घर जग जाय भाग ॥३०९।।
हा ! बंध छेद वध निर्बल प्राणियों का, संरोष अन्न जल पाशव मानवों का । क्रोधादि से मत करो टल जाय हिंसा, जो एक देश व्रत पालक हो अहिंसा ॥३१०॥
भू-गो सुता-विषय में न प्रसत्य लाना, झूठी गवाह न धरोहर को दबाना । यों स्थूल सत्य व्रत है यह पंचधारे, मोक्षेन्छु श्रावक जिसे रुचि संग धारे ॥३११।। मिध्योपदेश न करो सहसा न बोलो, स्त्री का रहस्य अथवा पर का न खोलो। ना कूट लेखन लिखो कुटिलाइता से, यों स्थल सत्य व्रत धार बचो व्यथा से ॥३१२॥
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राष्ट्रानुकूल चलना "कर" न चुराना, ले चौर्य द्रव्य नहिं चोरन को लुभाना । धंधा मिलावट करो न, प्रचौर्य पालो, हा ! नापतोल नकली न कभी चलालो ॥३१॥ स्त्री मात्र को निरखते अविकारता से, क्रीड़ा अनंग करते न निजी प्रिया से । होते कदापि न हि अन्य-विवाह पोषी, कामी प्रतीव बनते न स्वदारतोषी ॥३१४॥ निस्सीम संग्रह परिग्रह का विधाता, है दोष का, बस रमानल में गिराता। तृष्णा अनन्त बढ़ती सहसा उसी से, उद्दीप्त ज्यों अनल दीपक तेल-घी से ॥३१५।। ग्राहस्थ्य के उचित जो कुछ काम हैं सागार सीमित परिग्रह को रखे हैं। सम्यक्त्व धारक उमे न कभी बढ़ावें रागाभिभूत मन को न कभी बनावें ।।३१६।। प्रत्यल्प ही कर लिया परिमाण भाई ! लेऊ पुनः कुछ जरूरत जो कि प्राई ऐसा विचार तक ना तुम चित्त लामो संतोष धार कर जोवन को चलामो ॥३१७॥ है सात शील व्रत श्रावक भव्य प्यारे ! सातों व्रतों फिर गुणबत तीन न्यारे । देशावकाशिक दिशा विरती सुनो रे ! आनर्थ दण्ड विरती इनको गुणो रे ! ॥३१।। सीमा विधान करना हि दसों दिशा में, माना गया वह दिगावत है घरा में । प्रारम्भ सीमित बने इस कामना से, सागार साधन करे इसका मुदा से ॥३१९॥
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होते विनप्ट व्रत हो जिम देश में ही, जाप्रो वहाँ मत कभी म्वप्न में भी। देगावकागिक वही ऋपि देगना है, धागे उमे विनगती चिर वेदना है ॥३२०॥ है. व्यर्थ कार्य करना हि अनर्थ दण्ड, है. चार भेद इसके अघाव भ्रकण्ड । हिमोपदेश, अति हिमक शस्त्र देना, दुर्ध्यान यान चढना, नित मन होना । होना मदुर इनमे बहु कर्म खोना, प्रानथं दण्ड विग्नी नुम शीघ्र लो ना ! ॥३२१।। प्रत्यल्प बन्धन आवश्यक कार्य में हो, अत्यन्त वन्ध अनवश्यक कार्य मे हो। कालादि क्यों कि इक में सहयोगी होते, पं अन्य में जब अपेक्षित वे न होते ।।३२२।। ज्यादा वको मत रखो अघ शस्त्र को भी, तोड़ो न भोग परिमाण बनो न लोभी। भद्दे कभी वचन भी हेमते न बोलो ॥ ना प्रग व्यंग करने दृग मेच बोलो ।।३२३।। है संविभाग अतिथि व्रत मोक्षदाता, भोगोपभोग परिमाण मुखी बनाता । शुद्धात्म सामयिक प्रोपध मे दिखाता यों चार प्रेक्ष्यवत है यह छन्द गाता ॥३२४।। ना कन्द मूल फल फूल पलादि खायो । रे ! म्वप्न में नक इन्हें मन में न लायो । प्रो क्रूर कार्य न करो, न कभी करामो माजीविका वन हिसक ही चलायो । यों कार्य का प्रशन का परिमाण बांधो, भोगोपभोग परिमाण सहर्ष साधो ॥३२५॥
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उत्कृप्ट, सामयिक से गृह धर्म भाता, मावद्यकर्म जिससे कि विराम पाता। यों जान मान बुध हैं अघ त्याग देते, प्रात्मार्थ मामयिक साधन साध लेते ।।३२६।। मागार मामयिक में मन ज्यों लगाता, मच्चे मुधी श्रमण के सम साम्य पाता। हे भव्य सामयिक को अतएव धारो, भाई किसी तरह मे निज को निहारो॥३२७॥
या जाय मामयिक में यदि अन्य चिता. तो आध्यान बनता दुख दे तुरन्ता । निम्सार सामयिक हो उसका नितान्त, समार हो फिर भला किस भांति मांत ?॥३२८।।
मंस्कार है न तन का न कुगीलता है, प्रारम्भ ना प्रशन प्रोषध में तथा है। लो पूर्ण त्याग इनका इक देश या लो, घारी मुसामायिक, प्रोषध पूर्ण' पालो ।।३२९॥ दो शुद्ध अन्न यति को समयानुकल,' देशानुकूल, प्रतिकूल कभी न भूल । तो संविभाग अतिथिवत प्रो बनेगा, र ! स्वर्ग मोक्ष क्रमवार अवश्य देगा ॥३३०॥ पाहार और अभय प्रौषध और शास्त्र, ये चार दान जग में सुख पूर-पात्र । दातव्य हैं अतिथि के अनुमार चागें, सागार शास्त्र कहता, धन को बिसारो ॥३३॥ १ जो पूर्ण प्रोषध करता है वह नियम से माषिक करे । २ समय (भागम) के अनुकूम और समय (काल) के अनुकूल ।
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सागार मात्र इक भोजन दान से भी, लो धन्य धन्यतम हो धनवान से भी । दुःपात्र पात्र इस भांति विचार से क्या ? लं श्राम पेट भर ले !! बस पेड़ से क्या ? ॥ ३३२ ॥ ।
दिये न जाते, कदापि जाते समयानुकूल,
शास्त्रानुकूल जल अन्न भिक्षार्थं भिक्षुक वहाँ न वे धीर वीर चलने लेते न अन्न प्रतिकूल कदापि भूल ॥३३३ ।। मागार जो प्रशन को मुनि को खिलाके, पश्चात सभी मुदित हो श्रवशेप पाके । वे स्वर्ग मोक्ष क्रमवार अवश्य पाते, संसार में फिर न कदापि न लौट आते ||३३४ ||
जो काल मे डर रहे उनको बचाना, माना गया अभयदान अहो मुजाना ! है चंद्रमा अभयदान ज्वलन्न दीखे, तो शेष दान उडु है पड़ जाय फीके ||३३५ ।।
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२४ भ्रमण धर्म सूत्र
प्यारे,
सारे ।
ये वीत राग अनगार भदंत साघू ऋषी श्रमण संयत सन्त शास्त्रानुकूल चलते हमको चलाते, वन्दूं उन्हें विनय से शिर को झुकाते ||३३६।।
गंभीर नीर निधि से, शशि से सुशान्त, सर्वसहा प्रवनि से, मणि मज़ुकान्त । तेजो मयी अरुण से, पशु से निरीह, प्रकाश से निरवलम्बन ही सदीह ॥ १ ॥
कदापि ।
निस्संग वायु समा, सिंह समा प्रतापी, स्थाई रहे उरग से न कही अत्यन्त ही सरल हैं मृग मे, जो भद्र है वृषभ मे गिरि में
स्वाधीन माधु गज मादृश स्वाभिमानी वे मोक्ष गोध करते सुन सन्त वाणी । ३३७ ।।
है लोक में कुछ यहाँ फिरते भाई तथापि मत्र मै तो श्रमाधु-जन को पं माधु के. स्तवन मैं
मुडोल अडोल ||२||
॥२॥
श्रमाधु,
वे कहलाते माधु । कह दूँ न माधु मन को लगा हूँ ॥ ३३८ ॥
सम्यक्त्व के मदन हो गोभ सुमप्रमतया तप मे ऐसे विशेष गुण ग्राकर हो तो वारम्वार गिर मैं उनकी
[ ६७ ]
वर-बोध-धाम,
ललाम ।
मुमाधु, नवा दु ||३३९||
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एकान्त मे मुनि, न कानन-वास में हो म्वामी नहीं श्रमण भी कचलोच में हो। प्रोंकार जाप जप, ब्राम्हण ना बनेगा, छालादि को पहन तापस ना कहेगा ॥३४०
विज्ञान पा नियम में मुनि हो यशस्वी, सम्यक्तया तप तपे तब हो तपस्वी । होगा वही श्रमण जो समता धरेगा, पा ब्रम्हचर्य फिर ब्राम्हण भी बनेगा ॥३४॥
हो जाय साधु गुण, पा गुण खो प्रमाधु, होवो गुणी, अवगुणी न बनो न म्वादु । जो गग रोष भर में ममभाव धारें,
वन्य पूज्य निज में निज को निहारें ||३४२।।
जो देह में रम रहें विषयी कषायी, शुद्धास्म का स्मरण भी करते न भाई ! वे साधु होकर बिना दृग, जी रहे हैं, पीयूष छोरकर हा ! विष पी रहे है ॥३४३।।
भिक्षार्थ भिक्षु चलते बहु दृश्य पाते, मच्छे दुरे श्रवण में कुछ शब्द पाते । में बोलते न फिर भी सुन मौन जाते माते न हर्ष मन में न विषाद लाते ॥३४४।।
स्वाध्याय ध्यान तप में प्रति मग्न होते, जो दीर्घ काल तक हैं निशि में न मोते । तत्वार्थ चितन मदा करते मनस्वी, निद्राजयः इमलिए बनते तपम्वी ॥३४॥
[ ६८ ]
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जो अग संग रखता ममता नही है, है संग-मान तजता समता धनी है है साम्यदष्टि रखता सब प्राणियों में, प्रो माधु धन्य, रमना नहि गारवों मे।।३४६।।
जो एक मे मरण जीवन को निहारे, निन्दा मिले यश मिले सम भाव धारे । मानापमान, मुख-दुःख समान माने, वे धन्य माधु, सम लाभ अलाभ जाने ॥३४७
ग्रालम्य--हास्य तज शोक अशोक होने, ना शल्य गारव कषाय निकाय ढोने । ना भीति वधन-निदान-विधान होते, वे माधु वन्द्य हम को, मन मैल धोने ॥३४॥
हो अग गग अथवा छिद जाय य ग, भिक्षा मिलो, मत मिलो इक मार ढग । जो पारलौकिक न लौकिक चाह धारे, वे माधु ही वम ! बमे उर में हमारे ।।३४९।।
है. हेय भूत विधि अाम्रव रोक देते, प्रादेय भूत वर मंवर लाभ लेने । अध्यात्म ध्यान यम योग प्रयोग द्वारा, है माधु लीन निज में तज भोग मारा ।।३५०॥
जीतो सही दृगसमेत परीषहों को शीतोष्ण भीति रति प्यास क्षुधादिकोंको । स्वादिष्ट इष्ट फल कायिक कष्ट देता, रसा जिनेश कहते शिव पन्थ नेता ।।३५१॥
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शास्त्रानुसार तब ही तप साधना हो, ना बार बार दिन में इक बार खाम्रो । ऐसा ऋषीश उपदेश सभी सुनाते, जो भी चले तदनुसार स्वधाम जाते ॥३५२॥
मासोपवास करना वनवास जाना, प्रातापनादि तपना तन को मुखाना। सिद्धान्त का मनन, मौन सदा निभाना, ये व्यर्थ है श्रमण के विन माम्य वाना ॥३५३।।
विज्ञान पा प्रथम, संयत भाव धारो, रे ! ग्राम में नगर में कर दो विहारो। संवेग शान्तिपथ पे गममान होवो, होके प्रमत्त मत गौतम ! काल खोप्रो ॥३५४।।
होगा नही जिन यहाँ, जिन धर्म प्रागे, मिय्यात्व का जब प्रचार नितान्त जागे । हे ! भव्य गौतम ! अतः अव धर्म पाया, धारो प्रमाद पल भी न, जिनेश गाया ॥३५५।।
हो बाह्य भेप न कदापि प्रमाण भाई ! देता जभी तक असंयत में दिखाई। रे वेष को बदल के विष जो कि पीता। पाता नही मरण क्या -रह जाय जीता ? ॥३५६॥
हो लोक को विदित ये जिन साधु आये, शास्त्रादि साधन सुभेष मतः बनाये । प्रो वाह्य संयम न, लिंग बिना चलेगा, जो अंतरंग यम साधन भी बनेगा ॥३५७७
[ ७. ]
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ये दीखते जगत में मुनिसाधुत्रों के, है भेष, नेक विध भी गृहवासियों के ! वे अज्ञ मूढ़ जिनको जब धारते हैं, है मोक्ष मार्ग यह यों बस मानते है || ३५८ ।। निस्सार मुष्टि वह अन्दर पोल वालीबेकार नोट यह है नकली निराली । हो काँच भी चमकदार सुरत्न जैसा, ज्यों जोहरी परखता नहि मूल्य पंसा । पूर्वोक्त द्रव्य जिस भांति मुधा दिखाते, है मात्र भेष उस भाँति सुधी बताते ।। ३५९ ।।
गुण दोष हेतु, सिन्धु मेतु ॥ ३६० ॥
है भाव लिङ्ग वर मुख्य श्रतः मुहाता, है द्रव्य लिङ्ग परमार्थ नही कहाता । है भाव ही नियम से होता भवोदधि वही भव ये " भाव शुद्धतम हो" जब लक्ष होता, है बाह्य संग तजना फलरूप होता । जो भीतरी कलुषता यदि ना हटाता, तो बाह्य त्याग उसका वह व्यर्थ जाना ।।३६१।। जो अच्छ स्वच्छ परिणाम बना न पातं,
बाहरी सव परिग्रह को हटाने । वं भाव- शून्य करनी करते कराते, लेते न लाभ शिव का दुख ही उठाते । ३६२|| कापायिकी परिणती जिसने घटा दी,
श्रौ निन्द्य जान तन की ममता मिटा दी । शुद्धात्म में निरत है तज गंग संगी, हो पूज्य साधु वह पावन भाव लिगी ।। ३६३॥
[ ७१ ]
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२५ व्रत सूत्र हिमादि पंच अघ हैं तज दो अघों को, पालो मभी परमपच महाव्रतों को । पश्चात् जिनोदित पुनीत विरागता का, पाम्वाद लो, कर प्रभाव विभावता का ॥३६४।।
वे ही महाव्रत नितान्न मुमाधु धारे, निःशल्य हो विचरने त्रय गल्य टारें। मिथ्या निदान वतघातक शल्य माया एमा जिनेश उपदेश हमें मुनाया ।।३६५। है मोक्ष की यदि व्रती करता उपेक्षा, चारित्र ले विषय की रखता अपेक्षा । तो मढ़ भूल मणि जो अनमोल, देता धिकार कांच मणि का वह मोल लेना ॥३६६॥ जो जीव थान, कुल मार्गण योनियों में, पा जीववोध, करुणा रखता मवो में । प्रारम्भ त्याग उनको करता न हिमा, हो माधु का विमल भाव वहो अहिसा ।।३६७।।
निकर है परम पावन यागमा का, भाई। उदार उर धार्मिक प्राथमो का । सारे ब्रों मदन है, सब मद्गुणो का, प्रादेय है विमल जावन साधुप्रो का । है विश्वसार जयवन्त रहे हिमा, होती रहे सतत ही उसकी प्रगमा ।३६॥ ना क्रोध भीतिवश स्वार्थ तराजु तोलो, लेनो न मोल अष हिसक बोल बालो। होगा द्वितीय वत सत्य वहो तुम्हारा, मानन्द का सदन जीवन का महारा ॥३६९।।
[ २ ]
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जो भी पदार्थ परकीय उन्हें न लेते, वे साधु देखकर भी बम छोड देते । है स्तेय भाव तक भी मन में न लाते, अस्तेय है व्रत यही जिन यों बताने ॥३७०।
ये द्रव्य चेतन अचेतन जो दिखाते, माधू न भूलकर भी उनको उठाते । ना दॉत साफ करने तक सीक लेते, अत्यल्प भी बिन दिये कुछ भी न लेते ।।३७१।।
