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है शुद्ध पूर्ण दग बोधमयी सुधा से, में एक हूँ पृथक हूँ सब से सदा से । मेरा न और कुछ है नित में प्रापी, मेरी नहीं जडमयी यह देह रूपी ॥१०६।। में हूँ सुखी रह रहा मुख मे अकेला, मंग न और कुछ है गुरु भी न चेला । उद्दीप्त हो यदि जले मिथिला यहाँ रे, बोले “नमी" कि उसमे मम हानि क्या रे ! ॥१०७॥
निस्सार जान जिनने व्यवहार मारा, छोड़ा, रम्बा न कुछ भी कुल पुत्र दारा । ऐमा कहें सतत वे सब मन्त सच्चे, कोई पदार्थ जग में न बुरे न अच्छे ।।१०८।। ज्यों पप जो जलज हो जलमे निराला, मो ना गले नहि सड़े रहता निहाला । त्यों भोगमें न रचता पचता नहीं है, है वंद्य ब्राह्मण यहां जगमें वही है ॥१०९॥ ना मोह भाव जिसमें दुख को मिटाया, तृष्णा विहीन मनि, मोहन को नशाया । तृष्णा विनष्ट उसमे यति जो न लोभी, हो लोभ नष्ट उससे विन संग जो भी ॥११०॥
जो देह नेह तजता निज ध्यान धारी, है ब्रह्मचर्य उसकी वह वृत्ति सारी । है जीव ही परम ब्रह्म सदा कहाता, हैं बार बार उसको शिर मैं नवाता ।।१११॥
समणसुतं