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मामि के वचन पाज नहीं सुहाते, हैं पथ्यरूप, फलतः कटु दीख पाते। पीते प्रतीव कड़वी लगती दवाई, नीरोगता फल मिले, मति मुस्कुराई ।। ९४ ॥
विश्वाम पात्र जननी सम मत्यवादी, हो पूजनीय गुरु मादृश अप्रमादी। वे विश्वको म्वजन भांति सदा मुहाते, वन्, उन्हें मतत में गिर को झुकाते ।। ९५ ॥
जानादि मौलिक मभी गुण वे अनेकों, है, सत्य में निहित मयम गोल देवो । प्रावास ज्यों जलधि है जलजीवियों का त्यों मत्य धर्म जग में सब मद्गुणों का ॥ ९६ ।।
ज्यों ज्यों विकास धन का क्रमशः बढेगा, स्यों त्यों प्रलोभ बढ़ता बढता बढ़ेगा। मम्पन्न कार्य कण में जब जो कि पूरा, होता वही न मन में रहता अधूरा ।। ९७ ।। पा मैकड़ों कनक निर्मित पर्वतों को, होगी न तृप्ति फिर भी तुम लोभियों को। माकाश है वह अनन्त अनन्त प्रागा माशा मिटे, सहज हो परितः प्रकाशा ।। ९८ ।।
त्यों मोह से जनम, तामस लोभ का हो या लोभ से दुरित कारण मोह का हो। ज्यों वृक्ष प्रो ! उपजता उम बीज मे है, या बीज जो उपजना इम वृक्ष से है ॥ ९९ ॥
समणसुतं