भिक्षार्थ भिक्षु जब जायं, वहाँ न जायं, जो स्थान वजित रहा अघ हो न पायं । वे जायं जान कुल की मित भूमि ली ही, अस्तेय धर्म परिपालन श्रोट मो ही।।३७२।। अब्रह्म मेवन अवश्य अधर्म मन । है दोप धाम दख दे जिग भाति गल । निग्रन्थ वे इमलिए मब अन्य व्यागी, मेवे न मंथन कभी मुनि वीतगगी ॥३॥ माता मुता बहन मी लखना स्त्रियों को, नारी कथा न करना भजना गणो को । श्री ब्रह्मचर्य व्रत है यह मार हन्ता, है पूज्य वन्द्य जग में मुम्ब दे अनन्ता ॥३॥ जो अन्तरग बहिरग निमग होता, भोगाभिलाप बिन चारित भार ढोना है पांचवां व्रत "परिग्रह त्याग" पाता, पाता स्वकीय मुख, न दुख क्यों उठाता ?॥३३५।।
[ ७३ ]
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दुर्गन्ध अंग तक "संग" जिनेश गाया, यों देह से खुद उपेक्षित हो दिखाया । क्षत्रादि बाह्य सब संग प्रतः विसारो, होके निरीह तन से तुम मार मारो ॥३७६॥ जो मांगना नहिं पड़े गृहवासियों से, ना हो विमोह ममतादिक भी जिन्हों मे। एं मे परिग्रह रखें उपयुक्त होवे, पं अल्प भी अनुपयुक्त न माधु दोवें ॥३७७।।
जो देह देश-श्रम-काल बलानुसार, आहार ले यदि यती करता विहार । नो अल्प कर्म मल से वह लिप्त होता, औचित्य एक दिन है भव मुक्त होता ॥३७८।।
जो बाह्य में कुछ पदार्थ यहाँ दिखाते, वे वस्तुत: नहि परिग्रह है कहाने । मूर्छा परिग्रह परन्तु 'यथार्थ में है, श्री वीर का सदुपदेश मिला हमें है ।।३७९॥
ना संग संकलन संयत हो करो रे ! शास्त्रादि साधन मुचारू मदा धरी रे । ज्यों संग की विहग ना रखने अपेक्षा त्यों संयमी ममरसी, सबकी उपेक्षा ॥३८०॥
पाहार-पान-शयनादिक खूब पाते, पै अल्प में सकल कार्य सदा चलाते । मंतोष-कोष, गतरोष, प्रदोष साधु, वे धन्य धन्यतर हैं शिर मैं नवा दूं ॥३०॥
[ ७४ ]
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ना स्वप्न में न मन में न किसी दशा में, लेते नहीं प्रशन वे मुनि हैं निशा में । जिह्याजयी जितकषाय जिताक्ष योगी, कैमे निशाचर बनें, बनते न भोगी ॥३८२॥ पाकीर्ण पूर्ण धरती जब थावरों से, मूक्ष्मातिसूक्ष्म जग जंगम जंतुओं मे : वे रात्रि में न दिखते यग लोचनों मे, कमे बने अशन शोधन साधुओं मे ?।।३८३।।
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२६ समिति गुप्ति सूत्र
(प्र) अष्ट प्रवचन माता ईर्या रही समिति प्राद्य द्वितीय भाषा, तीजी गवेषप धरे नश जाय पाशा । प्रादान निक्षिपण-पुण्य निधान चौथा व्युत्मर्ग पचम रही सुन भव्य श्रोता । कायादि भेद वग भी त्रय गुप्तियाँ है, ये गुग्नियां ममितियां जननी समा है ॥३८४॥ माता म्वकीय मुन की जिम भांति रक्षा, कर्तव्य मान करती, बन पूर्ण दक्षा, गुप्त्यादि अप्ट जननी उस भांति सारी, रक्षा मुरत्नत्रय की करती हमागे ।।३८५॥ निर्दोप में ग्ति पालन पोपनार्थ, उल्लेविना ममितियां गुरु में यथार्थ । ये गुप्तिया इमलिये गुरु ने बताई, कापापिकी परिणती मिट जाय भाई ! ।।८६।।
निर्दोप गुप्तित्रय पालक माधु जैसे, निर्दोप हो ममितिपालक ठीक वैमे । वे तो अगुप्ति भद-मानस-मेल धोने, ये जागने समिति-जात प्रमाद खोते ॥१८॥
जी जाय जोव अथवा मर जाय हमा, ना पालना समितियां बन जाय हिसा। होती रहे वह भले कुछ बाह्य हिंसा, तू पालता समितियां पलती महिसा ॥३८८।।
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जो पालते समितियाँ, तत्र द्रव्य हिंसा, होती रहे, पर कदापि न भाव हिसा । होनी असंयमतया वह भाव हिसा, हो जीव का न वध पे बन जाय हिंसा ||३८९ ॥
सतत वे करते कराते,
हैं
कहाते ।
श्रहिसा,
प्रशंसा ||३९०।
हिमा द्विधा
जो मत्त संयत श्रमयत
पं प्रप्रमत्त मुनि धार
होने गुणाकर, करूं
द्विधा
उनकी
उठ बैठ
जाता,
मर जीव
जाता ।
आता यती समिति से भाई तदा यदि मनो साधू तथापि नहि है अघकमं पाता, दोषी न हिंसक, प्रहिंसक ही कहाता ।। ३९१।।
संमोह को तुम परिग्रह नित्य मानी, हिसा प्रमाद भर को सहमा पिछानो । अध्यात्म ग्रागम ग्रहो इस भांति गाता, भव्यात्म को सतत शान्ति सुधा पिलाता ।। ३९२॥
ज्यों पद्मिनी वह सचिक्कन पत्रवाली, हो नीर में न सड़ती रहती निराली । त्यों माधु भी समितियां जब पालता है, ना पाप लिप्त बनता सुख साधना है ।। ३९३॥
समितिपूर्वक दु:खहर्ता,
प्राचार हो है धर्म-वर्धक तथा सुख-शान्ति कर्ता ।
है धर्म का जनक चालक भी वही है ।
धारो उसे मुकति की मिलती मही है ।। ३९४ ।।
[
७७ ]:
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माता यती विचरता, उठ बैठ, जाता, हो सावधान तन को निशि में सुलाता। पो, बोलता, प्रशन एषण साथ पाता, तो पाप कर्म उसके नहि पास आता ॥३९॥
(मा) समिति हो मार्ग प्रासुक, न जीव विराधना हो, जो चार हाथ पथ पूर्ण निहारना हो। ले स्वीय कार्य कुछ 4 दिन में चलोगे, इर्यामयी समिति को तब पा सकोगे ॥३९६।। संसार के विषय में मन ना लगाना, स्वाध्याय पंच विध ना करना कराना। एकाग्र चित्त करके चलना जभी हो, ईर्या सही समिति है पलती तभी प्रो ।।३९७।। हों जा रहे पशु यदा जल भोज पाने, जाम्रो न सन्निकट भी उनके सयाने । हे साधु ! ताकि तुम से भय वे न पावें, जो यत्र तत्र भय से नहिं भाग जावे ॥३९८।। प्रात्मार्थ या निजपरायं परार्थ साधु, निम्सार भाषण करे न, स्वधर्म म्वादु । बोले नहीं वचन हिंसक मर्म-भेदी, भापामयी समिति पालक प्रात्म-वेदी ॥३९९
बोलो न कर्ण कटु निन्द्य कठोर भाषा, पावे न ताकि जग जीव कदापि त्रासा । हो पाप बन्ध वह सत्य कभी न वोलो, घोलो सुधा न विष में, निज नेत्र खोलो ।४००।
[ ७८ ]
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हो एक नेत्र नर को कहना न काना, और चोर को कुटिल चोर नहीं बताना । या रुग्ण को तुम न रुग्ण कभी कहो रे । ना! ना! नपुंसक नपुसक को कहो रे ॥४०१॥
साधू करे न परनिंदन प्रात्म-शंसा, बोले न हास्य, कटु-कर्कश-पूर्ण भाषा । स्वामी ! करे न विकथा, मितमिष्ट बोले, भाषामयी समिति में नित ले हिलोरे ।।४०२।।
हो स्पष्ट हो विषद संशय नाशिनी हो, हो श्राव्य भी सहज हो सुख कारिणी हो । माधुर्य - पूर्ण मित मार्दव-मार्थ-भाषा बोले महामुनि, मिले जिममे प्रकाशा ।।४०३।।
जो चाहता न फल दुर्लभ भव्य दाता, माधु अयाचक यहाँ विरला दिखाता । दोनों नितान्त द्रुत ही निज धाम जातं, विश्रान्त हो महज में सुख शान्ति पाते ।। ४०४।। उत्पादना-प्रशन-उद्गम दोप हीनपावाम अन्न शयनादिक ले, स्वलीन । वे एपणा ममिति साधक माधु प्यारे, हो कोटिगः नमन ये उनको हमारे ।।४०५।।
प्रास्वाद प्राप्त करने वन कान्नि पाने, लेते नही अशन जीवन को बढ़ाने । पै माधु ध्यान ता संयम बाध पाने, लेते अतः अगन अल्प अये ! मयाने ॥४०६।।
। ६
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गाना सुना गुण गुणा गण पट् पदों का, पीता पराग रम फूल - फलों दलों का । देता परन्तु उनको न कदापि पीडा. होता मुतृप्त करता दिन रैन क्रीड़ा ||४०७॥
दाना यथा विधि यथाबल दान देने, देते बिना दुख उन्हें मुनि दान लेते । यों माधु भी भ्रमर मे मृदुता निभाते, वे एणा समिति पालक है कहाते ॥ ४०८ ॥ उहिष्ट, प्रामुक भले, यदि ग्रन्न लेते, वं माधु, दोष मन में व्रत फेंक देते । उद्दिष्ट भोजन मिले, मुनि शास्त्रानुसार यदि ले, नहि
वीतरागी, दोषभागी ॥। ४०९ ॥
"
जो देखभाल कर मार्जन पिच्छिका से, शास्त्रादि वस्तु रम्बना गहना दया से । प्रादान निक्षिपण है समिति कहाती, पाले उसे सतत साधु, मुम्बी बनाती ॥ ४१०
एकान्त हो विजन विस्तृत ना विरोध, मम्यक् जहाँ बन सके त्रस जीव शोध । ऐसा प्रचित्त थल पे मलमूत्र त्यागे व्युत्सर्गरूप-समिती गह साधु जागे ॥ ४११ ॥
प्रारम्भ में न ममरम्भन
में लगाना,
संसार के विषय से मन
को हटाना ।
होती तभी मनसगुप्ति
सुमुक्ति-दात्री,
ऐसा कहें श्रमणश्री जिन शास्त्र शास्त्री ।।४१२७
[ ८० ]
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प्रारम्भ में न समरम्भन में लगाते, सावद्य से वचन योग यती हटाते । होती तभी वचन गुप्ति सुखी बनाती, कैवल्य ज्योति झट मे जब जो जगाती ॥४१३।।
प्रारम्भ में न समरम्भन में लगाने, ना काय योग अघ कर्दम में फमाते । यो कायगुप्ति, जङकाय विनागती है, विज्ञान-पक ज-निकाय विकाशती है ।।८१४॥
प्राकार ज्यों नगर की करता सुरक्षा, किवा मुवाड कृषि की करती सुरक्षा । त्यों गप्निया परम पन्च महाव्रतों की, रक्षा मदैव करती मुनि के गुणों की ।। ४१५।।
जो गुनियाँ मितियां नित पालते है. मम्यक्तया स्वयम को ऋपि जानते है । वे गीघ्र बोध बल दर्शन धारते है, गंमार मागर किनार निहारते है ।।४१६।।
हो भेद ज्ञानमय भानु उदीयमान, मध्यस्थ भाव वश चारित हो प्रमाण । ऐसे चरित्रगुण में पुनि पुष्टि लाने, होते प्रतिक्रमण अादिक ये सयाने ! ॥४१७।।
मदध्यान में श्रमण अन्तग्धान होके, रागादिभाव पर हैं पर भाव रोके । वे ही निजातमवशी यति भव्य प्यारे, जाते प्रवश्यक कहे उन कार्य सारे ।।४१८ ।
[ ८१ ]
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भाई तुझे यदि आवश्यक पालना है, होके समाहित स्व में मन मारना है । हीराभ सामयिक में द्युति जाग जाती सम्मोह तामस निशा झट भाग जाती ॥४१९॥
जो माधु हो न पडवश्यक पालता है, चारित्र में पतित हो सहता व्यथा है । प्रात्मानुभूति कब हो यह कामना है, पालम्य त्याग पडवश्यक पालना है ॥४२०॥
सामायिकादि पडवश्यक साथ पालें जो साधु निश्चय सुचारित पूर्ण प्यारे व वीतरागमय शुद्धचरित्र धारी, पूजो उन्हें परम उन्नति हो तुम्हारी ॥४२१।।
पालोचना नियम प्रादिक मनमान, भाई प्रतिक्रमण शाब्दिक प्रत्यम्यान । स्वाध्याय ये, चरितम्प गये न माने, चारित्र आन्तरिक पात्मिक है सयाने ! ॥४२२।।
संवेगधारक यथोचित शक्तिवाले, ध्यानाभिभूत षडवश्यक साधु पाले । ऐसा नहीं यदि बने यह श्रेष्ठ होगा, श्रद्धान तो दृढ़ रखो, द्रत मोक्ष होगा ॥४२३।।
सामायिकं जिनप की स्तुति वन्दना हो, कायोतसर्ग समयोचित साधना हो, सच्चा प्रतिक्रमण हो अघप्रत्यख्यान पाले मुनोश षडवश्यक बुद्धिमान ॥४२४॥
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लो ! कांच को कनक को सम ही निहारे, वैरी सरोदर जिन्हें इकसार सारे ।
स्वाध्याय ध्यान करते मन मार देते, ' वे साधु सामायिक को उर थार लेते ४२५।।
• वाक्योग रोक जिसने मन मौन धारा,
औ वीतराग बन पातम को निहारा । होती समाधि परमोत्तम ही उसी की, पूजू उमे, भरण और नही किमी को ।।४२६॥
प्रारम्भ दम्भ तजके त्रय गप्ति पाले, है पच टन्द्रियजयी ममदृष्टि वाले। स्थाई सुसामयिक है उनमे दिखाता, यों केवली परम शासन गीत गाता ॥४२७।'
है साम्यभाव रखते त्रम थावरों में, म्थाई मुमामयिक हो उन माधुम्रो मे। ऐसे जिनेश मत है मत भूल रे ! तू, भाई! अगाध भव वारिधि मध्य मेतु ॥४२८।।
आदीश आदि जिन है उन गीत गाना, लेना मुनाम उनके यश को बढाना । प्रो पूजना नमन भी करना उन्ही को, होता जिनेश ग्तव है प्रण{ उमी को॥४२९॥
द्रव्यों थलों समयभाव प्रणालियों में, है दोष जो लग गये, अपने व्रतों में । वाक्काय मे मनस से उनको मिटाने, होती प्रतिक्रमण की विधि है सयाने । ॥४३०।।
[ ८३ ]
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पालोचना गरहणा करता स्वनिन्दा, जो साधु दोष करता अघ का न धन्धा । होता प्रतिक्रमण भाव मयी वही है, तो दोष द्रव्यमय है रुचते नही है ।।४३१॥
रागादि भावमल को मन मे हटाता, हो निर्विकल्प मुनि है निज प्रात्म ध्याता । मारी क्रिया वचन की तजता मुहाता, मच्चा प्रतिक्रमण लाभ वही उठाता ।। ४३२॥
म्वाध्याय रूप सर में अवगाह पाता, सम्पूर्ण दोष मल को पल में धुलाना मद्ध्यान ही मिपम कल्मष पातको का, मच्चा प्रतिक्रमण है घर मद्गुणो का ।।४३३॥
है देह नेह तज के जिन गीत गाते । साधु प्रतिक्रमण है करते सुहाते । कायोतसर्ग उनका वह है कहाता, संमार में सहज शाश्वत शातिदाता ॥४३४।।
घोरोपसर्ग यदि हो प्रसुरों सुरों मे, या मानवों मृगगणों मरुतादिकों से । कायोतमर्गरत साधु सुधी तथापि, निस्पन्द शैल, लसते समता-मुधा पी ।।४३५॥ हो निर्विकल्प तज जल्प-विकल्प मारे, साधु अनागत शुभाशुभ भाव टारे शुदात्म ध्यान सर मे डुबकी लगाते, वे प्रत्यख्यान गुण धारक है कहाते ।।४३६।।
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जो मातमा न तजता निज भाव को है, स्वीकारता न परकीय विभाव को है। दृष्टा बना निखिल का परिपूर्ण ज्ञाता, "मैं ही रहा वह" सुधी इस भांति गाता ॥४३७।।
जो भी दुराचरण है मुझ में दिखाता, वाक्काय से मनस से उसको मिटाता । नीराग सामयिक को विविधा करूँ मैं तो बार-बार तन धार नहीं मरूँ मैं ।।४३८॥
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२८ तप सूत्र (प्र) बाह्य तप
जो ब्रम्हचर्य रहना, जिन ईश पूजा,
सारी कषाय तजना,
तजना न ऊर्जा ।
ध्यानार्थ अन्न तजना
प्रायः सदा भविक लोग
में द्विविध रे
!
