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(प्रा) निश्चय रत्नत्रय सूत्र संसार में समयसार सुधा मुधारा, लेता प्रमाण नय का न कभी सहारा । होता वही दृग मयी वर बोध धाम मेरे उमे विनय से शतशः प्रणाम ।।२१४।।
साधू चरित्र दृग वोध समेत पा ले , मात्मा उन्हें समझ पातम गीत गा ले। ज्ञानी नितान्त निज में निज को निहारें वे अन्त में गुण अनन्त अवश्य धारें ॥२१॥ ज्ञानादि रत्न त्रय में रतलीन होना, धोना कषाय मल को बनना सलोना । स्वीकारना न करना तजना किसी को तू जान मोक्षपथ वास्तव में इमी को ॥२१६॥
सम्यक्त्व है वह निजात मलीन प्रात्मा विज्ञान है समझना निज को महात्मा । प्रात्मम्थ प्रातम पवित्र चरित्र होता, जानो जिनागम यही अयि भव्य श्रोता ।।२१७॥ अात्मा मदीय यह मंयम बोध-धाम, चारित्र दर्शनमयो लमता ललाम । है त्यागरूप सुख कूप, अनूप भूप ना नेत्र का विषय है नित है अरूप ॥२१८।।
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