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अत्यन्त श्रेष्ठ दृग ही जग में सदा से माना गया जड़मयी सब मंपदा तो मूल्यवान, मणि से कब काच होता ? स्वादिष्ट इप्ट, घृत से कब छाछ होता ?॥२२॥
होंगे हुए परम प्रातम हो रहे हैं तल्लीन प्रात्म सुख में नित जो रहे हैं सम्यक्त्व का सुफल केवल प्रो रहा है मिथ्यात्व से दुखित हो जग रो रहा है ॥२२६॥
ज्यों शोभता कमलिनि दृगमजु पत्र । हो वीर में न सड़ता रहता पवित्र । त्यों लिप्त हो विषय से न मुमुक्षु प्यारे होते कषाय मल से प्रति दूर न्यारे ॥२२७॥
धारे विराग दग जो जिन धर्म पाके, होते उन्हें विषय, कारण निजंग के । भोगोपभोग करते सब इन्द्रियो में, साधु सुधी न बंधते विधि बधनों मे ॥२२८ ।
वे भोग भोग कर भी बुध हो न भोगी, भोगे बिना जड़ कुधी बन जाय भोगी। इच्छा बिना यदि करें कुछ कार्य त्यागी, कर्ता कथं फिर बने ? उनका विरागी ।।२२९॥
ये काम भोग न तुम्हें समता दिलाते, भाई ! विकार तुम में न कभी जगाते । चाहो इन्हें यदि इरो इनसे जभी से, पामो अतीव दुसको सहसा तभी से ॥२३०॥