'तप' ये कहाते,
इन्हें निभाते ||४३९ ||
है मूल जो अन्तरंग बहिरंग तया सुहाता । हैं अन्तरंग तप के छह भेद होते हैं भेद बाह्य तप के उतने ही होते ||४४० ।।
तप मुक्तिदाता,
"ऊनोदरी " " अनशना" नित पाल रे !
तू
"भिक्षा क्रिया" रस विमोचन मोक्ष हेतु । "संलीनता" दुःख निवारक ये बाह्य के छह हुए कहते
कायक्लेश,
जिनेश ॥ ४४१ ॥
जो कर्म नाश करने है त्यागता प्रशन को, तन को साधू वही अनशना तप
होती सुशोभित तभी जग
समयानुसार,
संवार ।
साधता है,
साधुता है || ४४२ ||
श्रुत-बोध पाने,
शाने ।
प्रहार अल्प करते वे तापसी समय में कहलाय भाई बिना श्रुत उपोषण प्राण खोना । प्रात्मावबोध उससे न कदापि होना । ४४३ ॥
ना इन्द्रियाँ शिथिल हों मन हो न पापी, ना रोगकानुभव काय करे कदापि, होती वही मनशना, जिससे मिली हो भारोग्यपूर्ण नव चेतनता खिली हो || ४४४ ॥
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उत्साह-चाह-विधि-राह पदानुसार, मारोग्य-काल-निज देह बलानुसार । ऐसा करें अनशना ऋषि साधु सारे, शुद्धात्म को नित निरंतर वे निहारें ॥४४५।।
लेते हुए प्रशन को उपवास साधे । जो साधु इन्द्रियजयी निजको अगधे । हों इन्द्रियाँ शमित तो उपवास होता, धोता कुकर्म मल को, सुख को संजोता ।।४४६।।
मासोपवास करते लघु धी यमी में, ना हो विशुद्धि उतनी, जितनी सुधी में । पाहार नित्य करते फिर भी तपस्वी, होते विशुद्ध उर में, श्रुत में यशस्वी !!४४७।।
जो एक-एक कर ग्रास घटा घटाना, प्रो भूख से प्रशन को कम न्यन पाना ऊनोदरी तप यही व्यवहार में है, ऐसा कहें गुरु, सुद बिकार में है ।।८४८।।
दाता खड़े कलश ले हंसते मिले तो । लेऊ तभी प्रशन प्राङ्गण में मिले तो। इत्यादि नेम मुनि ले अशनार्थ जाते, भिक्षा क्रिया यह रही गुरु यों बनाते ।। ४८१।।
स्वादिष्ट मिष्ट प्रति इन्ट गरिप्ट खानाघी दूध मादि रस हैं इनको न वाना । माना गया तप वही "रस त्याग" नामा धार उमे, वर सकू वर मुक्ति रामा ।। ४५०।।
[ ६७ ]
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एकांत में, विजन कानन मध्य जाना, श्रद्धासमेत शयनासन को लगाना, । होगा वही तप सुधारस पेय प्याला, प्यारा "विविक्त शयनासन' नाम वाला ॥४५१॥ वीरासनादिक लगा, गिरि गव्हरों में, नाना प्रकार तपना वन कन्दरों में । है कायक्लेश तप, तापस तापतापी पुण्यात्म हो धर उसे तज पाप पापी ॥४५२।।
जो तत्व बोध सुखपूर्वक हाथ आता । पाते हि दुःख झट से वह भाग जाता । वे कायक्लेश समवेत प्रतः सुयोगी, तत्वानुचितन करें समुपोपयोगी ॥४५३।। जाता किया जब इलाज कुरोग का है, ना दुःख हेतु सुख हेतुन रुग्ण का है। भाई इलाज करने पर रुग्ण को ही, हो जाय दुःख, सुख भी सुन भव्य' मोही !॥४५४।। त्यों मोहनाश सविपाकतया यदा हो, ना दुःख हेतु सुख हेतु नहीं तदा हो । पं मोह के विलय में रत है वसी को, होता कभी दुःख कभी सुख भी उसी को ॥४५५।।
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(प्रा) प्राभ्यन्तर तप "प्रायश्चिता" "विनय" प्रौ ऋषि साधु सेवा, "स्वाध्याय" ध्यान धरते वरबोध मेवा व्युत्सर्ग, स्वर्ग अपवर्ग महर्घ-दाता हैं अन्तरंग तप ये छह मोक्ष धाता ।।४५६।। जो भाव है समितियों व्रत संयमों का, प्रायश्चिता वह सही दस इन्द्रियों का । ध्याऊँ उसे विनय से उर में बिठाता, होऊँ अतीत विधि से विधि सो विधाता ॥४५७।। कापायिकी विकृतियाँ मन में न लाना, आ जाय तो जब कभी उनको हटाना। गाना स्वकीय गुणगीत सदा मुहाती, प्रायश्चिता वह सनिश्चय नाम पाती ॥४५८।।
वर्षों युगों भवभवों समुपाजितों का होता विनाश तप से भवबन्धनों का । प्रायश्चिता इसलिए "तप" ही रहा है त्रैलोक्य पूज्य प्रभु ने जग को कहा है ।।४५९।। पालोचना अरु प्रतिक्रमणोभया है, व्युत्सर्ग, छेद, तप, मूल, विवेकता है । श्रद्धान और परिहार प्रमोदकारी, प्रायश्चिता दशविधा इस भाँति प्यारी ।।४६०।। विक्षिप्त चित्तवश प्रागत दोषकों की, हेयों अयोग्य अनभोग कृतादिकों की। मालोचना निकट जा गुरु के करो रे । भाई, नहीं कुटिलता उर में धरो रे ! ॥४६१॥
| ८६
।
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मा को यथा तनुज, कार्य प्रकार्य को भी, है सत्य, सत्य कहता, उर पाप जो भी, मायाभिमान तज, साधु तथा श्रघों कीगाथा कहें, स्वगुरु को, दुखदायकों की ॥ ४६२ ॥
में जो,
हो ।
ज्यों ही निकाल उनको हम फेंक देते, त्यों हो सुशीघ्र सुखसिंचित स्वास लेते ||४६३॥
हैं शल्य शूल चुभते जब पाद दुर्वेदनानुभव पूरण अङ्ग
में
जो दोष को प्रकट ना करता छुपाता, मायाभिभूत यति भी प्रति दुःख पाता । दोषाभिभूत मन को गुरु को दिखाम्रो निःशल्य हो विमल हो सुख शांति पाओ ॥ ४६४
विराम पावें,
सहसा सुहावें । चेतना में
आत्मीय सर्व परिणाम वे साम्य के सदन में डूबो लखो बहुत भीतर श्रालोचना बस यही जिन देशना
में ॥ ४६५ ॥
प्रत्यक्ष-सम्भख सुत्री गुरु सन्त आते होना खड़े कर जुड़े शिर को झुकाते । दे प्रासनादि करना गुरु भक्ति सेवा, माना गया विनय का तप प्रो सदेवा ||४६६ ॥
चारित्र, ज्ञान, तप, दर्शन, श्रौपचारी,
ये पांच हैं विनय भेद, बारो इन्हें विमल निर्मल दुःखावसान, सुख आगम शीघ्र होगा || ४६७ ||
[ ε• ]
प्रमोदकारी ।
जीव होगा,
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है एक का वह समादर सर्व का है, तो एक का यह अनादर विश्व का है। हो घात मूल पर तो द्रुम सूखता है, दो मूल में सलिल, पूरण फूलता है ॥४६न।।
है मूल ही विनय पाहत शासनों का, हो संयमी विनय से घर सद्गुणों का । वे धर्म कर्म तप भी उनके वृथा हैं, जो दूर हैं विनय से सहते व्यथा है ॥४६९।।
उद्धार का विनय द्वार उदार भाता, होता यही सुतप संयम-बोध-धाता। प्राचार्य संघभर की इससे सदा हो, आराधना, विनय से सुख सम्पदा हो ॥४७०॥
विद्या मिली विनय से इस लोक में भी, देती सही सुख वहां पर लोक में भी । विद्या न पं विनय-शून्य सुखी बनाती, शाली, विना जल कभी फल-फूल लाती?।४७१।।
अल्पज्ञ किन्तु विनयी मुनि मुक्ति पाता, दुष्टाष्ट कर्म दल को पल में मिटाता । भाई अतः बिनय को तज ना कदापि सच्ची मुधा समझ के उसको मदा पी ॥४७२।।
जो अन्न पान शयनासन प्रादिकों को, देना यथा समय सज्जन साधुओं को। कारुण्य द्योतक यही भवताप हारी, सेवामयी मृतप है शिवसौख्यकारी ॥४७॥
[ ११ ]
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साधू बिहार करते करते थके हों, वार्धक्य की अवधि पे बस पा रुके हों। खानादि से व्यथित हों नप से पिटायें, भिक्ष रोगवश पीड़ित हों सताये । रक्षा संभाल करना उनकी सदेवा, जाता कहा "सुतप" तापस साधु सेवा ।।४७४।। सद्वाचना प्रथम है फिर पूछना है, है प्रानुप्रेक्ष क्रमशः परिवर्तना है। धर्मोपदेग मुग्वदायक है सुधा है, स्वाध्याय रूप तप पावन पंचधा है ।।४७५।।
मामूलतः बल लगा विधि को मिटाने, पै ख्याति लाभ या पूजन को न पाने । सिद्धान्त का मनन जो करता-कराता, पा तत्व बोध बनता सुखधाम, धाता ॥४७६।। होते नितान्त समलंकृत गुप्तियों से, तल्लीन भी विनय में मृदु वल्लियों में। एकाग्र मानस जितेंद्रिय प्रक्ष-जेता, स्वाध्याय के रसिक वे ऋषि साधु नेता ॥४७७।।
सध्यान सिदि जिन प्रागम ज्ञान से हो, तो निर्जरा करम की निज ध्यान से हो । हो मोक्ष लाभ सहसा विधि निर्जरा से स्वाध्याय में इसलिए रम जा जरा से।४७८।।
स्वाध्याय सा न तप है, नहिं था न होगा, यों मानना अनुपयुक्त कभी न होगा। सारे इसे इसलिए ऋषि सन्त त्यागी, धारें, बनें विगतमोह, बनें विरागी ।।४७९५
[२२]
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जा बैठना शयन भी करना तथापि, चेष्टा न व्यर्थ तन की करना कदापि । व्युत्मर्गरूप तप है, विधि को तपाता, पीताभ हेम सम प्रातम को बनाता ।।४८०॥
कायोतसर्ग तप मे मिटती व्यथायें, हो ध्यान चित्त स्थिर द्वादश भावनायें । काया निगेग बनती मति जाड्य जाती, मंत्राम मौख्य सहने उर शक्ति पाती ।।४८११!
