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सन्तोष धार, समता जल से विरागी, धोते प्रलोभ मल को बुध सन्त त्यागी। लिप्सा नही अशन में रखते कदापि, हो शौच्य धर्म उनका, तज पाप पापी ॥१०॥
जो पालना समिति, इन्द्रिय जीतना है, है योग रोध करना, व्रत धारना है। सारी कपाय तजना मन मारना है, भाई वहीं सकल संयम साधना है ।१०१॥
फोड़ा कषाय घट को, मन को मरोड़ा, है योगि ने विषय को विप मान छोड़ा। म्वाध्याय ध्यान बल मे निज को निहारा, पाया नितात उसने तप धर्म प्यारा ।।१०२।। वैराग्य धार भवभोग गरीर मे यो ! देखा स्व को यदि मुदूर विमोह में हो । नो त्याग धर्म समझो उनने लिया है, सदेग यों जगत को प्रभुने दिया है ॥१०॥
भोगोपभोग मिलने पर भी कदापि, जो भोगता न उनको बनना न पापी। त्यागी वही नियम मे जगमे कहाता, भोगो न भोग तजता, भव योग पाता ।।१०।।
जो अतरंग बहिरग निमग नगा, होता दुग्वी नहि मुखी, वम नित्य चगा। भाई ! वही वर अकिंचन धर्म पाना, पाता म्वकीय मुख को, अघ को खपाता ॥१०५।।
पद्यानुवाद