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३०. अनुप्रेक्षा सूत्र म्वाधीन चित्त कर तू शुभ ध्यान द्वारा, कर्तव्य प्रादिम यही मुनि भव्य प्यारा । सध्यान संतुलित होकर भी सदा ये, भा भाव से सुखद द्वादश भावनायें ॥५०॥ संसार, लोक, नृष प्रास्रव, निर्जरा है, अन्यत्व प्रो अशुचि, अध्रुव संवरा है, एकत्व प्रो अशरणा प्रवबोधना ये, चिते सुषी सतत द्वादश भावनायें ॥५०६॥ है जन्म से मरण भी वह जन्म लेता, वार्धक्य भी सतत यौवन साथ देता। लक्ष्मी प्रतीव चपला बिजली बनी है, संसार ही तरल है स्थिर ही नहीं है ।।५०७॥ हे ! भव्य मोहघट को झट पूर्ण फोड़ो, सद्यःक्षयी विषय को विष मान छोड़ो। प्रो चित्त को सहज निविषयी बनायो, प्रौचित्य ! ! पूर्ण परमोत्तम सौख्य पाम्रो ॥५०८।। अल्पज्ञ ही परिजनों धन वैभवों को, है मानता "शरण" पाशव गोधनों को । ये है मदीय यह मैं उनका बताता, पं वस्तुतः शरण वे नहि प्राण त्राता ॥५०९॥ मैं संग शल्य त्रय को प्रययोग द्वारा, हैं हेय जान तजता जड़ के विकारा । मेरे लिए शरण त्राण प्रमाण प्यारी, हैं गुप्तियां समितियां भव दुःख हारी ॥५१०॥
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