लोकेशनार्थ तपते उन साधुनों का, ना शुद्ध हो तप महाकुलधारियों का। गमा अतः न अपने तप की करी रे ! जावे न अन्य जन यों तप धार लो रे ।।४८२।। स्वामी समाहत विबोध मुवात में है, उदीप्त भी तपहतागन गील में है। वैमा कुकर्म वन को पल में जलाता, जैमा वनानल घने वन को जलाना ।।४८३॥
[ ६३ ]
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२६ ध्यान सूत्र ज्यों मूल, मुख्य द्रुम में जग में कहाता, या देह में प्रमुख मस्तक है मुहाना । त्यों ध्यान ही प्रमुख है मुनि के गुणों में, धर्मों तथा सकल आचरणों व्रतों में ॥४८४।।
सध्यान है मनस की स्थिरता सुधा है, तो चित्त की चपलता त्रिवली विधा है । चिन्ताग्नुपेक्ष क्रमशः वह भावना है, तीनों मिटें बम यही मम कामना है ॥४८५।। ज्यों नीर में लवण है गल लीन होता, योगी समाधि सर में लवलीन होता। अध्यात्मिका धधकती फलरूप ज्वाला, है नागती द्रुत शुभाशुभ कर्म शाला ॥४८६।। व्यापार योगत्रय का जिसने हटाया, समोह राग रति रोषन को नगाया। ध्यानाग्नि दीप्त उसमें उठती दिखाती, है राख राख करती विधि को मिटाती ॥४८७।। बैठे करे स्वमुख उत्तर पूर्व में वा, ध्याता सुधी, स्थित सुखासन से सदेवा । मादर्श-सा विमल चारित काय वाला, पीता समाधि-रस पूरित पेय प्याला ॥४८८।।
पल्यंक पासन लगाकर प्रात्म ध्याता, नासाग्र को विषय लोचन का बनाता। व्यापार योग त्रय का कर बन्द ज्ञानी, उच्छवास श्वास गति मंद करें प्रमानी ॥४८९॥
[ ६४ ]
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गर्हा दुराचरण की अपनी करो रे ! माँगो क्षमा जगत से मन मार लो रे ! हो श्रप्रमत्त तब लौं निज आत्म ध्यानो, प्राचीन कर्म जब लौं तुम ना हटायो ॥ ४९० ।।
मोद पाता -
निस्पंद योग जिसके, मन सद्ध्यान लोन, नहिं बाहर भूल जाता । ध्यानार्थ ग्राम पुर हो वन काननी हो, दोनों समान उसको, समता धनी हो ।।४९१ ।।
पीना समाधि-रस को यदि चाहते हो, जीना युगों युगयुगों तक चाहते हो । अच्छे बुरे विषय ऐंद्रिक है तथापि, ना रोप तोष करना, उनमें कदापि ॥ ४९२ ।।
निस्संग है निडर नित्य निरीह त्यागी, वैराग्य भाव परिपूरित है विरागी । वैचित्र्य भी विदित है भव का जिन्हों को, वे ध्यान लीन रहने, भजते गुणों को । ४९३ ।।
आत्मा अनन्त दृग, केवल बांध धारी, सौम्यकारी ।
प्राकार से पुरुष शाश्वत योगी नितान्त उसका उर ध्यान लाता । निर्द्वन्द्व पूर्ण बनना घ को हटाता ॥४९४॥
निकेतन में अपापी,
से
से लखते तथापि । आदि उपाधियों को,
वे त्याग, आप अपने गुणते गुणों को ।।४९५।।
। ६५ ]
आत्मा तना तन,
योगी उसे पृथक सयोग जन्य तन
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मेरे नहीं "पर" यहाँ पर का न मैं हूँ, हूँ एक हूँ विमल केवल ज्ञान मैं हूँ। यों ध्यान में मनत चितन जो करेगा, ध्याता म्व का बन, मुमुक्ति रमा वरेगा ।। ८५.६॥ जो ध्यान में न निजवेदन को करेगा, योगी निजी-परम-तत्व नही गहेगा । मौभाग्यहीन नर क्या निधि पा मकंगा ? दुर्भाग्य मे दुखित हो नित गे मकेगा ।।४९.७।।
पिण्डम्थ ग्रादिम पदम्थन रप हीन, है ध्यान तीन इनमे तुम हो विलीन । छद्मस्थता, मुजिनता, गिवमिद्धिता ये, तीनों ही नत् विषय है क्रमशः मुहाय ।।४९.८।।
खड्गामनादिक लगा युग वीर म्वामी, थे ध्यान में निरत अतिम तीर्थ नामी । वे स्वभ्र स्वर्गगत दृश्य निहारते थे, मकल्प के बिन समाधि सुधारते थे ।।४९९।।
भोगों, अनागत गतों व तथागतों की, कांक्षा जिन्हें न म्मृति, क्यों फिर पागतों की? ऐमे महर्षि जन कार्मिक काय को ही, क्षीणातिक्षीण करते बनते विमोही ।।५००।
चिता करो न कुछ भी मग से न डोलो, चेष्टा करो न तन से मुख मे न बोलो। यों योग में गिरि बनो, शुभ ध्यान होतामात्मा निजात्मरत ही सुख बीज बोता ।।५०१॥
[ ६६ ]
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है ध्यान में रम रहा सुख पा रहा है, गुद्धात्म ही बस जिसे प्रति भा रहा है । पाके कषाय न कदापि दुखी बनेगा, ईर्पा विपाद मद शोक नहीं करेगा ।।५०२ । वे घीर साधु उपसर्ग परीपहों मे, होते न भोक चिगते अपने पदों से । मायामयी अमर सम्पद वैभवों में, ना मुग्ध लुब्ध बनते निज ऋद्धियों में ॥५१॥
वर्षो पड़ा बहुत-सा तृण ढेर चारा, ज्यों अग्नि में झट जले बिन देर माग । न्यों गीघ्र ही भव भवाजित कर्म कूड़ा, ध्यानाग्नि में जल मिटे मुन भव्य मृटा ।।५०८।।
[ ९७ ]
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३०. अनुप्रेक्षा सूत्र म्वाधीन चित्त कर तू शुभ ध्यान द्वारा, कर्तव्य प्रादिम यही मुनि भव्य प्यारा । सध्यान संतुलित होकर भी सदा ये, भा भाव से सुखद द्वादश भावनायें ॥५०॥ संसार, लोक, नृष प्रास्रव, निर्जरा है, अन्यत्व प्रो अशुचि, अध्रुव संवरा है, एकत्व प्रो अशरणा प्रवबोधना ये, चिते सुषी सतत द्वादश भावनायें ॥५०६॥ है जन्म से मरण भी वह जन्म लेता, वार्धक्य भी सतत यौवन साथ देता। लक्ष्मी प्रतीव चपला बिजली बनी है, संसार ही तरल है स्थिर ही नहीं है ।।५०७॥ हे ! भव्य मोहघट को झट पूर्ण फोड़ो, सद्यःक्षयी विषय को विष मान छोड़ो। प्रो चित्त को सहज निविषयी बनायो, प्रौचित्य ! ! पूर्ण परमोत्तम सौख्य पाम्रो ॥५०८।। अल्पज्ञ ही परिजनों धन वैभवों को, है मानता "शरण" पाशव गोधनों को । ये है मदीय यह मैं उनका बताता, पं वस्तुतः शरण वे नहि प्राण त्राता ॥५०९॥ मैं संग शल्य त्रय को प्रययोग द्वारा, हैं हेय जान तजता जड़ के विकारा । मेरे लिए शरण त्राण प्रमाण प्यारी, हैं गुप्तियां समितियां भव दुःख हारी ॥५१०॥
[ १९ ]
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लावण्य का मद युबा करते सभी हैं, पं मृत्यु पा उपजते कृमि हो वहीं है। संसार को इसलिए बुष सन्त त्यागी, धिक्कारते न रमते उसमें विरागी ॥५११॥
ऐसा न लोक भर में थल ही रहा हो, मैंने न जन्म मृत दुःख जहाँ सहा हो। तू बार बार तन धार मरा यहाँ है, तू ही बता स्मृति तुझे उसको कहाँ है ।।५१२॥
दुलंध्य है भवपयोधि प्रहो ! प्रपारा, अक्षुण्ण जन्म बल पूरित पूर्ण खारा । मारी जरा मगरमच्छ यहाँ सताते, है दुःख पाक, इसका, गुरु हैं बताते ॥५१३ ।
जो साधु रत्नत्रय मंडित हो मुहाता, संसार में परम तीर्थ वही कहाता । संसार पार करता, लख क्यों कि मौका, हो रूढ़, रत्नत्रय रूप अनूप नौका ।।५१४।।
हे ! मित्र अाप अपने विधि के फलों को, हैं भोगते मकल जीव शुभाशुभों को तो कौन हो म्वजन ? कौन निरा पराया ? तू ही बता समझ में मुझको न पाया ॥५१।।
पूरा भरा दृग विवोधमयी मुधा से, मैं एक शाश्वत सुधाकर हूँ मदा मे। संयोगजन्य सब शेष विभाव मेरे, रागादि भाव जितने मुझमे निरे रे ॥५१६।।
[ १६ ]
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संयोग भाव वश ही बहु दुःख पाया, हूं कर्म के तपन तप्त, गया सताया । त्यागू उसे यतन मे अब चाव से मैं, विश्राम लूं मघन चेतन छाव में मैं ॥१७॥
तूने भवाम्बुनिधि मज्जित प्रातमा की, चिता न की न अव लौं उम पे दया की। पं बार वार करता मृत माथियों की, चिता दिवंगत हुए उन बन्धुत्रों की ॥५१८।।
में अन्य हूँ तन निरा, तन मे न नाता, ये मर्व भिन्न मुझमे सुत, तात, माता । यों जान मान बुध पंडित माधु मारे, धारें न राग इनमें, निज को निहारें ॥५१९।।
शुद्धात्म वेदन तया मम दृष्टि वाला, है वस्तुतः निरखता तन को निराला । अन्यत्व रूप उसकी वह भावना है, भाऊँ उसे जब मुझे व्रत पालना है ।।५२०॥
निप्पन्न है जड़मयी पल हड्डियों मे, पूरा भरा रुधिर मूत्र-मलादिकों मे । दुर्गन्ध द्रव्य झरते नव द्वार द्वारा, ऐमा शरीर फिर भी सुख दे तुम्हारा ?॥५२१॥
जो मोह-जन्य जड़ भाव विभाव गारे, है त्याज्य यों समझ माधु उन्हे विमारे। तल्लीन हो प्रशम में तज वासना को, भावें सही परम प्रास्रव भावना को ॥५२२॥
[ १०० ]
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वे गुप्ति प्रो समिति पालक प्रक्ष जेता,
औ अप्रमत्त परमातम तत्ववेत्ता । हैं कर्म के विविध प्रास्रव रोष पाते, है भावना परम संवर की निभाते ॥५२३।।
है लोक का यह वितान असार सारा, संसार तीव्र गति से गममान न्यारा। यों जान मान मुनि हो शुभ ध्यान धारो, लोकान में स्थित शिवालय को निहारो ॥५२४॥
स्वामी ! जरा मरुण-वारिधि में अनेकों, जो डूबते बह रहें उन प्राणियों को। सद्धर्म ही शरण है गति, श्रेय द्वीप, पूजू उसे शिव लसे सहसा समीप ॥५२५॥
तो भी रहा मुलभ ही वर देह पाना, पं धर्म का श्रवण दुर्लभ है पचाना । हो जाय प्राप्त जिससे कि क्षमा अहिंसा, ये भिन्न-भिन्न बन जाय शरीर, हंमा ।।५२६॥
सद्धर्म का सुलभ है सुनना मुनाना, श्रद्धान पं कठिन है उस पं जमाना। सन्मार्ग का श्रवण भी करते तथापि, होते कई स्खलित हैं मति मूढ़ पापी ।।५२७।।
श्रद्धान प्रो श्रवण भी जिन धर्म का हो, पै संयमाचरण तो अति दुर्लभा हो । लेते सुधी रुचि सुसंयम में कई है, पाते तयापि उसका उसको सहसा नहीं हैं ॥५२८।।
[ १.१]
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सद्भावना वश निजातम शोभती त्यों, निःछिद्र नाव जल में वह शोभती ज्यों। नौका समान भव पार उतारती है, रे ! भावना अमित दुःख विनाशती है ॥२९॥
सच्चा प्रतिक्रमण, द्वादश भावनायें, मालोचना शुचि समाघि निजी कथायें। भावो इन्हें, तुम निरन्तर पाप त्यामो, शीघ्रातिशीघ्र जिससे निज धाम भागो।।५३०॥
।
१.१
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३१. लेश्या सूत्र शशि शुक्ल शुलेश्यकायें,
दशायें ।
ये पीत, पद्म हैं धर्म ध्यान रत श्रातम की प्रौ उत्तरोत्तर सुनिर्मल भी मन्दादि भेद इनके मिलते कई
रही
होती कषाय वश योग प्रवृत्ति लेश्या, है लूटती निधि सभी जिस भाँति बेश्या । जो कर्मबन्ध जग चार प्रकार का है, हे मित्र ! कार्य वह योग- कषाय का है ।। ५३२ ।।
हैं,
हैं ।। ५३१ ॥ ।
।।
नीलम कपोत कुलेश्यकायें,
सुलेश्यकायें,
हैं कृष्ण हैं पीत पद्म सित तीन लेश्या कही समय में छह भेद बाली
ज्यों ही मिटी समझ लो मिटती भवाली ॥५३३ ||
लेश्यकायें,
मानी गई अशुभ प्रादिम तीनों अधर्म मय हैं दुख आपदायें । आत्मा इन्हीं वश दुखी बनता वृथा है
पापी बना, कुगति जा सहता
हैं तीन धर्ममय अंतिम
मानी गई शुभ सुधा सुख ये जीव को मुर्गात में वे धारते नित इन्हें जग में
सब
1
व्यथा है ।। ५३४।।
लेश्यकायें,
सम्पदायें |
भेजती हैं,
व्रती हैं ।। ५३५।।
है तीव्र,
तीवतर, तीव्रतमा कुलेश्या,
है. मन्द, मन्दतर, मन्दतमा सुलेश्या । भाई ! तथैव छह थान विनाश वृद्धि, प्रत्येक मं बरतती इनमें
[ १०३ ]
सुवृद्धि ! ॥ ५३६ ॥
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भूले हुए पथिक थे पथ को मुधा से, थे आत पीड़ित छहों वन में क्षुधा से । देवा रसाल नरु फूल-फलों लदा था, मानो उन्हें कि प्रशनार्थ बुला रहा था ॥
ग्रामूल, स्कन्ध, टहनी भट काट डालें, श्री तोड़ तोड़ फल-फूल रसाल खा लें । यों तीन दीन क्रमशः कुलेश्या, है. सोचते कह रहे कर
धरते
संकलेशा ||
है एक गुच्छ-भर को इक पक्त्र पाता, बिना पतित को इक मात्र खाता ।
तो
यां
तीन क्रमशः धरने सुलेश्या, लेव्या उदाहरण यं कहते जिनेशा ।। ५३७-५३८।।
श्रतिदुराग्रह्
यं क्रूरता सत्य की विकनता वरस्य श्री तलभाव विभाव है कृष्ण के दुखद लक्षण, साधु
दुष्टतायें |
अदया दशायें ।
सारे,
टारें ।।५३९।।
अज्ञानता
सद्बुद्धि को
संक्षप में समझ,
विषय की प्रतिगृद्धताये, विकलता
मतिमन्दतायें
लक्षण
नील के है,
ऐमे कहें, श्रमण मालय
शील के है ।। ५४० ।।
भयभीत होना,
अत्यन्त शोक करना कर्त्तव्यमूढ़ बनना भट रुष्ट होना । दोपी व निन्द्य पर को कहना बताना, कापोत भाव सब ये इनको हटाना ।। ५४१ ॥
