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३२. प्रात्म-विकास सूत्र संमोह योग वश प्रातम में अनेकों, होते विभिन्न परिणाम विकार देखो! सर्वज्ञ-देव "गुण थान" उन्हें बताया, पालोक मे सकल को जब देख पाया ॥५४६॥
मिथ्यात्व प्रादिम रहा गुण थान भाई, सासादना वह द्वितीय अशान्ति दाई । है मिश्र है अविरती समदप्टि प्यारी, है एक देश विरती धरते प्रगारी । होती प्रमत विरती गिर साधु नाता, हो अप्रमत विरती निज पास पाता। स्वामी प्रपूर्व करणा दुख को मिटाती, है पानिवृत्तिकरणा सुख को दिलातो॥
है सांपराय प्रति सूक्ष्म लोभवाला, है शान्त मोह गत मोह निरा उजाला । हैं केवली जिन सयोगि, अयोगि न्यारे, इत्थं चतुर्दश सुनो ! गुण थान सारे ॥५४७-५४८।। तत्वार्थ में न करना शुचिरूप श्रद्धा, मिथ्यात्व है वह कहें जिन शुद्ध बुद्धा । मिथ्यात्व भी त्रिविध संशय नामवाला, दूजा गृहीत, अगृहीत तृतीय हाला ॥५४९।। सम्यक्त्वरूपगिरि से गिर तो गई है, मिथ्यात्व की प्रवनि पे नहिं आ गई है। सासादना यह रही निचली दशा है, मिथ्यात्व की अभिमुखी दुःख की निशा है ।।५५०॥