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मेरे नहीं "पर" यहाँ पर का न मैं हूँ, हूँ एक हूँ विमल केवल ज्ञान मैं हूँ। यों ध्यान में मनत चितन जो करेगा, ध्याता म्व का बन, मुमुक्ति रमा वरेगा ।। ८५.६॥ जो ध्यान में न निजवेदन को करेगा, योगी निजी-परम-तत्व नही गहेगा । मौभाग्यहीन नर क्या निधि पा मकंगा ? दुर्भाग्य मे दुखित हो नित गे मकेगा ।।४९.७।।
पिण्डम्थ ग्रादिम पदम्थन रप हीन, है ध्यान तीन इनमे तुम हो विलीन । छद्मस्थता, मुजिनता, गिवमिद्धिता ये, तीनों ही नत् विषय है क्रमशः मुहाय ।।४९.८।।
खड्गामनादिक लगा युग वीर म्वामी, थे ध्यान में निरत अतिम तीर्थ नामी । वे स्वभ्र स्वर्गगत दृश्य निहारते थे, मकल्प के बिन समाधि सुधारते थे ।।४९९।।
भोगों, अनागत गतों व तथागतों की, कांक्षा जिन्हें न म्मृति, क्यों फिर पागतों की? ऐमे महर्षि जन कार्मिक काय को ही, क्षीणातिक्षीण करते बनते विमोही ।।५००।
चिता करो न कुछ भी मग से न डोलो, चेष्टा करो न तन से मुख मे न बोलो। यों योग में गिरि बनो, शुभ ध्यान होतामात्मा निजात्मरत ही सुख बीज बोता ।।५०१॥
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