[ १०४ ]
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प्रादेय, हेय अहिताहित-बोध होना संसारि प्राणि भर में समभाव होना । दानी तथा सदय हो पर दुःख खोना, ये पीत लक्षण इन्हें तुम धार लो ना ।।५४२ । हो त्याग भाव, नयता व्यवहार में हो ।
औ भद्रता, सरलता, उर कार्य में हो, कर्त्तव्य मान करना गुरुभक्ति सेवा, ये पद्य लक्षण क्षमा धर लो सदैवा ।।५४३॥
भोगाभिलाप मन म न कदापि लाना, प्रो देह-नेह रति-रोपन को हटाना । ना पक्षपात करना समता सभी में, ये शुक्ल लक्षण मिले मुनि में सुघो मे ॥५४४।। पा जाय गुद्धि परिणाम मन में जभी से, लेश्या विशुद्ध बनती, सहमा तभी मे । कापाय मन्द पड़ जाय अशानिदायी, हो जाय पात्म परिणाम विशुद्ध भाई ।। ५४५।।
[
१.५]
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________________
३२. प्रात्म-विकास सूत्र संमोह योग वश प्रातम में अनेकों, होते विभिन्न परिणाम विकार देखो! सर्वज्ञ-देव "गुण थान" उन्हें बताया, पालोक मे सकल को जब देख पाया ॥५४६॥
मिथ्यात्व प्रादिम रहा गुण थान भाई, सासादना वह द्वितीय अशान्ति दाई । है मिश्र है अविरती समदप्टि प्यारी, है एक देश विरती धरते प्रगारी । होती प्रमत विरती गिर साधु नाता, हो अप्रमत विरती निज पास पाता। स्वामी प्रपूर्व करणा दुख को मिटाती, है पानिवृत्तिकरणा सुख को दिलातो॥
है सांपराय प्रति सूक्ष्म लोभवाला, है शान्त मोह गत मोह निरा उजाला । हैं केवली जिन सयोगि, अयोगि न्यारे, इत्थं चतुर्दश सुनो ! गुण थान सारे ॥५४७-५४८।। तत्वार्थ में न करना शुचिरूप श्रद्धा, मिथ्यात्व है वह कहें जिन शुद्ध बुद्धा । मिथ्यात्व भी त्रिविध संशय नामवाला, दूजा गृहीत, अगृहीत तृतीय हाला ॥५४९।। सम्यक्त्वरूपगिरि से गिर तो गई है, मिथ्यात्व की प्रवनि पे नहिं आ गई है। सासादना यह रही निचली दशा है, मिथ्यात्व की अभिमुखी दुःख की निशा है ।।५५०॥
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जैसा दही-गुड़ मिलाकर स्वाद लोगे, तो भिन्न-भिन्न तुम स्वाद न ले सकोगे। वैसे हि मिश्र गुणथानन का प्रभाव, मिथ्यापना समपनाश्रित मिश्रभाव ॥५५१।।
छोड़ी प्रभी नहिं चराचर जीव हिंसा, ना इंद्रियां दमित की तज भाब-हिंसा । श्रद्धा परन्तु जिसने जिन में जमाई, होता वही अविरती समदृष्टि भाई ॥५५२॥
छोड़ी नितान्त जिसने त्रसजीवहिंसा, छोड़ी परन्तु नहिं थावर जीव-हिंसा । लेता सदा जिनप पाद पयोज स्वाद, हो एक देश विरती "भलि" निर्विवाद ॥५५३॥
धारा महाव्रत सभी जिसने तथापि, प्राय: प्रसाद करता फिर भी मपापी। शीलादि सर्वगुण धारक संग त्यागी, होता प्रमत्त विरती कुछ दोष भागी ॥५५४।।
गीलाभिमंडित, व्रती गुण धार ज्ञानी, त्यागा प्रसाद जिसने बन प्रात्म-ध्यानी । पै मोह को नहिं दवा न खपा रहा है, है अप्रमत्त विरती, सुख पा रहा है।।५५५।।
जो भिन्न-भिन्न क्षण में चढ़ पाठवें में, योगी अपूर्व परिणाम करें मजे में। ऐमे अपूर्व परिणाम न पूर्व में हो, वे ही अपूर्व करणा गुणथान में हो ॥५५.६।।
[
१:]
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जो भी अपूर्व परिणाम सुधार पाते, वे मोह के शमक, ध्वंसक या कहाते । ऐसा जिनेंद्र प्रभु ने हमको बताया, नज्ञान रूप तम को जिसने मिटाया ।।५५७।।
प्रत्येक काल इक ही परिणाम पाले, वे पानिवृत्ति करणा गुणथान वाले । ध्यानाग्नि से धधकती विधिकाननी को हैं राग्व ग्वाक करते, दुख की जनी को ।।५५८।।
कौमुम्ब के सदृश सौम्य गुलाब आभा, शोभायमान जिसके उर राग प्राभा । है. सूक्ष्मराग दगवे गुणथान वाले, वे वन्द्य, तू विनय से शिर तो नवां ले ।।५५९॥
ज्यों गुद्ध है शरद में सरनीर होता, या निर्मली फल डला जल क्षीर होता। त्यों शान्त मोह गूणधारक हो निहाला हो मोह सत्व, पर जीवन तो उजाला ।'५६०।।
सम्मोह हीन जिसका मन ठीक वैसाहो स्वच्छ, हो स्फटिक भाजन नीर जैसा । निर्ग्रन्थ साधु वह क्षीण कषाय नामी, यों वीतराग कहते प्रभु विश्व स्वामी ॥५६१॥
कैवल्य बोध रवि जीवन में जगा है, अज्ञानरूप तम तो फलतः भगा है। पा लब्धियाँ नव, नवीन वही कहाता, त्रैलोक्य पूज्य परमातम या प्रमाता ॥५६२।।
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स्वाधीन बोध दग पाकर केवली हैं. जीता जभी स्वयम को जिन हैं बली है। होता सयोगि जिन योग समेत ध्यानी, ऐसा कहें अमिट अव्यय प्रापवाणी ।। ५६३॥
है प्रष्ट कर्म मल को जिनने हटाया, सम्यक्तया सकल प्रास्रव रोक पाया। वे हैं, अयोगि जिन पावन केवली है, हैं गील के सदन में सुख के धनी है ।।५६४।।
प्रात्मा अतीत गुणथान बना जभी मे, मानन्द ऊर्ध्व गति है करता तभी में। लोकाग्र जा निवसता गुण अष्ट पाता, पाता न देह भव में नहि लौट आता ॥५६५॥
वे कर्म-मुक्त, नित मिद्ध मुगान्त ज्ञानी, होते निरंजन न अंजन की निशानी । सामान्य प्रष्ट गुण पाकर हो लमे है, लोकाग्र में स्थिति शिवालय में बमे है । ५६६॥
भाई मुनो तन अचेतन दिव्य नौका, तो जीव नाविक मचेतन है अनोखा । मंमार मागर रहा दुःग्व पूर्ण खाग, हैं नैरते ऋषि महर्षि जिम मुचाग ।।५६७।।
है लक्ष्य विन्दु यदि गाश्वत मौम्य पाना, जाना मना विषय में मन को घुलाना । दे देह को उचित वेतन न मयाने ! पाने स्वकीय मुख को विधि को मिटाने ।।५६८।।
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क्या धीर, कापुरुष, कायर क्या बिचारा, हो काल का कवल लोक नितान्त सारा । है मृत्यु का यह नियोग, नहीं टलेगा,
तो धैर्य
धार मरना, शिव जो मिलेगा ।। ५६९ ।।
प्रो एक ही मरण है मुनि पण्डितों का, है प्राशु नाश करता शतशः भवों का । ऐसा प्रत: मरण हो जिससे तुम्हारा, जो बार-बार मरना, मर जाय सारा ।। ५७० ।।
पाण्डित्य पूर्ण मृति, पण्डित साधु पाता, निर्भ्रान्त हो अभय हो भय को हटाता । तो एक साथ मरणोदधिपूर्ण पीता, मृत्युंजयी बन तभी चिरकाल जीता ।। ५७१।।
को भी,
वे साधु पाश समझे लघु दोष हो दोष ताकि न चले रख होश को भी । सद्धर्म और सघने तन को सँभालें, हो जीर्ण शीर्ण तन, त्याग स्वगीत गा लें ।। ५७२ ।।
दुर्वार रोग तन में न जरा घिरी हो, बाधा पवित्र व्रत में नहि मा परी हो । तो देह त्याग न करो, फिर भी करोगे,
साधुत्व त्याग करके, भव में फिरोगे ।। ५७३ ।।
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३३. सल्लेखना सूत्र सल्लेखना सुखद है सुख है सुधा है, जो अंतरंग बहिरंग तया द्विधा है । माधा, कषाय क्रमशः कृश ही कगना, है दूसरी बिन व्यथा तन को सुखाना ।:५७४॥ काषायिकी परिणती सहसा हटाते, पाहार अल्प कर लें क्रमशः घटाते, सल्लेखना व्रत सुधारक रुग्न हों वे, तो पूर्ण प्रश्न तज दें, अति अल्प सोवें ॥५७५॥ एकान्त प्रासुक धरा, तृण की चटाई, सन्यस्त के मसण संस्तर ये न भाई। प्रादर्श तुल्य जिसका मन हो उजाला, प्रात्मा हि संस्तर रहा उसका निहाला ॥५७६।।
हाला तथा कुपित नाग कराल काला, या भूत, यंत्र, विष निर्मित वाण भाला। होते अनिष्ट उतने न प्रमादियों के, निम्नोक्त भाव जितने शठ साधुनों के ।।५७७।। सल्लेखना समय में तजते न मायामिथ्या निदान त्रय को मन में जमाया । वे साधु प्राशु नहिं दुर्लभ बोधि पाते, पाते अनन्त दुख ही भव को बढ़ाते । ५७८।। मायादि शल्य त्रय ही भव वक्ष मूल, काटें उसे मुनि सुधी अभिमान भूल । ऐसे मुनीश पद में नतमाथ होऊँ, पाऊं पवित्र पद को शिवनाथ होऊँ ।५७९।।
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भोगाभिलाप समवेत कुकृष्णलश्या, हो मृत्यु के समय में जिसको जिनेगा। मिथ्यात्व कर्दम फंसा उस जीव को ही, हो वोधि दुर्लभतया, नज मोह मोही । ॥५८०॥
प्राणान्त के समय में गुचि शुक्नलेश्या, जो धारता, तज नितान्त दुरन्त क्लेशा । सम्यक्त्व में निरत नित्य, निदान त्यागी, पाना वही सहज वोधि बना विरागी ।।५८ १।।
मदवोधि की यदि तुम्हें चिर कामना हो, ज्ञानादि की मतत सादर माधना हो। अभ्याम रत्नत्रय का करता, उसी को, अाराधना वरण है करती मुधी को ।।५८२।।
ज्यों मीग्वता प्रथम, राजकुमार नानाविद्या कला असिगदादिक को चलाना । पश्चात् वही कुशलता बल योग्य पाता, तो धीर जीत रिपु को, जय लूट लाता ॥५८३।।
अभ्यास भूरि करता शुभ ध्यान का है, लेता सदैव यदि माध्यम माम्य का है । तो माधु का सहज हो मन गान्न जाता, प्राणान्त के समय ध्यान नितान्त पाता ।।५८४॥
घ्यायो निजात्म नित ही निज को निहारो, अन्यत्र, छोड़ निज को, न करो विहारो। संबंध मोक्ष पथ मे अविलम्ब जोड़ो, तो प्राप को नमन हो मम ये करोड़ों ॥५८५।।
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साधू करे न मृति जीवन की चिकित्सा, ना पारलौकिक न लौकिक भोगलिप्सा । सल्लेखना समय में बस साम्य धारें, संसार का अशुभ ही फल क्यों विचारें ।। ५८६ ॥
लेना निजाश्रय सुनिश्चित
मोक्ष दाता,
होता पराश्रय दुरन्त श्रशान्ति धाता । शुद्धात्म में इसलिए रुचि हो तुम्हारी, देहादि में रुचि ही शिव सौम्यकारी || ५८७ ॥
( द्वितीय खण्ड समाप्त )
दोहा
मोक्षमार्ग" पर नित चलो दुख मिट, मुग्व मिज जाय । परम सुगंधित ज्ञान की मृदुल कली खिल जाय || २ ||
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तत्त्व दर्शन, ततीय खण्ड
३४. तत्त्व सूत्र अल्पज मूढ़ जन ही भजते अविद्या, होने दुग्वी, नहिं सुखी तजते सुविद्या । हो लुप्त गुप्त भव में बहुवार तातें, कल्लोल ज्यों उपजते मर में ममाते ॥५८८।। रागादि भाव भर को अघ पाश माने, वित्तादि वैभव महा दुःख खान जाने । प्रो मत्य तथ्य समझे, जग प्राणियों में, मैत्री रखें, वुध सदैव चराचरों में ॥५८९॥ जो "शुद्धता" परम "द्रव्यम्वभाव", स्थाई, है 'पारमार्थ" "अपरापर ध्येय' भाई । प्रो वस्तु तत्त्व, सुन ये सब शब्द प्यारे, हैं भिन्न-भिन्न पर आशय एक धारे ॥५९०।। होते पदार्थ नव जीव अजीव न्यारा, है पुण्य पाप विधि प्रास्रव बंध खारा । पाराध्य हैं सुखद संवर निर्जरा हैं, प्रादेय हैं परम मोक्ष यही खरा है ॥५९१।। है जीव, शाश्वत अनादि अनन्त ज्ञाता, भोक्ता तथा स्वयम की विधि के विधाता । स्वामी सचेतन तभी तन से निराला, प्यारा प्ररूप उपयोगमयी निहाला ॥५९२॥ भाई कभी अहित से डरता नहीं है, उद्योग भी स्वहित का करता नहीं है। जो बोध, दुःख सुख का रखता नहीं है, हैं मानते मुनि, मजीव उसे सही है ॥५९३।।
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प्राकाश पुद्गल व धर्म, अधर्म, काल, ये हैं अजीव सुन तू अयि भव्य बाल ! रूपादि चार गुण पुदगल में दिखाते, है मूर्त पुद्गल, न (शेष, प्रमूर्त भाते ।।५९४।।
आत्मा अमूर्त नहि इंद्रिय गम्य होता, होता तथापि नित, नूतन ढंग होता । है आत्मा की कलुषता विधि बन्ध हेतु, संसार हेतु विधि बन्धन जान रे ! तू ॥५९५।।
जो राग से सहित है वसु कर्म पाता, होता विगग भवम्क्त अनन्त ज्ञाता । मंसारि जीव भर की विधि बन्ध गाथा, संक्षेप में समझ क्यों रति गीत गाता ॥५९६।।
मोक्षाभिलाष यदि है तज राग रागी, नीराग भाव गह ले, बन वीतरागी । ऐमा हि भव्य जन शाश्वत सौख्य पाते, शीघ्रातिशीघ्र भव वारिधि तर जाते ॥५९७॥
है पाप-पुण्य विधि दो विधि बंध हेतु, रे जान निश्चित शुभाशुभ भाव को तू । हैं धारते प्रशभ नीत्र कपाय वाले, गोभे सुधार गुभ मन्द कपायवाले ।।५९८।।
धारे क्षमा खल जनों कटुभापियों में, लेवें नितान्त गण गोध मभी जनों में । बोल सदय पिय बोल उन्ही जनों के ये है उदाहरण मन्दापापियों के ।। ५९.९।
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११५ ।
