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है ध्यान में रम रहा सुख पा रहा है, गुद्धात्म ही बस जिसे प्रति भा रहा है । पाके कषाय न कदापि दुखी बनेगा, ईर्पा विपाद मद शोक नहीं करेगा ।।५०२ । वे घीर साधु उपसर्ग परीपहों मे, होते न भोक चिगते अपने पदों से । मायामयी अमर सम्पद वैभवों में, ना मुग्ध लुब्ध बनते निज ऋद्धियों में ॥५१॥
वर्षो पड़ा बहुत-सा तृण ढेर चारा, ज्यों अग्नि में झट जले बिन देर माग । न्यों गीघ्र ही भव भवाजित कर्म कूड़ा, ध्यानाग्नि में जल मिटे मुन भव्य मृटा ।।५०८।।
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