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१८ सम्यक्पर्शन सूत्र (4) व्यवहार सम्यक्त्व पौर निश्चय सम्यक्त्व सम्यक्त्व, रत्नत्रय में वर मुख्य नामी है मूल मोक्षतरु का, तज काम कामी ! है एक निश्चय तथा व्यवहार दूजा, होते द्वि भेद, उनकी कर नित्य पूजा ॥२१९।। तत्वार्थ में रुचि भली भव सिन्धु सेतु सम्यक्त्व मान उसको व्यवहार से तू सम्यक्त्व निश्चयतया निज प्रातमा ही ऐसा जिनेश कहते शिब गह राही २२०॥ कोई न भेद, दृग में, मुनि मौन में है माने इन्हें सुबुध 'एक' यथार्थ में है होता अवश्य जब निश्चय का सुहेतु सम्यक्त्व मान व्यवहार, सदा उमे तू ॥२२१॥ योगी बनो अचल मेरु बनो तपस्वी, वर्षों भले तप करो, बन के यशस्वी सम्यक्त्व के बिन नहीं तुम वोधि पायो मंमार में भटकते दुख ही उठाओ ।।२२२।। वे भ्रष्ट हैं पतित, दर्शन भ्रष्ट जो है, निर्वाण प्राप्त करते न निजात्म को हैं। चारित्र भ्रप्ट पुनि चारित ले मिजेंगे 4 भ्रष्ट दर्शन तया नहि वे मिजेंगे ।।२२३॥ जो भी मुधा दृगमयी रुचि मंग पीता, निर्वाण पा अमर हो, चिरकाल जीता मिथ्यात्व रूप मद पान अरे! करेगा होगा सुखी न, भव में भ्रमता फिरेगा ॥२२४।।
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