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जो वर-भाव रखना चिर, साधुनों में, प्रादोप को निरखना गुणधारियों में । शंसा स्वकीय करना उन पापियों के, ये चिन्ह हैं परम तीव्र कषायियों के ॥६००।।
जो राग रोष वश मत्त बना भिखारी, प्राधीन इन्द्रिय निकायन का विकारी । है प्रष्ट कर्म करता त्रय योग द्वारा, कैसे खुले फिर उसे वर मुक्ति द्वारा ।।६०१॥
हिंसादि पंच विध प्रानव द्वार द्वारा, होता सदैव विधि प्रास्रव है अपारा । प्रात्मा भवाम्बु निधि में तब डूब जाती, नौका सछिद्र, जल में कब तर पाती ? ॥६०२।।
हो वात से सरसि शीघ्र तरंगिता ज्यों, वाक्काय से मनस से यह प्रातमा त्यों। त्रैलोक्य पूज्य जिन “योग" उसे बताते वे योग निग्रहतया जग जान जाते ॥६०३।।
ज्यों-ज्यों त्रियोग रुकते-रुकते चलेंगे, त्यों-त्यों नितान्त विधि प्रास्रव भी रुकेंगे । संपूर्ण योग रुक जाय न कर्म प्राता क्या पोत में विवर के बिन नीर जाता?॥६०४॥
मिथ्यात्व और अविरती कुकषाय योग, ये चार प्रास्रव इन्ही वश दुःखयोग । सम्यक्त्व संयम, विराग, त्रियोगरोष ये चार संवर, जगे इनसे स्वबोध ॥६०५॥
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हो बन्द, पोतगत छेद सभी सही है !!! पानी प्रवेश करता उसमें नहीं है। मिथ्यात्व प्रादि मिटने पर शीघ्रता से हो कर्म संवर निजातम साम्यता से॥६०६॥
रोके नितान्त जिनने विधि द्वार सारे, होते जिन्हें निज समा ग जीव प्यारे । वे संयमी परम संवर को निभाते, हैं पापरूप विधि-बन्धन को न पाते ॥६०७॥
मिथ्यात्वरूप विधि द्वार खुले न भाई, तू शीघ्र से दृग कपाट लगा भलाई । हिसादि द्वार, व्रतरूप कपाट द्वारा, हे ! भव्य बन्द कर दे, सुख पा अपारा॥६०८॥
होता जलास्रव जहाँ तुम बांध डालो, प्राये हुये सलिल बाद निकाल डालो। तालाब में जल लबालब हो भले ही, प्रो सूखता सहज से पल में टले ही ॥६०९॥
हो संयमी परम प्रातम शोषता है, संपूर्ण पापविधि प्रास्रव रोकता है, निधान्त कोटि भव संचित कर्म सारे, होते विनष्ट, तप से क्षण में विचारे ॥६१०॥
पाये बिना परम संवर को तपस्वी, पाता न मोक्ष तप से कहते मनस्वी। आता रहा सलिल बाहर से सदा प्रो, क्या सूखता सर कभी ? तुम ही बतानो ॥६११ ।
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है कर्म नष्ट करता जितना वनों में, जा अश धार तप, कोटि भवों भवों में। ज्ञानी निमेष भर में त्रय गुप्ति द्वारा है कर्म नष्ट करता उतना मुचारा ॥६१२।।
होता विनष्ट जब मोह अशांतिदाई, तो शेष कर्म सहसा नश जाय भाई । मेनाधिनायक भला रण में मरा हो सेना कभी बच सके? न वचे जरा प्रो ॥६१३॥
लोकान्त ली गमन है करता मुहाता, है सिद्ध कर्ममलमुक्त, निजात्म धाता, मर्वज्ञ हो लस रहा नित सर्वदर्गी होता अतींद्रिय अनन्त प्रमोद म्पर्शी ।।६१४।।
संप्राप्त जो सुख, सुरों अमुरों नरों को, प्रो भोग भूमिजजनों अहमिद्रकों को। प्रो मात्र बिन्दु, जब सिद्धनका मुसिधु, खद्योत ज्योत इक है, इक पूर्ण इन्दु ।।६१५।।
संकल्प तर्क न जहाँ मन ही मरा है ना प्रोज तेज, मल की न परंपरा है । संमोह का क्षय हुमा फिर खेद कैसे ? ना शब्द गम्य वह मोक्ष दिखाय कैमे ॥६१६॥ बाधा न जीवित जहाँ कुछ भी न पीड़ा, माती न गन्ध सुख की दुख से न क्रीड़ा। ना जन्म है मरण है जिसमें दिखाते, "निर्वाण" जान वह है गुरु यों बताते ॥६१७॥
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निद्रा न मोहतम विस्मय भी नहीं है, ये इन्द्रियाँ जड़मयी जिसमें नहीं हैं । बाधा कभी न उपसर्ग तृषा क्षुधा है, निर्वाण में सुखद बोधमयी सुधा है ॥६१८।।
चिन्ता नहीं उपजती चिति में जरा सी, नोकर्म भी नहि, नहीं वसु कर्म राशि । होते जहाँ नहि शुभाशुभ ध्यान चारों, निर्वाण है वह रहा तुम यों विचारो ।।६१९॥
कैवल्य-बोध मुख दर्शन वीर्य वाला,
आत्मा प्रदेशमय मात्र अमूर्त शाला । निर्वाण में निवसता निज नीतिधागे, अस्तित्व में विलसता जग पार्नहारी ॥६२०॥
पाते महर्षि ऋषि मन्त जिगे, वही है, निर्वाण सिद्धि गिव मोक्षमही मही है । लोकाग्र है गुख अबाधक, क्षेम प्याग, वन्दं उमे विनय में बम बार-बाग ।।६२१॥
एरण्डवीज महमा जव मूख जाता, है. ऊध्वं हो नि म मे उडता दिवाना । हो पंक लिप्त जल में वह दब जाती, तुम्वी सपंक नजती द्रुत ऊर्ध्व पाती ।
छ्टा हुआ धनुष मे जिम भांनि बाण, हो पूर्व योग वश हो गतिमान मान ! श्री सिद्ध जीवगति भी उम भांति होती. धूमाग्नि की गति समा वह ऊर्ध्व होती ॥६-२॥
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आकाश से निरवलम्ब
प्रबाध प्यारे,
वे सिद्ध हैं अचल, नित्य, अनूप सारे । होते प्रतीद्रिय पुनः भव में न श्राते, हैं पुण्य-पाप विधि-हीन मुझे सुहाते ॥ ६२३॥
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३५. द्रव्य सूत्र ये जीव, गुद्गल, रव, धर्म, अधर्म काल, होते जहाँ समझ लोक उसे विशाल । पालोक से सकल लोक प्रलोक देखा, यों "वीर ने" सदुपदेश दिया सुरेखा ॥६२४।। आकाश पुद्गल अधर्म व धर्म, काल, चैतन्य से विकल हैं सुन भव्य बाल । होते प्रतः सब अजीव सदीव भाई, लो जीव में उजल चेतनता सुहाई ॥६२५।। ये पांच द्रव्य, नभ धर्म अधर्म, काल, प्रो जीव शाश्वत प्रमूर्तिक हैं निहाल । है मूर्त पुद्गल सदा सब में निराला, है जीव चेतन निकेतन बोधशाला ॥६२६॥
ये जीव पुद्गल जु सक्रिय द्रव्य दो हैं, तो शेष चार सव निष्क्रिय द्रव्य जो हैं । कर्माभिभूत-जड़ पुद्गल से क्रियावान्, है जीव, कालवा पुद्गल है क्रियावान् ॥६२७।। है एक एक नभ धर्म, अधर्म तीनों, तो शेष शाश्वत अनन्त अनन्त तीनों । हैं वस्तुत. सब स्वतन्त्र स्वलीन होते, ऐसा जिनेश कहते वमु कर्म खोने ॥६२८।। है धर्म प्रो वह अधर्म त्रिलोक व्यापी, आकाश तो सकल लोक अलोक व्यापी । है मर्त्य लोक भर में व्यवहार काल, सर्वज्ञ के वचन हैं मुन भव्य वाल !॥६२९॥
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देते हुए श्रय परस्पर में मिले हैं, ये सर्व द्रव्य पय गक्कर से घुले हैं। शोभे तथापि अपने-अपने गुणों से, छोड़े नहीं निज स्वभाव युगों-युगों से ॥६३०॥
है स्पर्श, रूप, रस, गंध विहीन स्थाई, है खण्ड-खण्ड नहिं पूर्ण अखण्ड भाई । है. लोक पूर्ण मुविगाल असंख्य देशी, धर्मास्तिकाय वह है मुन तू हिलेपी ॥६३१।।
त्यों धर्म जीव जड़ की गति में सहाई, ज्यों मीन के गमन में जल होय भाई । श्रीदाग्य भाव धरता नहिं प्रेरणा है, धर्मास्ति काय यह है जिन देशना है।६३२।।
धर्मास्तिकाय ग्वद ना चलना चलाता, पं प्राणि पुद्गल चले, गति है दिलाता । होता न प्ररक निमित्त तथापि भाई, च्यों रेल के गमन मे पटरी महाई ॥६३३।।
है धर्म द्रव्य उम भांनि अधर्म द्रव्य, कोई त्रिया न करता मुन भद्र ! भव्य ! प्रौदाम्य भाव धरती-सम धार लेता, ज्यों प्राणि पुद्गल स्के स्थितिदान देता ।।६३४।।
प्राकाश व्यापक अचेतन भावधाता, होता पदार्थ दल का अवगाहदाता । भाई अमूर्त नभ के फिर भेद दो हैं, है एक लोक, इक दीर्घ अलोक सो है ।।६३५।।
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जीवादि द्रब्य छह ये मिलते जहाँ हैं. माना गया अमित लोक यही यहाँ है । आकाश केवल प्रलोक वही कहाता, यों ठीक-ठीक यह छन्द हमें बताना ॥६३६।।
है स्पर्श रूप रम गन्ध विहीन होता, मंवर्तनामय सुलक्षण जो कि ढोना । है धारता गुण सदा अगुमलय को, है काल म्बीन यही जग में प्रभ को ।।६३७।।
है हो रहा नित अचेतन पुद्गलो में, धाग-प्रवाह परिवर्तन चेतनों में । वो काल का वा अनुग्रह तो रहा है, वैराग्य का परम कारण हो रहा है ।६३८।।
घटा निमेप समयावलि मादि देखो, होते प्रभेद जिम में महमा अना।। होता वही समय में व्यवहार साल, है वीतगग जिनका मत है. निहाल । २९॥
दो भेद, कन्ध, अण पुदगन के पिछानो, है म्कन्ध नेद छह दो प्रण के मजानो । है कार्य Fप अण कारण "प दूजा पै चर्म चक्ष अगु की करती न प्रजा : ६४०॥
है स्थूल-ग्थल, फिर स्थूल, व स्थल मथम, औ मूक्ष्म म्थन पुनि मूक्ष्म मुमूम मूक्ष्म । भू, नीर, ग्रानप, हवा, विधि-वर्गणायें, ये हैं उदाहरण म्पन्धन के गिनाये । ६४१।।
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किंवा धरा सलिल, लोचन गभ्य छाया, नासादि के विषय पुद्गल कर्म माया । अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु, छहो यहाँ ये, है स्कन्ध भेद जड़ पुद्गल के बताये ॥६४२।।
जो द्रव्य होकर न इन्द्रिय गम्य होता, है आदि मध्य अरु अन्त विहीन होता । है एक देश रखता अविभाज्य भाता, ऐसा कहे जिन यही परमाणु गाथा ॥६४३।। जो स्कन्ध में वह क्रिया अणु में इसी से, तू जान पुद्गल सदा अणु को खुशी से । स्पर्शादि चार गुण पुद्गल धार पाता, है पूरता पिघलता पर स्पष्ट भाता ॥६४४॥
प्रो जीव है, विगत में चिर जी चुका है, जो चार प्राण धर के अब जी रहा है । मागे इसी तरह जीवन जी सकेगा, उच्छ वास-प्रायु-बल इन्द्रिय पा लसेगा ॥६४।।
विस्तार संकुचन शक्तितया शरीरी, छोटा बड़ा तन प्रमाण दिखे विकारी ! पै छोड़ के ससुदधात दशा हितंषी ! हैं वस्तुतः सकल जीव प्रसंख्य देशी ॥६४६॥
ज्यों दूध में पतित माणिक दूध को ही, है लाल-लाल करता सुन मूढ़ मोही ! त्यों जीव देह स्थित हो निज देह को ही, सम्यक् प्रकाशित करें नहिं अन्य को ही ॥६४७।।
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आत्मा तथापि वह ज्ञान प्रमाण भाता, है ज्ञान भी सकल ज्ञेय प्रमाण साता। है ज्ञेय तो अमित लोक प्रलोक सारा, भाई अत: निखिल व्यापक ज्ञान प्यारा ।।६४८।।
ये जीव हैं द्विविध, चेतन धाम सारे, संसारि मुक्त द्विविधा उपयोग घारें । संसारि जीव तनधारक हैं दुखी हैं, हैं मुक्त-जीव तन-मुक्त तभी मुखी हैं ।।६४९।। पृथ्वी जलानल समीर तथा लतायें, एकेंद्रि-जीव सब स्थावर ये कहायें । हैं धारते करण दो, त्रय, चार, पाँच, शंखादि जीव बम हैं करते प्रपंच ॥६५०॥
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३६. सृष्टि सूत्र हैं, वस्तुतः यह अकृत्रिम लोक भाता, प्राकाग का ही इक भाग अहो ! कहाता! भाई अनादि अविनश्वर नित्य भी है, जीवादि द्रव्य दल पूरित पूर्ण भी है ॥६५१॥ पा योग अन्य अणु का अण स्कन्ध होता, है स्निग्ध मक्ष गुण धारक चूंकि होता। ना शब्द रूप प्रण है, इक देश धारी, प्रत्यक्ष ज्ञान लखता "अण" निर्विकारी ।।६५२।। ये मूक्ष्म स्थूल द्यणुकादिक म्कन्ध सारे, पृथ्वी जलाग्नि मरुतादिक रूप धारे । कोई इन्हें न ऋपि ईश्वर ही बनाते, 4 स्वीय शक्ति वश ही बनते सुहाते ॥६५३॥ सूक्ष्मादि म्वन्ध दल से त्रय लोक मारा, पूरा ठसाठस भरा प्रभु ने निहाग। है योग स्कन्ध उनमें विधि रूप पाने, होते अयोग्य कुछ हैं समझो सयाने ॥६५४।। ज्यों जीव के विकृत भाव निमित्त पाती, वे वर्गणा विधिमयी विधि हो सताती। पाल्मा उन्हें न विधिरूप हठात् बनाता, होता म्वभाववश कार्य सदा दिखाता ॥६५५।।
रागादि से निरखता यदि जानता है, पंचेंद्रि के विषय को मन धारता है । रंजायमान उसमें वह ही फैमेगा, दुष्टाष्ट कर्म-मल में चिर प्रो लसेगा ।।६५६।।
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सर्वत्र हैं विपुल हैं विधि वर्गणायें, आकीर्ण पूर्ण जिनसे कि दशों दिशायें । वे जीव के सब प्रदेशन में समाते, रागादि भाव जब जीव सुघार पाते ॥६५७।। ज्यों राग-रोष मय भाव म्वचित्त लाता, है मूढ़ पामर गुभाशुभ कर्म पाता । होता तभी वह भवान्तर को रवाना, ले साथ ही नियम मे विधि के खजाना ॥६५८।।
प्राचीन कर्म वग देह नवीन पाते, संसारिजीव पुनि कर्म नये कमाते । यों बार-बार कर कर्म दुखी हुए हैं, वे कर्म-बन्ध तज सिद्ध मुखी हुए हैं ॥६५९।।
दोहा
"तत्व दर्शन" यही रहा निज दर्शन का हेतु, जिन दर्शन का सार है भवसागर के मेनु ।
( तृतीय खण्ड समाप्त )
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स्यादवाद, चतुर्थ सण्ड
३७. अनेकान्त सूत्र जो विश्व के विविध कार्य हमें दिखाते, भाई बिना ही जिसके चल वे न पाते । नैकान्तवाद वह है जगदेक स्वामी, वन्दं उमे विनय मे शिव पन्थगामी ॥६६०।। प्राधार द्रव्य गुण का इक द्रव्य का ही, प्राधार ले गुण लसे शिव राह राही । पर्याय द्रव्य गुण पाश्रित हैं कहाते, ये बीर के वचन ना जड़ को सुहाते ।।६६१।।
पर्याय के बिन कहीं नहि द्रव्य पाता, तो द्रव्य के बिन न पर्यय भी मुहाता । उत्पात ध्रौव्य व्यय लक्षण द्रव्य का है, यों जान, लाभ झट लूं निज द्रव्य का मैं ॥६६२॥ उत्पाद भी न व्यय के बिन दीख पाता । उत्पाद के बिन कहीं व्यय भी न भाता, उत्पाद और व्यय ना बिन ध्रौव्य के हो, विश्वास ईदृश न किन्तु प्रभव्य के हो ॥६६३॥ उत्पाद ध्रौव्य व्यय हो इन पर्ययों में, हो द्रव्य में नहिं तथा उसके गुणों में । पर्याय हैं नियत द्रव्यमयी, तभी हैं, वे द्रव्य ही कह रहें गुरू यों सभी हैं ।।६६४।। है एक ही समय में त्रय भाव ढोता, उत्पाद ध्रौव्य व्यय धारक द्रव्य होता । तीनों प्रतः नियत द्रव्य यथार्थ में हैं, योगी कहें रत स्वकीय पदार्थ में हैं ॥६६॥
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पर्याय एक नशतो जब लौं जहाँ है, तो दूसरी उपजती तब लौं वहाँ है । पं द्रव्य है ध्रुव त्रिकाल अबाध भाता, ना जन्मता न मिटता यह शास्त्र गाता ॥६६६॥
पौरुष्य तो पुरुष में इक सार पाता, ले जन्म से मरण लौ नहिं छोड़ जाता। वार्धक्य औ शिशु किशोर युवा ददाये, पर्याय है जनमती मिटनी सदा ये ॥६६७।।
पर्याय जो सदृश द्रव्यन की सुहाती, सामान्य नाम वह निश्चित धार पाती। पर्याय हो विसदृशा वह हो विशेपा, ये द्रव्य को तज नही रहती निमेपा ।।६६८।।
सामान्य और सविशेष द्विधर्म वाला, हो द्रव्य ज्ञान जिसको लखता सुचाग । मम्यक्त्व का वह सुसाधक बोध होता, मिथ्यात्व मित्र, प्रार्य मित्र । कुबोध होता ।।६६९।।
हो एक ही पुरुष भानज तान भाई, देता वही मुत किसी नय मे दिखाई । पै भ्रात नात मत प्रो मबका न होता, है वस्तु धर्म इम भॉति अशांनि खोता ॥६७०।।
जो निर्विकल्प मविकल्प द्विधर्म वाला, है गोभता नर मनो शशि हो उजाला । एकान्त मे यदि उमे इक धर्मधारी, जो मानता वह न पागम बोध धारी ॥६७१।।
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पर्याय नैक विध यद्यपि हो तथापि, भाई विभाजित उन्हें न करो कदापि । वे क्षीर नीर जब आपस में मिलेंगे, प्रो 'नीर' 'क्षीर' 'यह' यों फिर क्या कहेंगे ?॥६७२।।
नि:गंक हो समय में तज मान सारा, स्यावाद का विनय से मुनि ले सहारा । भाषा द्विधाऽनुभय सत्य सदैव बोले, निप्पक्ष भाव धर शास्त्र रहस्य खोले ॥६७३॥
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३८. प्रमाण सूत्र
संमोह-संभ्रम-ससंशय हीन प्यारा, कल्यान खान वह ज्ञान प्रमाण प्याला ! माना गया स्वपर भाव प्रभाव दर्शी, साकार नैकनिध शाश्वत सौख्य स्पर्शी ॥६७४।। सज्ज्ञान पंचविध ही मति ज्ञान प्यारा, दूजा श्रुतावधि तृतीय सुधा मुघारा । चौथा पुनीत मनपर्यय ज्ञान मानूं, है पांचबा परम केवल ज्ञान-भानु ॥६७५।। सज्ज्ञान पंच विध ही गुरु गा रहे हैं, लेके सहार जिसका शिव जा रहे हैं । सम्पूर्ण क्षायिक सुकेवल ज्ञान नामी, चारों क्षयोपशमिका अवशेष स्वामी ॥६७६॥ ईहा, अपोह, मति, शक्ति, तथैव सजा, मीमांस, मार्गण, गवेषण और प्रज्ञा । ये सर्व ही अभिनि वोधिक जान पाई, पूजो इसे बम यही शिव-सौम्य दाई ।।६७७।।
प्राधार ले विषय का मति के जनाताजो अन्य द्रव्य, श्रुत ज्ञान वही कहाता । प्रो लिंगगन्दज तया श्रुत ही द्विधा है, होता नितान्त मतिपूर्वक ही मुधा है। है मुख्य शब्दज जिनागम म कहाता, जो भी उम उर घरे भव पार जाता ॥६७८।।
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पाके निमित्त मन इन्द्रिय का, प्रघारी, होता प्रसूत श्रुत ज्ञान श्रुतानुसारी । है प्रात्म-तत्त्व पर-सम्मुख थापने में, स्वामी समर्थ श्रुत ही मति जानने में ॥६७९॥
हो पूर्व में मति सदा श्रुत बाद में हो, ना पूर्व में श्रुत कभी मति बाद में हो । होती 'पृ' धातु परिपूरण पालने में, हो पूर्व में मति अतः श्रुत पूरणे में ॥६८०।।
सीमा बना समय प्रादिक की सयाने ! रूपी पदार्थ भर को इकदेश जाने । जो ख्यात भाव-गुण प्रत्यय से ससीमा, माना गया अवधिज्ञान वही सुधी मान ! ॥६८१॥
है चित्त चितित अचितित चिंतता है, या सार्ध चितित नृलोकन में यहाँ है। जो जानता बस उमे शिव सौख्य दाता, प्रत्यक्ष ज्ञान मन पर्यय नाम पाता ॥६८२॥
शुद्धक प्रो सब, अनन्त विशेष आदि, ये अर्थ हैं सकल केवल के अनादि । कैवल्य ज्ञान इन सर्व विशेषणों में, शोभे अतः भज उसे, बच दुर्गुणों से ॥६८३॥
जो एक साथ सहसा बिन रोक-टोक, है जानता सकल लोक तथा अलोक । 'कैवल्य ज्ञान', जिसको नहिं जानता हो, ऐसा गतागत अनागत भाव ना हो ॥६०४॥
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(प्रा) प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण
वस्तुत्व तो नित नितान्त प्रबाध भाता सम्यक्तया सहज ज्ञान उसे जनाता । होता प्रमाण वह ज्ञान प्रत: सुषा है, प्रत्यक्ष पावन परोक्षतया द्विधा है ||६८५ ।।
ये धातु दो प्रशु तथा श्रश जो कहाती, व्याप्त्यर्थ में प्रशन में क्रमश: सुहाती । है अक्ष शब्द बनता सहसा इन्हीं से, ऐसा सदा समझ तू नहि श्रो किसी से ॥ है जीव प्रक्ष जग वैभव भोगता है, सर्वार्थ में सहज व्याप सुशोभता है । तो प्रक्ष से जनित ज्ञान वही कहाता, प्रत्यक्ष है त्रिविध, श्रागम यों बताता ।। ६८६ ।।
द्रव्येद्रियाँ मनस पुद्गलभाव धारें, है अक्ष में इसलिए प्रति भिन्न न्यारे । संजात ज्ञान इनसे वह ठीक वैसा, होता परोक्ष बम लिंगज ज्ञान जैसा ||६८७ ॥
होते परोक्ष मति प्रौ श्रुत जीव के हैं, औचित्य है परनिमित्रक क्योंकि वे हैं । किवा ग्रहो परनिमित्रक हो न कैसे ? हो प्राप्त प्रर्थ-स्मृति से अनुमान जैसे ||६८८ ||
होता परोक्ष श्रुत लिंगज ही, महानप्रत्यक्ष हो अवधि भादिक तीन ज्ञान । स्वामी ! प्रसूत मति, इंद्रिय चित्र से जो, प्रत्यक्ष संव्यवहरा उपचार से हो ॥६८२ ॥
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३६. नय सूत्र द्रव्यांश को विषय है अपना बनाता, होता विकल्प श्रुत धारक का सुहाता । माना गया नय वही श्रुत भेद प्यारा, ज्ञानी वही कि जिसने नय ज्ञान घारा ॥६९०॥
एकान्त को यदि पराजित है कराना, भाई तुम्हें प्रथम है नय ज्ञान पाना । स्याद्वाद बोध नय के बिन ना निहाला, चाबी बिना नहिं खुले गृह-द्वार ताला ॥६९१॥
ज्यों चाहता वृष बिना 'जड़' मोक्ष जाना, किंवा तृषी जल बिना हि तृषा बुझाना । त्यों वस्तु को समझना नय के बिना ही, है चाहता अबुध ही भवराह राही ॥६९२।।
तीर्थेश का वचन सार द्विधा कहाता, सामान्य आदिम द्वितीय विशेष भाता । दो द्रब्य पर्ययतया नय हैं उन्हीं के, ये ही यथाक्रम विवेचक भद्र दीखे ॥ भेदोपभेद इनके नय शेष जो भी, तू जान ईदृश सदा तज लोभ लोभी ! ॥६९३॥
सामान्य को विषय है नय जो बनाता, तो शून्य ही वह 'विशेष' उसे दिखाता । जो जानता नय सदैव विशेष को है, सामान्य शून्य दिखता सहसा उसे है ।।६९४।।
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द्रव्याथि की नय सदा इस भांति गाता, है द्रव्य तो ध्रुव त्रिकाल अबाध भाता । 4 द्रव्य है उदित होकर नष्ट होता, पर्याय माथिक सदा इस भौति रोता ॥६९।।
द्रव्याथि के नयन में सब द्रव्य माते, पर्याय पर्थिवश पर्यय मात्र भाते । एक्सरे हमें हृदय अंदर का दिखाती, तो कैमरा शकल ऊपर की बताती ॥६९६।।
पर्याय गौण कर द्रव्यन को जनाता, द्रव्याथि की नय वही जग में कहाता । जो द्रव्य गौण कर पर्यय को जनाता, पर्याय अथिक वही यह शास्त्र गाता ।।६९७॥
जो शास्त्र में कथित नेगम, संग्रहा रे ! है व्यावहार ऋजु सूत्र सशब्द प्यारे । एवंभुता समभिरूढ़ उन्हीं द्वयों के. है भेद मूल नय सात, विवाद रोके ॥६९८॥
द्रव्याथि की सुनय प्रादिम तीन प्यारे, पर्याय अथिक रहें अवशेष मारे । हैं चार प्रादिम पदार्थ प्रधान जानो, हैं शेष तीन नय शब्द प्रधान मानो ॥६९९।।
सामान्य ज्ञान इतरोभय रूप ज्ञान, प्रख्यात नेक विध है अनुमान ! मान ! जानें इन्हें सुनय नैगम है कहाता, मानो उसे नयिक ज्ञान प्रतः सुहाता ॥३०॥
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जो भूत कार्य इस सांप्रत से जुड़ाना, है भूत नैगम वही गुरु का बताना । वर्षों पुरा शिवगये युगवीर प्यारे, मानें नथापि हम 'प्राज उषा' पधारे ।।७०१।।
प्रारम्भ कार्य भर को जन पूछने से, 'पूरा हुआ' कि कहना सहसा मजे से । प्रो वर्तमान नय नेगम नाम पाता, ज्यों पाक के समय ही बस भात भाता ।।७०२।
होगा, अभी नहिं हुआ फिर भी वताना, लो ! कार्य पूरण हुआ रट यों लगाना । भावी सुनेगम यही समझो सुजाना, जैसा उगा रवि न किन्तु उगा बताना ॥७०३।।
कोई विरोध बिन आपस में प्रबुद्ध ! सत् रूप से सकल को गहता 'विशुद्ध' । जात्येक भेद गहता उनमें 'अशुद्ध', यों है द्विधा सुनय संग्रह पूर्ण सिद्ध ॥७०४॥
संप्राप्त संग्रहतया द्विविधा पदार्थजो है प्रभेद करता उसका यथार्थ । मो व्यावहार नय भी द्विविधा, स्ववेदी, 'शुद्धार्थ भेदक' प्रशुद्ध पदार्थ भेदी ॥७०५।।
जो द्रव्य में ध्रुव नहीं पल आयुवाली, पर्याय हो नियत में बिजली निराली । जाने उसे कि ऋजु सूत्र सुसूक्ष्म भाता, होता यथा क्षणिक शब्द सुनो सुहाता ॥७०६॥
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देवादिपर्यय निजी स्थिति लों सुहाता. जो देव रूप उसको तब लौं जनाता । तू मान स्थूल ऋजु सूत्र वही कहाता, ऐसा यहाँ श्रमण सूत्र हमें बताता ।। ७०७।। जो द्रव्य का कथन है करता, बुलाता, श्राव्हान शब्द वह है जग में सुहाता । तत्-शब्द- अर्थ भर को नय जो गहाता, प्रो हेतु तुल्य-नय शब्द अतः कहाता ||७०८ || एकार्थ के वचन में वच लिंग भेद, है देख शब्दनय ही करतार्थ भेद 1 पुंलिंग में व तियलिगन में मुचारा, ज्यों पुष्य शब्द बनता "नख छत्र तारा" ।।७०९ ॥
जो शब्द व्याकरण- सिद्ध, सदा उसी में, होता तदर्थं प्रभिन् न प्रो किसी मे । स्वीकारना बस उसे उस शब्द द्वारा है मात्र शब्दनय का वह काम सारा । ज्यों देव शब्द सुन प्राशय 'देव' लेना, भाई तदर्थ गहना तज शेप देना ।। ७१० ॥
प्रत्येक शब्द प्रभिन्तु प्रत्येक अर्थ अभिन्दु है मानता समभिस्तु ये शब्द इन्दर पुरन्दर
स्वअर्थ में हो, स्वशब्द में हो । सदैव ऐम,
शक जैसे ॥ ११ ॥
शब्दार्थ रूप अभिरूढ़ पदार्थ 'भूत', शब्दार्थ मे म्खलित अर्थ अतः 'प्रभूत' । एवंभूता सुनय है इस भांति गाना, शब्दार्थ तत् पर विशेष श्रतः कहाता ॥७१२।।
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जो-जो क्रिया जन तनादितया करें प्रो! तत्-तत् क्रिया गमक शब्द निरे निरे हो ! एवंभुता नय प्रतः उस शब्द का है, सम्यक् प्रयोग करता जब काम का है । जैसा सुसाधु रत साधन में सही हो, स्तोता तभी कर रहा स्तुति स्तुत्य की हो ॥७१३॥
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४०. स्यावाद सप्त भंगी सूत्र हो 'मान' का विषय या नय का भले हो, दोनों परस्पर प्रपेक्ष लिये हुए हो । सापेक्ष है विषय प्रो तब ही कहाता, हो अन्यथा कि इससे निरपेक्ष भाता । ७१४॥
एकान्त का नियति का करता निषेध, है सिद्ध शाश्वत निपाततया "प्रवेद" । स्यात् शब्द है वह जिनागम में कहाता, सापेक्ष सिद्ध करता सबको मुहाता ||७१५।।
भाई प्रमाण-नय-दुर्नय-भेद वाले, हैं सप्त भंग बनते, क्रमवार न्यारे । 'स्यात्' की अपेक्ष रखने परमाण प्यारे ! गोभे नितान्त नय से नयभंग मारे ।। मापेक्ष दुर्नय नहीं, निरपेक्ष होते, एकान्त पक्ष रखते दुःख को मजोते ।।१६।।
म्यादस्ति, नास्ति उभयावकतव्य चौथा, भाई त्रिधा प्रवकतव्य तथव होता । यों सप्त भंग लसने परमाग के है, ऐसा कहें जिनप प्रालय ज्ञान के है ।।७१७॥
क्षेत्रादिरूप इन म्वीय चतुष्टयों में, मस्ति स्वरूप मब द्रव्य युगों-युगों मे । क्षेत्रादि रूप परकीय चतुष्टयों में, नास्ति स्वरूप प्रतिपादित साधुओं से ॥७१८॥
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जो स्वीय प्रो परचतुष्टय से सुहाती, स्यादस्तिनास्तिमय वस्तु वही कहाती । प्रो एक साथ कहते द्वय धर्म को है, तो वस्तु हो अवकतव्य प्रमाण सो है ।। यों स्वीय स्वीय नय संग पदार्थ जानो, तो सिद्ध हो अवकतव्य त्रिभंगम नो ॥७१९॥
एकेक भंग मय ही सब-द्रव्य भाते, एकान्त से सतत यों रट जो लगाते । वे सात भंग तब दुर्नय-भंग होते, स्यात् शब्द से सुनय से जब दूर होते ॥७२०॥
ज्यों वस्तु का पकड़ में इक धर्म प्राता, तो अन्य धर्म उसका स्वयमेव भाता। वे क्योंकि वस्तुगत धर्म, अतः लगानो, 'स्यात्' सप्त भंग सब में झगड़ा मिटायो ॥७२१॥
१४. ।
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४१. समन्वय सूत्र जो ज्ञान यद्यपि परोक्षतया जनाता, नकान्तरूप सबको फिर भी बताता । है संशयादिक प्रदोष-विहीन साता, तू जान मान "श्रुत ज्ञान" वही कहाता ॥७२२॥ जो वस्तु के इक अपेक्षित धर्म द्वारा, साधे सुकार्य जग के, नय मो पुकारा । प्रो भेद भी नय वही श्रुत ज्ञान का है, माना गया तनुज भी अनुमान का है ॥७२३॥ होते अनन्त गुण धर्म पदार्थ में हैं, 4 एक को हि चुनता नय ठीक से है। तत्काल क्योंकि रहती उमकी अपेक्षा, हो शेप गौण गुण, ना उनकी उपेक्षा ।।७२४॥ सापेक्ष ही मुनय हो सुख को सँजोते, माने गये कुनय हैं निरपेक्ष होते । संपन्न हो मुनय मे व्यवहार मारे, नौका समान भव पार मुझे उतारे ।।७२५॥ ये वस्तुतः वचन हैं जितने मुहाने, हे भव्य जान नय भी उतने हि पाते । मिथ्या अतः नय हटी कुपथप्रकाशी, सापेक्ष सत्य नय मोह-निगा विनाशी ॥२६॥ एकान्तपूर्ण कुनयाथित पंथ का वे, स्याद्वाद विज्ञ परिहार करें करावें । प्रो ख्याति लाभ वश जैन वना हटी हो, ऐसा पराजित करो पुनि ना त्रुटी हो ।।७२७।।
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सच्चे मभी नय निजी विषयों स्थलों में, झूठे परम्पर लड़ें निशि वासरों में । ये सत्य वे सब असत्य कभी अमानी, ऐसा विभाजित उन्हें करते न ज्ञानी ॥७२८।।
ना वे मिले, यदि मिले तुम हो मिलाते, सच्चे कभी कुनय प बन है न पाते । ना वस्तु के गमक हैं उनमें न बोधि, सर्वस्व नष्ट करते रिपु मे बिरोधी ॥७२९।
सारे विरुद्ध नय भी बन जाय अच्छे । स्याद्वाद की शरण ले कहलाय सच्चे ! पाती प्रजा बल प्रजापति छत्र में ज्यों, दोषी प्रदोष बनते मुनि संघ में ज्यों ॥७३०॥
होते अनन्त गुण द्रव्यन में सयाने, द्रव्यांश को प्रबुध पूरण द्रव्य माने । छु अंग अंग गज के प्रति अंग को ही, ज्यों अंध वे गज कहें, अयि भव्य मोही !॥७३१॥
सर्वांगपूर्ण गज को दृग से जनाता, तो सत्य ज्ञान गज का उसका कहाता। सम्पूर्ण द्रव्य लखता सब ही नयों से, है सत्य ज्ञान उसका स्तुत साधुओं से ॥७३२।।
संसार में अमित द्रव्य प्रकथ्य भाते, श्री वीर देव कहते मित कथ्य पाते । लो कथ्य का कथित भाग अनन्तवा है, जो शास्त्र रूप वह भी बिखरा हुआ है ।।७३३।।
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निन्दा तथापि नित जो पर के पदों को, शंसा अतीव करते अपने मतों की । पांडित्य, पूजनयशार्थ दिखा रहे हैं, संसार को सघन पौर बना रहे हैं ॥७३४॥
संसार में विविध कर्म-प्रणालियां हैं, ये जीव भी विविध प्रो उपलब्धियां हैं। भाई अतः मत विवाद करो किसी से, सामि से अनुज मे पर मे प्ररी से ॥७३५॥
है भव्यजीव-मति गम्य जिनेन्द्र-वाणी, पीयूष - पूरित पुनीत - प्रशांति - खानी । सापेक्ष - पूर्ण - नय - प्रालय पूर्ण साता, प्रासूर्य जीवित रहे जयवन्त माता ॥७३६।।
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४२. निक्षेप सूत्र कोई प्रयोजन रहे तब युक्ति साथ, प्रोचित्त्य पूर्ण पथ में रखना पदार्थ । 'निक्षेप' है समय में वह नाम पाता, नामादि के वश चतुर्विध है कहाता |७३७।। नाना स्वभाव अवधारक द्रव्य प्यारा, जो ध्येय ज्ञेय बनता जिस भाव द्वारा । तद्भाव की वजह से इक द्रव्य के ही, ये चार भेद बनते सुन भव्य देही ! ।।७३८।। ये नाम स्थापन व द्रव्य स्वभाव चारों, निक्षेप है तुम इन्हें मन में सुधारो। है नाम मात्र बम द्रव्यन की मुसंज्ञा, है नाम भी द्विविध ख्यात, कहे निजज्ञा ॥७३९।। आकार इतर 'स्थापन' यों द्विधा है, महन्त बिम्ब कृत्रिमेतर आदि का है। प्राकार के बिन जिनेश्वर स्थापना को, तू दूसरा समझ रे ! तज वासना को ॥७४०।। जो द्रव्य को गत अनागत भाव बाला, स्वीकारना कर मुसांप्रत गौण सारा । निक्षेप द्रव्य वह पागम में कहाता, विश्वास मात्र उसमें बस भव्य लाता ।। निक्षेप द्रव्य, द्विविधा वह है कहाता, नोमागमागमतया सहसा सुहाता । ना शास्त्रलीन रहता, जिन शास्त्र ज्ञाता, मो द्रव्य प्रागम जिनेश तदा कहाता ।
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नो भागमा त्रिविध "ज्ञायक देह भावी, पो "कर्म रूप" जिन यों कहते स्वभावी। हे भव्य तू समझ ज्ञायक भी विधा है, जो भूत सांप्रत भविष्यतया कहा है ॥ मी त्यक्त च्यावित तथा च्युत यों त्रिधा है, मो "भूत ज्ञायक" जिनागम मे लिखा है ।।
शास्त्रज्ञ की जड़मयी उस देह को ही, तद्रूप जो समझना अयि भव्यमोही । माना गया कि वह "शायक देह" भेद, ऐसा जिनेश कहते जिनमें न खेद ॥ नीतिज्ञ के मृतक केवल देह को ले, लो "नीति" ही मर चुकी जिस भाति बोले ॥
जो द्रव्य की कल दशा बन जाय कोई, तद्रूप आज लखना उम द्रव्य को ही। श्री वीर के समय में बम "भावि" सोही, राजा यथा ममझना युवराज को ही ॥
कर्मानुसार अथवा जग मान्यता ले, रे ! वस्तु का ग्रहण जो कर ले करा ले । है "कर्म भेद" वह निश्चित ही कहाता, ऐसा "वमन्त निलका" यह छन्द गाता ।।
देवायु कर्म जिमने बस बांध पाया, ज्यों आज ही समझना यह "देव राया" । या पूर्ण कुम्भ कलदर्पण आदि भाते, लोकोपचारवश मंगल ये कहाते ।।७४१-७४२॥
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है द्रव्य सांप्रत दशामय यों बताता, निक्षेप "भाव" वह पागम में कहाता। नोप्रागमागमतया वह भी द्विधा है, वाणी जिनेन्द्र कथिता कहती सुधा है । प्रात्मोपयोग जिन पागम में लगाता, महंन् उसी समय है जिन शास्त्र-ज्ञाता। तो "भाव पागम" नितान्त यही रहा है, ऐसा यहाँ श्रमण सूत्र बता रहा है । प्रहन्त के गुण सभी प्रकटे जभी से, प्रहन्त देव उनको कहना तभी से । है केवली जब उन्ही गुण धार ध्याता, "नोप्रागमा" वह जिनागम में कहाता |७४३-७४४।।
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४३. समापन
पहन प्रभो ! अमित दर्शन-ज्ञान-स्पर्शी, वे 'मातृ पुत्र' निखिलज, अनन्तदर्शी । 'वैशालि में' जनम सन्मति ने लिया था, धर्मोपदेश इस भांति हमें दिया था ॥७४५॥
श्री वीर ने सुपथ यद्यपि था दिखाया, था कोटिशः सदुपदेश हमें सुनाया । धिक्कार ! किन्तु हमने उसको सुना ना, मानो ! सुना पर कभी उसको गुना ना ॥७४६।।
जो साधु प्रागति-अनागति कारणों को, पीड़ा प्रमोदप्रद मानव-संवरों को। प्रो जन्म को मरण को निज के गुणों को, त्रैलोक्य में स्थित अशाश्वत गाग्वनों को ।।
नों स्वर्ग को नरक को दुख निर्जरा को, हैं जानते च्यवन को उपपादता को । श्री मोक्ष-पंथ प्रतिपादन कार्य में है, वे योग्य, वंदन त्रिकाल कर उन्हें मै ॥७४७-७४८॥
वाणी सुभापित मुधा, शुचि 'वीर' की है, थी पूर्व प्राप्त न, अपूर्व प्रभी मिली है। क्यों मृत्यु मे फिर डरूं, तज सर्व ग्रंथि, में हो गया जब प्रभो ! शिव-पंथ-पंथी ।।७४९।।
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४४. वीर-स्तवन
पावन - झील.
न्यारे,
सम्यक्त्व-बोध-व्रत मेरे रहें शरण संयम शील सारे । लूं वीर की शरण भी मम प्राण प्यारे, नौका समान भव पार मुझे उतारें ॥७५०॥ निर्ग्रन्थ हैं अभय धीर अनन्त ज्ञानी, श्रात्मस्थ हैं श्रमल हैं कर आयु हानि । मूलोत्तरादिगुण धारक विद्वान 'वीर' जग में जग
विश्वदर्शी,
चित्त हर्षी ।। ७५१ ॥
सर्वज्ञ हैं
श्रनियताचरणावलम्बी,
पाया भवाम्बुनिधि का तट स्वावलम्बी । हैं अग्नि से निशि नशा स्वपरप्रकाशी, हैं "वीर" घोर रवितेज अनंतदर्शी ॥७५२ ।।
ऐरावता वर गजों हरि ज्यों मृगों में, गंगा नदों गरुड़ श्रेष्ठ विहंगमों में । निर्वाणवादि मनुजों मुनि साधुनों में, त्यों 'ज्ञातृपुत्र' वर 'वीर' मुमुक्षुत्रों में ।। ७५३ ।।
ज्यों श्रेष्ठ सत्य वचनों वच कर्ण- प्रीय,
दानों रहा 'अभय दान'
समयनीय |
सत्तपों में,
है ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य तप उत्तम त्यों ज्ञातृपुत्र श्रमणेग धरातलों में
।।७५४।।
हैं जन्मते कब कहां जग जीव सारे, जानो जगद्गुरु ! तुम्हीं जगदीश ! प्यारे । धाता पितामह चराचर मोदकारी, हे ! लोकबन्धु भगवन् ! जय हो तुम्हारी ।।७५५ ।।
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संसार के गुरु रहें जयवन्त नामी ! तीर्थेश मंतिम रहें जयवन्त स्वामी ! विज्ञान स्रोत जयवन्त रहें ममात्मा, ये "वीरदेव" जयवन्त रहें महात्मा ॥७५६॥
दोहा
मेरे वादविवाद को निर्विवाद स्याद्वाद, सब बादों को खुश करे पुनि-पुनि कर मंवाद ।।
चतर्थ खण्ड समाप्त
[
१४६]
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मूल क्षम्य हो गुरु स्मृति-स्तुति
वसन्ततिलकाछन्द मैं आपकी सदुपदेग मुघा न पीता, जाती लिखी न मुझसे यह जैनगीता । लग्बक, कवि मैं हूँ नहीं मुझमें कुछ नहिं ज्ञान, त्रुटियाँ होवें यदि यहां गोध पढ़ें धीमान ॥१॥
मंगल कामना
दोहा दो जानमागर गुरो ! मुझको मुविद्या । 'विद्यादिमागर' वनं तज दूं अविद्या ॥२।। यी प्रार्थना वीर मे अनुनय मे कर जोर । हरी भरी दिग्वती रहे धरती चारों ओर ॥३॥
मरहम पट्टी बाप के वण का कर उपचार । ऐगा यदि ना बन मका, डंडा तो मत मार ॥४॥
फल बिछाकर पन्ध में पर-प्रति बन अनुकूल । शूल बिछाकर भूल मे मत बन तू प्रतिकूल ।।५।। तजो रजो गुण, माम्य को सजो, भजो निज धर्म । गर्म मिन, भर दुख मिटे, प्राशु मिटे वमु कर्म ॥६॥ ही मे भो की पोर ही बढ़े सभी हम लोग । छह के आगे तीन हो विश्व शांति का योग ॥७॥
। १५. ]
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A
जिनके चरणों में बैठकर प्राचार्य श्री ने
- जैन गोता पूर्ण को -
१५०० वर्ष प्राचीन १५ फुट ऊंची, अद्भुत, प्राकर्षक
मनोज, प्रतिगयकारी पपासन प्रतिमा श्री दिगम्बर जैन मिद्ध क्षेत्र कुन्डलपुर जी
दमोह (म प्र)
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धर्म क्या हैजो आज तक आपको अच्छा नहीं लगा। जो आज तक आपने किया नहीं
वह धर्म है।
१०८ प्राचार्य विद्यासागर
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स्थान परिचय
श्रोधर केवलि शिवगये, कुण्ड :गि म । धारा वर्षा योग उन, नरणन में इस वर्ग ।। 'बई बाबा" बड़ी कृपा नी मुभ मानी ! पूर्ण हुई मम कामना पा र जिन-
पाप ।' ।
मग गगनगति गध की भाद्रपदी मातीज । पूर्ण हुअा यह ग्रन्थ है भर मल बो ॥१०॥
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१५१ ]
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